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सूरदास जीवनी। नयन शक्ति ना होते हुए भी संसार को भक्ति का उजाला दिखा गए भक्त सूरदास।

यूं तो श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश" और श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता' जैसे ग्रंथों में भक्त सूरदास जी को जन्म से ही अंधा माना गया है लेकिन श्याम-सुन्दर जी का मानना है कि भगवान “श्री राधा कृष्ण जी” के मोहक रंग रूप का सर्जीव चित्रण ,अनेकों प्रकार के रंगो वर्णन और सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों को जिस प्रकार उन्होंने अपनी कलम से दिखाया है कोई नेत्रहीन व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है .

सूरदास। एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही हिंदी एवं ब्रजभाषा के कृष्ण-भक्ति में लिखे सैंकड़ों पद याद आने लगते है। सूरदास ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि और हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं।
हिंदी एवं ब्रजभाषा के क्षेत्र में इन्होने अपने शब्दों से कृष्ण भक्ति का जो चित्र खीचां है वे देखते ही बनता है . सूरदास का नाम कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सर्वोपरि है। 

जीवन परिचय-

इस महान कृष्ण-भक्त का जन्म 1540 ०ई० में रुनकता नामक गाँव में सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ. यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे बसा हुआ है . कुछ जानकारों का मानना है कि इनका जन्म दिल्ली के पास सीही  नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था .
इनके पिता पंडित रामदास एक गरीब सारस्वत ब्राह्मण और बहुत अच्छे गायक भी थे. सूरदास जन्म से नेत्रहीन थे या नहीं इस संबंध में भी विद्वानों में आज भी मतभेद है.

माना जाता है कि शुरुआत में सूरदास जी आगरा के निकट एक गऊघाट पर रहते थे। जहाँ इनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य जी से हुई और ये उनके शिष्य बन गए। श्री वल्लभाचार्य जी को गुरु धारण करने के बाद इन्होने उनसे नाम-दीक्षा ली और उनके आदेश से कृष्ण-लीला के पद गाने लगे। 

सूरदास जी कृष्ण भक्ति शाखा के कवियों में सबसे अधिक लोकप्रिय माने जाते है। इनको श्री-कृष्ण के अनन्य भक्त और हिंदी साहित्य का सूर्य भी कहा जाता है। बात अगर ब्रजभाषा क्षेत्र की करे तो इनको ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि की उपाधि भी प्राप्त है। 

महात्मा एवं कवि श्री सूरदास जी ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अतुल्य है। इनको भक्ति काल की सगुण शाखा के श्री कृष्ण जी का महान उपासक और कवि कहा जाता है। सूरदास जी ने काव्य, भक्ति एवं संगीत जैसी कलाओं की त्रिवेणी प्रवाहित की है 

यूं तो  श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश” और श्री गोकुलनाथ की “निजवार्ता’ जैसे ग्रंथों में भक्त सूरदास जी को जन्म से ही अंधा माना गया है लेकिन श्याम-सुन्दर जी का मानना है कि भगवान “श्री राधा कृष्ण जी” के मोहक रंग रूप का सर्जीव चित्रण ,अनेकों प्रकार के रंगो वर्णन और सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों को जिस प्रकार उन्होंने अपनी कलम से दिखाया है कोई नेत्रहीन व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है .

प्राचीन कथा-

इसी संबंध में एक अन्य प्राचीन कथा कहती है कि मदन मोहन नाम का एक  सुन्दर नवयुवक हर रोज़ नदी के किनारे गीत गाता था एक दिन उसको नदी किनारे कपड़े धो रही एक सुन्दर नव-युवती से प्रेम हो गया उस युवती ने मदन मोहन को ऐसा आकर्षित किया की वह कविता लिखना भूल गए और पूरा ध्यान लगा कर उस युवती को देखने लगे। उनको ऐसा लगा मानो यमुना किनारे राधिका स्नान कर के बैठी हो। फिर उन दोनों के बीच बातों का सिलसिला कई शुरू हो गया जो कई दिनों तक बढ़ता रहा .

कहते है कि उस सुन्दर युवती का चेहरा उनके सामने से नहीं जा रहा था एक दिन वह मंदिर मे बैठे थे तभी वे सुन्दर स्त्री आई । मदन मोहन उनके पीछे पीछे चल दिए । जब वह उसके घर पहुंचे तो उसके पति ने दरवाज़ा खोला तथा पुरे आदर भाव के साथ उन्हें अंदर बिठाया . 

इसके घटना के बाद ही मदन मोहन ने दो जलती सिलियाँ अपनी आँखों में डाल दी और उस दिन से मदन मोहन बन गए सूरदास .

इसी संदर्भ में डॉ०हज़ारी प्रसाद जी कहते है कि “सूर सागर के कुछ पदों के  अध्ययन से चलता है कि सूरदास बचपन से ही अंधा और कर्म से अभागा समझा जाता था लेकिन गुज़रते समय के साथ साथ ये धारणाएं बदलती चली गयी .

आईने-ए-अकबरी के अनुसार सूरदास बादशाह अकबर के दरबार के महान  कवियों और गायकों में से एक थे .

 “सूरसागर” सूरदास जी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है .जिसमे 9 अध्याय मिलते है इसमें लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। लेकिन आज समय में लगभग 5 से 6 हज़ार पद ही मिलते हैं। 

वहीँ सूरसागर की सराहना करते हुए डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते है कि “काव्य गुणें की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौंदर्य है। वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौंदर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है।”

सूरदास जी की जन्म-तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में भी  विद्वानों में बहुत अधिक मतभेद है . सूरदास द्वारा लिखी “साहित्य लहरी’ रचना से पता चलता है कि इनका जन्म लगभग 1607ईस्वी में हुआ है इस ग्रन्थ का भी रचना काल भी संवत् 1607 ईस्वी है इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे।

“मुनि पुनि के रस लेख।


दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख”॥

दूसरी तरफ बल्लभ संप्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए कुछ लोगों में सूरदास जी की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् 1535 ईस्वी मानी गयी है .

लेकिन अधिकतर मतों द्वारा माना जाता है कि सूरदास का जन्म संवत् 1540 ईस्वी के आसपास और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास मानी जाती है।

सूरदास जी की रचनाएं-

हिंदी साहित्य का सूर्य कहे जाने वाले सूरदास अपनी कृति “सूरसागर” के लिये आज भी आदर भाव से याद किए जाते है माना जाता है कि उनकी इस रचना में लगभग 100000 गीत है जिनमे आज के समय में करीब 8000 तक ही मिलते है इन गीतों में भगवान श्री कृष्ण जी बाल लीलाओं का बहुत खूबसूरत वर्णन देखने को मिलता है .

इन्होने सूरसागर के साथ उन्होंने सुर-सारावली और सहित्य-लहरी जैसे ग्रंथों की भी रचना की है .सूरदास ने वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रिंगार रस को अपनाया था। केवल अपनी कल्पना के सहारे इन्होने श्री कृष्ण के बाल्य रूप का अदभूत, सुंदर, दिव्य दर्शन का जो वर्णन किया है वह अतुल्य और अलौकिक है .

सूरदास की रचनाओं में निम्नलिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं –

१. सूरसागर

२. सूरसारावली

३. साहित्य-लहरी

४. नल-दमयन्ती

५. ब्याहलो

मृत्यु-

माना जाता है कि सूरदास जी की मृत्यु वर्ष 1580 ईस्वी में हुई थी विद्वानों का मानना है कि इनका जीवन काल लगभग 102 वर्ष का रहा . “वर्ष 1478 से वर्ष 1580 तक इनकी जीवन यात्रा रही .

अपने जीवनकाल में इन्होने अनगिनत पद ग्रन्थ और भक्ति गीत लिखे जिससे इनकी  कृष्ण भक्ति झलकती है . इन्होने भक्ति का जो मार्ग पृथ्वी-वासियों को दिखाया है वह अलौकिक है. सूरदास जी के लेख हमे साहित्य एवं भक्ति की और अग्रसर करते है . 

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