Covid 19JANMATNationOpinion ZoneRural India
Trending

असफल मनरेगा का धोवन पीने की विवशता क्या है ?

यह मत भूलिए कि अब डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसी योजना का सफल कार्यान्वयन सरकार ब्लॉक स्तर पर नहीं करवा पाए तो देशव्यापी किसी नयी योजना के बारे में सोचना वर्तमान सरकार के लिए भला कहां सम्भव है।

देश को याद होगा आज से कोई साढ़े पांच साल पहले कांग्रेस को सीधे निशाने पर लेते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि ‘उनमें और कुछ हो न हो, इतनी राजनीतिक सूझबूझ तो है कि वह सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली पार्टी की ‘विफलता के जीते जागते स्मारक मनरेगा’ को बंद करने जैसी गलती करने की बजाए गाजे बाजे के साथ इसका ढोल पीटते रहेंगे।’ लेकिन पिछले साल बीजेपी सांसद वरुण गांधी ने कहा था कि मनरेगा एक ‘अच्छी योजना‘ है और इसे असफल नहीं कह सकता। “वास्तव में मैं मनरेगा का समर्थन करता हूं। मुझे लगता है कि यह एक अच्छी योजना है।” वरुण का यह बयान इतना भी हल्का नहीं रहा होगा।

क्योंकि मनरेगा आपकी विफलता का जीता जागता स्मारक है और मैं पूरे गाजे बाजे के साथ इसका ढोल पीटता रहूंगा। और कहूंगा कि देश की आजादी के 60 साल बाद आपने लोगों को गढ्ढे खोदने और गढ्ढे भरने के काम में लगाया। इसलिए मनरेगा ‘आन बान शान’ के साथ रहेगा और गाजे बाजे के साथ इसका ढोल बजाया जायेगा। यह एक विफलता का स्मारक है। लोगों को पता तो चले कि ऐसे खंडहर कौन खड़े करके गया है ? — प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 26 फरवरी 2015

यह मत भूलिए कि अब डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसी योजना का सफल कार्यान्वयन सरकार ब्लॉक स्तर पर नहीं करवा पाए तो देशव्यापी किसी नयी योजना के बारे में सोचना वर्तमान सरकार के लिए भला कहां सम्भव है। 

अब एक और बयान पर नज़र डालिये– पिछले साल जुलाई में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा को बताया था कि ‘नरेंद्र मोदी सरकार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को ज्यादा दिनों तक ‘चलाने के पक्ष में नहीं है।’ उन्होंने कहा था कि ‘मनरेगा ग्रामीण गरीबों को ध्यान में रखकर बनाई गई है, लेकिन मोदी सरकार का बड़ा लक्ष्य तो सबकी गरीबी मिटाना है. लेकिन अब ग्रामीण विकास एवं कृषि मंत्रालय संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में इस योजना के लिए अतिरिक्त 20,000 करोड़ रुपए की मांग पेश करने की तैयारी कर रहा है। यह 2019-20 के केंद्रीय बजट में इसके लिए रखे गए 60,000 करोड़ रुपए के अलावा होगा। 
कोरोना संकट से आजीविका पर आये संकट के चलते पिछले कुछ सप्ताहों में मनरेगा को लेकर एक के बाद एक जितनी घोषणाएं की गई हैं। उन्हें देखकर तो अब लगता है कि ‘जीते जागते स्मारक कही गयी योजना’ पर वर्तमान सरकार की निर्भरता तेजी से बढ़ रही है। अब वह इसे व्यापक ग्रामीण संकट और बेरोजगारी के एक अन्तरिम समाधान के रूप में देखती है। आश्चर्य है कि संसद में कहकहों के बीच जिस प्रकार मनरेगा का मजाक प्रधानमंत्रीजी ने उड़ाया था, अब अचानक इसी ‘विफल कार्यक्रम को ग्रामीण विकास में गतिरोध के संकेतक और इसके प्रस्तावित समाधान के रूप में भी देखा जाने लगा है। 

तो क्या प्रधानमंत्री का वह बयान जल्दीबाजी का बयान था ? क्या उन्हें मनरेगा के व्यावहारिक पक्ष की जानकारी नहीं थी ? या उन्हें इतना भी पता नहीं कि देश में रोजगार केवल आबादी के उस वर्ग को ही उपलब्ध नहीं है जो कोरोना काल में अपने हाथों से बनायी गयी सड़कों पर कंधे पर नौनिहाल और माथे पर गठरी लेकर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलते हुए पुलिसिया जोर जुल्म सहते हुए अपने गाँव पहुँच चुका है। ध्यान रहे अभी तक जारी रिपोर्टों से यह पता चलता है कि शुरुआती रोजगार के लिए श्रमिक नियमित रोजगार के बदले इस योजना के तहत रोजगार गारंटी को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं।  

खबर है कि बीते कई सालों से तमाम आशंकाओं और अटकलों के बीच नसीबवाले इस देश में ठीक-ठाक बारिश होती रही है। औसत बारिश का 71 प्रतिशत — जैसा विशेषज्ञ बताते हैं। दैनिक जरूरतों  और दूसरे कामों के लिए हमें जितना पानी चाहिए उससे दूगुनी मात्रा में पानी इन्द्र देवता की मेहरबानी से बरस कर मनरेगा के तहत खोदे गए जल-संकायों एवं धरती के गर्भ में जमा हो रहा है। पानी उन तालाबों और कुंडों में भी इकट्ठे होते हैं जिसे हिन्दू और मुसलमान राजाओं ने बनवाये। बीते वर्ष सबसे अच्छी बात जरूर रही है कि जब 2014 में सौ सालों की अवधि में चौथा भयंकर सूखा पड़नेवाला था तब देश का तंत्र राहत के लिए कमर कसकर  तैयार थी। क्योंकि गोदाम में अनाज थे। बैंकों में पैसे थे। कई योजनाएं लागू थीं। लोगों में उत्साह था। ज़िन्दगी में रवानगी और आँखों में सपने थे। सुहागिनों-बुजुर्ग महिलाओं द्वारा  पाई-पाई जोड़कर संकट के दिन निकालने के लिए गुप्त धन की मौजूदगी थी। यह घर-घर की कहानी थी।  

नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल के शुरुआती सालों में समूचे देश में तकरीबन आठ लाख जल संकायों के पुर्नजीवन, निर्माण एवं उनकी मरम्मत का काम महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इम्पलाइमेंट गांरटी स्क्ीम (मनरेगा) के जरिये चल रहा था। चूँकि यह अधिनियम, राज्य सरकारों को “मनरेगा योजनाओं” को लागू करने के निर्देश देता है और इसके तहत, केन्द्र सरकार मजदूरी की लागत, माल की लागत का 3/4 और प्रशासनिक लागत का कुछ प्रतिशत वहन करती है। सबसे ख़ास बात है कि राज्य सरकारें बेरोजगारी भत्ता, माल की लागत का 1/4 और राज्य परिषद की प्रशासनिक लागत को वहन करती है। इनके अलावा, राज्य सरकारें बेरोजगारी भत्ता देती हैं, उन्हें श्रमिकों को रोजगार प्रदान करने के लिए भारी प्रोत्साहन दिया जाता है। मगर यह प्रावधान है प्रचलन नहीं।  

सत्ता पक्ष को, उसके पैरोकारों को, समर्थकों और भक्तों को किसी भी सूरत में कांग्रेस वाली मनरेगा स्वीकार्य नहीं है। भाजपा यह नहीं भूल सकती कि इस परियोजना का वादा भारतीय आम चुनाव, 2009 में यूपीए के पुनर्विजयी होने के प्रमुख कारणों में से एक था।   

2014 के पहले तक सरकार इस बात से निश्चिंत थी कि पानी के बगैर लोग अपने गाँवों से रोजगार की तलाश में कहीं और नहीं जाएँगे। यह बात दूसरी है कि मौसमी पलायन अपनी जगह पर है जो हर साल होता है। ख़ास तौर से साल 1989 के बाद जब बिहार-ओडिशा और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में सामाजिक न्याय के अंधड़ में रोजगार देनेवाली फैक्टरियां बंद होती चली गयीं तो कारखानों में काम करनेवाले हाथ दूसरे राज्यों को अपने कौशल और हुनर का जमाल दिखाने लगीं। लेकिन तमाम बदहाली के बावजूद 2005 से आया मनरेगा जरूर था जो गड्ढा किये जाने और भरने मात्र का खाने और कमाने का जरिया था। जैसा आरोप लगाया जाता है। आरोप बेबुनियाद भी नहीं है। 

मनरेगा ने ग्रामीण परिदृश्य को बदला है और भूमि विकास, पानी के परंपरागत खेतों तथा सिंचाई के साधनों में सुधार के साथ जल संरक्षण के कामों के जरिए इसने प्राकृतिक संसाधनों को नया रूप दिया है।

लेकिन यह काम आज भी जारी है जिसे दुनिया भर में भारत के सेवा-प्रबंधन, परंपरागत जल संस्कृति, सामाजिक संतुलन एवं सार्वजनिक पानी की संभावनाओं को लेकर एक सुखद भविष्य का जरिया माना गया। इस योजना की गहराई और गंभीरता दुनिया भर में चर्चित है और यही वजह है गाजे-बाजे और ढोल बजाकर विफलता की दुहाईयाँ देने के मकसद से नहीं बल्कि जनादेश के सम्मान को बचाये रखने के गरज से वर्तमान सरकार  मनरेगा का इस्तेमाल अपनी दो स्वीकृत योजनाओं— प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) और जल आपूर्ति योजना— को लागू करने के लिए करना चाहती है। 
किन्तु सत्ता पक्ष को, उसके पैरोकारों को, समर्थकों और भक्तों को किसी भी सूरत में कांग्रेस वाली मनरेगा स्वीकार्य नहीं है। भाजपा यह नहीं भूल सकती कि इस परियोजना का वादा भारतीय आम चुनाव, 2009 में यूपीए के पुनर्विजयी होने के प्रमुख कारणों में से एक था। इसी कारण से भाजपा मनरेगा को कृषि और शहरी विकास को मनरेगा से जोड़कर इसका वैल्यू एडिशन करना चाहती है।  

लेकिन भाजपा को मनरेगा के दिशा-निर्देशों में कुछ अंतर्निहित सीमाओं का पता नहीं है। मसलन यह कि इसके तहत श्रमिकों को प्रति ग्रामीण परिवार केवल 100 दिनों के लिए ही रोजगार दिया जा सकता है, वह भी योजना के तहत केवल अकुशल मजदूरों के लायक कामों में। दलील है कि मनरेगा में काम के लिहाज से कम मजदूरी मिलती है। राज्यों द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से भी कम। आलोचना का विस्तार यह भी है कि भुगतान के मानदंड के दिशा-निर्देश मनरेगा में ही निर्धारित फार्मूले से तय होते हैं। हालाँकि इसमें सुधार करने के बारे में एक कमिटी ने विचार किया था लेकिन अभी तक किसी परिवर्तन की घोषणा नहीं की गई। इस बीच, असंगठित मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी से संबन्धित कानून 2019 के ‘कोड ऑन वेजेज़’ के जरिए पास किया गया, जिसे वर्तमान सरकार ने अधिसूचित कर दिया है। 

चूँकि सार्वजनिक कार्य योजनाओं का अंतिम उत्पाद (जैसे जल संरक्षण, भूमि विकास, वनीकरण, सिंचाई प्रणाली का प्रावधान, सड़क निर्माण, या बाढ़ नियंत्रण) असुरक्षित हैं जिन पर समाज के अमीर वर्ग कब्जा किये जाने का अंदेशा रहता है। मध्य प्रदेश में मनरेगा के एक निगरानी अध्ययन में दिखाया भी गया कि इस योजना के तहत की जा रही गतिविधियां सभी गाँवों में कमोबेश मानकीकृत हो गई थी, जिसमें स्थानीय परामर्श नहीं के बराबर था। 

आदिवासी इलाकों से मनरेगा की वजह से खिलखिलाहट उमगने लगी और दलितों के बीच आजादी का मतलब एवं मकसद समझ में आने लगा

मनरेगा कानून है। यह कानून नागरिक संगठनों के साथ लंबी मंत्रणा के बाद बना था जो अपने आकार-प्रकार तथा प्रभाव के मामले में बेजोड़ था। इसका स्वरूप भी अन्य सामाजिक योजनाओं से बिल्कुल अलग बनाया था। इसकी पूरी रूपरेखा मांग आधारित थी। इसी कारण मनरेगा ने वाम दलों को आकर्षिक किया, दक्षिणपंथियों को उकसाया और केंद्र को विकास के विमर्श का व्यापक हिस्सा बनाए रखा। अब जबकि मनरेगा को लागू हुए डेढ़ दशक पूरा हो गया है तो इस अवसर पर तीन महत्वपूर्ण सवालों के जवाब तलाशे जाने चाहिए। 

पहला, क्या मनरेगा ने अपनी भूमिका निभाई? दूसरा, आज मनरेगा के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है? और तीसरा, क्या हमें आज भी इस कानून की जरूरत हैं? मनरेगा के प्रदर्शन को दो तरीकों से देखनरा वाजिब होगा–क्योंकि यह एक रोजगारपरक कार्यक्रम है। मतलब, इसने आजीविका सुरक्षा को जरूर बढ़ाया है जैसे महानतम उद्देश्य इसके साथ जुड़े हैं। दूसरा, जो सबसे बड़ा सवाल है वह इस कानून की उस भूमिका से जुड़ा है कि क्या इसने गाँवों के सम्पूर्ण विकास तथा सशक्तिकरण के मजबूत साधन के रूप में अपनी भूमिका अदा की? यह भूलने और मजाक किये जाने की बात नहीं है कि मनरेगा विफलताओं का स्मारक है। बल्कि यह योजना हर साल कुल ग्रामीण परिवारों से एक चौथाई परिवारों को 40-45 दिनों तक रोजगार उपलब्ध कराती है। यह रोजगार थोड़े बहुत कृषि कार्य जैसे गैर मनरेगा कामों के अतिरिक्त है। 

मनरेगा की सबसे खास उपलब्धि ग्रामीण मजदूरों में बढ़ोतरी रही है। यदि इसकी विफलता की बात पुरअसर अंदाज में करने की मंशा रखकर यूपीए वाली मनरेगा को स्वीकार नहीं करने की ज़िद्द है तो यह भाजपा के मनोरंजन का ख़ास अंदाज है। 

इससे यह बात साफ है कि ग्रामीण आय को बढ़ानें में इस कानून की बड़ी भूमिका रही है। दूसरी तरफ, मनरेगा और ग्रामीण सशक्तीकरण पर लोगों का मत जरूर बंटा हुआ है। दरअसल इसकी वजह अलग-अलग राज्यों में इसके क्रियान्वयन में अंतर होना है। इसके बावजूद इस कानून की सफलता को हम नकार नहीं सकते। उदाहरण के लिए मनरेगा की सबसे खास उपलब्धि ग्रामीण मजदूरों में बढ़ोतरी रही है। यदि इसकी विफलता की बात पुरअसर अंदाज में करने की मंशा रखकर यूपीए वाली मनरेगा को स्वीकार नहीं करने की ज़िद्द है तो यह भाजपा के मनोरंजन का ख़ास अंदाज है। 
वह यह क्यों भूल जाती है कि 2006 से 2014 तक देश के बड़े राज्यों जैसे उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात में देश की लगभग 59.11 फीसद आबादी रहती है। इन तमाम राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें थीं। यदि मनरेगा विफलता का स्मारक है तो उस गगनचुम्बी स्मारक में कितनी ईंटें राज्य की सत्ताधारी पार्टियों ने समर्पित की, यह प्रधानमंत्री से बेहतर कोई नहीं जानता। यदि संयुक्त गठबंधन या किसी खास दल की असफलता का स्मारक मनरेगा कहकहों के साथ घोषित किया जा चुका है तो इन 6 सालों में किसी ऐसे रोजगारपरक कार्यक्रम की शुरुआत होनी चाहिए थी जो असफलता के इस स्मारक को अप्रासंगिक साबित करता। 

भुगतान के मानदंड के दिशा-निर्देश मनरेगा में ही निर्धारित फार्मूले से तय होते हैं। हालाँकि इसमें सुधार करने के बारे में एक कमिटी ने विचार किया था लेकिन अभी तक किसी परिवर्तन की घोषणा नहीं की गई। इस बीच, असंगठित मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी से संबन्धित कानून 2019 के ‘कोड ऑन वेजेज़’ के जरिए पास किया गया, जिसे वर्तमान सरकार ने अधिसूचित कर दिया है।

यदि ज़मीन खोदना और भरना मात्र मनरेगा है तो 2014 से सदिच्छाओं से भरा रोजगारपरक कोई मॉडल राज्य स्तर पर विकसित किया गया हो तो देश जानना चाहता है। क्या जनहित के लिए इस मनरेगा को सरकार बन्द नहीं कर सकती थी ? वाजिब सी बात है कि काले धन पर रोक लगाने जैसे ‘सफल मुहिम’ की तरह यह भी कदम वर्तमान सराकर का सार्थक कदम कहा जाता।   

यह सच है कि मनरेगा ने ग्रामीण महिलाओं को काम का महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध कराया है और लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया है। इसमें महिलाओं की भागीदारी करीब 50 प्रतिशत तक बरकरार रही है। अन्यथा, मनरेगा के अभाव में ये महिलाएं या तो बेरोजगार रहतीं या फिर अर्धबेरोजगार रहतीं। आंकड़ों से बिल्कुल स्पष्ट है कि मनरेगा ने पलायन पर भी रोक लगाई है। इस प्रकार, मनरेगा ने ग्रामीण परिदृश्य को बदला है और भूमि विकास, पानी के परंपरागत खेतों तथा सिंचाई के साधनों में सुधार के साथ जल संरक्षण के कामों के जरएि इसने प्राकृतिक संसाधनों को नया रूप दिया है।

एक समय ऐसा भी देखने को मिला जब आदिवासी इलाकों से मनरेगा की वजह से खिलखिलाहट उमगने लगी और दलितों के बीच आजादी का मतलब एवं मकसद समझ में आने लगा। हाल ही में एक सर्वे में बताया गया कि मनरेगा ने आदिवासियों में गरीबी 28 फीसद और दलितों में 38 फीसद कमी लाने में सफलता पाई है। इसके अलावा मनरेगा के जरिये संस्थागत परिवर्तन भी आया है। साल 2008 में 2014 के बीच 6 साल की अवधि में बिना किसी तामझाम के दस करोड़ के करीब बैंक और पोस्ट आॅफिस खाते खोले गए और कुल मजदूरी के अस्सी फीसद हिस्से का इसके जरिये भुगतान किया गया। यह सही मायने में वित्तीय समावेशन था, क्योंकि इससे भ्रष्टाचार और रिसाव में कमी सुनिश्चित हुई। 

लेकिन ऐसी तमाम बुनियादी सफलताओं के बावजूद यह सवाल जरूर उभरता है कि आज मनरेगा किस हाल में है? ‘विफलताओं के स्मारक’ के रूप में इसे स्थापित किये जाने के मूल में कुछ तो वजह रही होगी। अन्यथा, इस योजना की मांग में गिरावट क्यों होती? इन तमाम चर्चाओं के पहले हम अपने इतिहास के गलियारे में जायेंगे। हम भारत की मूल आत्मा को समझेंगे। उस माहौल को जानना चाहेंगे जिसमें गांव का मन, उसकी संवेदनाएं एवं परंपराएं फलती-फूलती रही हैं।
बात कोई बेहद पुरानी नहीं है। पूरे देश में वर्षा जल संग्रह की एक बेहद मजबूत संस्कृति थी, जो स्थानीय समाज के लिए गौरव और गरिमा की बात थी। लोगों के पास आहर थे, पोखर थे और तालाब थे। इनसे पानी से जुड़ी हर जरूरत लोग पूरी करते थे। मगर अंग्रेज क्या आए, बर्बादी की नई से नई परिभाषा गढ़ते चले गए। उन्होंने जोरिया-आहर-पोखर-तालाब और कच्चे कुँओं को आम जनता से दूर कर दिया–60 से 70 साल में स्थानीय किसानों द्वारा बनाए गए चार हजार सालों के अभिक्रमों का गला घोंट दिया। लेकिन साल 2006 से देश भर में नई तस्वीर उभर कर सामने आ रही है। घाल घोटालों से जूझते हुए मनरेगा के तहत जो काम सम्पन्न किये गए उससे करीब 20 लाख जल संकायों का अस्तित्व आज देखा जा सकता है। वाजिब बात है कि इनमें झारखंड के तकरीबन वैसे कुछ जल-संकाय  जरूर हैं जिनकी महिमा  वहाँ के लोक गीतों से लेकर  सर्वे सेटलमेंट जाॅन रिड की रिपोर्ट में भी है।

यह रोजगारपरक कार्यक्रम रहा है, जो गाँव के समूचे आर्थिक तंत्र को मजबूत करने का मिशन लगा। खासतौर से उन लघु किसानों के जीवन में उम्मीदें भरने में सफल रहा, जो किसान देश के सकल घरेलू उत्पादन में 20 प्रतिशत का योगदान देते हैं।

वैसे तो मनरेगा को लेकर पक्ष और विपक्ष से अतिवादी प्रतिक्रियाएं आती रहीं हैं। साल 2005 में यह योजना 200 जिलों में शुरू की गई थी (और बाद के दिनों में इसका विस्तार पूरी देश में हुआ) तो इस योजना के समर्थकों ने कहा कि यह ग्रामीण भारत में एक नये युग की शुरूआत है। बहरहाल मनरेगा से नव-उदारवादी खेमे के प्रभावशाली अर्थशास्त्री इतने नाराज थे कि उनमें से एक ने कहा कि पैसा ही बर्बाद करना है तो इससे बेहतर तरीका है कि हेलिकाॅपटर से नोटों की बरसात कर दी जाए। हालांकि आज स्थिति दूसरी है और मनरेगा पर उंगली उठाने वाले मुख्यतः तीन वजहों से चुप रहे हैं। पहला, योजना को आम तौर पर सफल हुआ बताया गया है। ऐसा माना जा रहा है कि यूपीए के दोबारा सत्ताहीन होने में मनरेगा की तहत्वपूर्ण भूमिका रही है। और तीसरी वजह यह है कि मंदी की मारी पश्चिमी दुनिया इस लोक-कल्याणकारी कामों में सरकारी खर्च की दुहाई देने लगी है। मनरेगा के आलोचक अब इस योजना में जारी भ्रष्टाचार और गड़बड़ घोटाले की ही बात कर रहे हैं। इन सबके बावजूद मनरेगा में भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर हो रहा है।

गौरतलब है कि मनरेगा गरीबी उन्मूलन की अधिकतर योजनाओं से एक बुनियादी अर्थ में भिन्न है। इसमें इस बात की पहचान की गई है कि व्यक्ति को रोजगार का वैधानिक अधिकार होता है। क्योंकि पहली बार किसी योजना से बैंकों को जोड़ा गया। इस कार्यक्रम से इस बात की तसल्ली भी हुई कि सामुदायिक संपदाओं के जीर्णोद्धार की संभवनाएं पुख्ता हो गयीं। विशेषज्ञों के मुलाबिक मनरेगा से देश के नागरिक समूहों की आवाज मजबूत हुई और उन आवाजों को एक नयी धार मिल गई। मगर दूसरी और यह भी बात उभरकर सामने आयी कि इस कार्यक्रम के मूल में भ्रम ज्यादा है वास्तविकता कुछ और हैं। इसी वजह से कल्पनालोक में आदर्श की हांडी में पकायी गयी खिचड़ी जैसे विचार कई नागरिक-समूहों, प्रतिबद्ध विशेषज्ञों और ज़मीनी  स्तर के संगठनों के साल-दर-साल चलने वाले प्रयासों के बूते आखिरकार हकीकत की जमीन पर नमूदार हुआ। इनमें से कई कार्यकर्ता कारगर सामाजिक अंकेक्षण (सोशल ऑडिट) और मजदूरी के भुगतान से हुई देरी के लिए मुआवजा देने की मांग उठाने लगे। 

आँकड़ों और इन दावेदारियों के कृष्ण पक्ष में भी जाना जरूरी समझते हैं। मनरेगा सूखे से मुक्ति, रोजगार की उपलब्धता, जल संकायों के पुनरोद्धार एवं निर्माण से लेकर आम आदमी के जीवन की हकदारी का एक व्यापक मिशन रहा है। 

यह जानकारी सर्वसुलभ है कि पिछली सरकार का दावा था कि मनरेगा के जरिए गाँव को सूखे से मुक्ति दिलायी जाएगी। हर जरूरतमंद को, जिसे रोजगार की जरूरत है, उसे सौ दिन का रोजगार की व्यवस्था मनरेगा में रहा है। उचित मजदूरी मिलने की वजह से गाँवों के श्रमिक मनरेगा को स्वीकार कर रहे हैं। देश में चारों ओर मनरेगा लागू करना सरकार की जिद्द रही और जनता को उसकी ओर से काम और रोजगार दिये जाने का एक पक्का भरोसा भी। चूँकि सपना था कि एक करोड़ हैक्टेयर जमीन मनरेगा के बूते सूखे से मुक्त हो सकेंगे क्योंकि इन तालाबों-आहरों में बारिश क 52.30 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी इक्ट्ठा होगा और अलग से धरती के गर्भ को तरावट भी मिलेगी। 

इस अनुमान से जुड़े आकड़े अविश्वसनीय हैं। क्योंकि मामला गाँवों के विकास का रहा है, जिस विकास का सरोकार शहरों से नहीं है। न ही शहरी बाबूओं का हस्तक्षेप मनरेगा में दिखा। यह रोजगारपरक कार्यक्रम रहा है, जो गाँव के समूचे आर्थिक तंत्र को मजबूत करने का मिशन लगा। खासतौर से उन लघु किसानों के जीवन में उम्मीदें भरने में सफल रहा, जो किसान देश के सकल घरेलू उत्पादन में 20 प्रतिशत का योगदान देते हैं। प्राकृतिक आपदाओं में अनाज और पानी की कमी होती है। कुछ सालों के लिए देश में अन्न के भरपूर भंडार हैं और पानी की जरूरत मनरेगा के प्रयासों से पूरा किये जाने की दावेदारी भी थी। तो हम आज सूखे से और अकाल से इसी तरह लड़ने और जूझने में सक्षम हैं, क्योंकि जानकारों का कहना है कि भविष्य में लगातार दो मानसून भी दगा दे जाए तो देश में न अनाज की कमी होगी और न ही रोजगार की। मनरेगा के जरिये गाँवों से शहरों की ओर पलायन रोकने की कोशिश सरकार की थी, ऐसा माना जाता था।

वर्षों से भ्रष्टाचार के सारथी बने सरपंचों का साहस इतना खुल चुका था कि वे ओडिशा के कालाहांडी जिले के कलमपुर प्रखंड के 31 गाँवों में सड़क निर्माण के लिए जिन ट्रक्टरों को मिट्टी ढोने के लिए उपयोग में ला रहे थे, उन ट्रक्टरों के नम्बर प्लेट स्थानीय जनता की मोटर साइकिल में पाए गए।

मगर हम आँकड़ों और इन दावेदारियों के कृष्ण पक्ष में भी जाना जरूरी समझते हैं। मनरेगा सूखे से मुक्ति, रोजगार की उपलब्धता, जल संकायों के पुनरोद्धार एवं निर्माण से लेकर आम आदमी के जीवन की हकदारी का एक व्यापक मिशन रहा है। तकरीबन 250 से कहीं ज्यादा जिलों में इसके तहत ग्रामीण विकास की लोरियाँ गाई जा रही थीं और आनेवाले तीन सालों में यह समूचे भारत में लागू किया जाता था। चूंकि सपनों की दुनिया बेहद रूपहली होती है मगर यथार्थ की जमीन उससे कहीं ज्यादा रूखी और पथरीली। मनरेगा से जुड़े भ्रष्टाचार की ठुमरी और कजरी तभी तो गाँवों से सुनने को मिले। क्योंकि इसे संचालित करनेवाले वही नौकरशाह रहे हैं जो बिहार में चारा खा गए और झारखंड में जंगलों और खदानों को बेच डाला। 

तभी वो मनरेगा पर गाँव के सामंतों का और समाज के बाहुबलियों का वर्चस्व होता चला गया है। ग्राम्य स्वराज्य के नाम पर मुखिया सरपंच विकास का वैसा ही बंदरबाँट करने लगे जैसा उन्होंने जवाहर रोजगार योजना से लेकर जल-छाजन कार्यक्रम में किया था। वर्षों से भ्रष्टाचार के सारथी बने सरपंचों का साहस इतना खुल चुका था कि वे ओडिशा के कालाहांडी जिले के कलमपुर प्रखंड के 31 गाँवों में सड़क निर्माण के लिए जिन ट्रक्टरों को मिट्टी ढोने के लिए उपयोग में ला रहे थे, उन ट्रक्टरों के नम्बर प्लेट स्थानीय जनता की मोटर साइकिल में पाए गए। 

बिहार के चारा घोटालाबाजों ने स्कूटर पर गाय भैंस ढोए थे, अब ओडिशा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में मुखिया सरपंच बाइक पर मिट्टी ढो रहे थे। नतीजतन अभी निर्धारित अवधि में लक्ष्य का 50 फीसदी काम भी मनरेगा में पूरा नहीं किया जा सका है। लेकिन सवाल उठता है कि इन तमाम राज्यों में सरकारें किनकी थीं। एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2013  तक मात्र 16 प्रतिशत जल-संकायों से जुड़े काम पूरे किये गए थे और अकाल से निपटने से जुड़े कार्यों का 10 प्रतिशत काम पूरा किया जा सका । हालांकि योजना मद की राशि नियमित रूप से तेजी से खर्च की जा रही थी। विशेषज्ञों ने माना कि जितने काम पूरे भी किये गए, उनसे कोई लाभ होता नहीं दिखा। 
उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में कुल 7981 काम किये जाने की योजना थी जिनमें मात्र 29 योजनाएँ पूरी होने की खबर आयी। इनके अलावा जो सबसे दुखद बात है वह यह कि मनरेगा के कामों में मजबूती नहीं दिखी और पूरे किये गए कामों के टिकाऊपन को लेकर शक और आलोचना की परछाइयाँ लगातार लंबी होती चली गयीं। जल-संग्रह से संबंधित कामों में आज 90 प्रतिशत की कोई उपयोगिता नहीं है, विशेषज्ञ बताते हैं। अब सवाल उठता है कि इस विफलता का पूरा ठीकरा केंद्र सरकार पर कोई कैसे फोड़ सकता है।    

मनरेगा भी भ्रष्टाचार की समस्या से जूझ रहा है। इस बारे में आम राय है कि भ्रष्टाचार के साथ सख्ती से निपटने की जरूरत है, लेकिन फंड में कटौती इसका कोई हल नहीं था। अब मनरेगा को सेहतमंद रखने में वर्तमान सरकार भी इच्छुक है तो इसकी वास्तविक वजह को सत्ता पक्ष नए सिरे से कहना चाहेगा।

रोजगार के कुल श्रम दिवसों की संख्या वितवर्ष 2013-14 में 220 करोड़ तुलना में वित्त वर्ष 2014-15 में घटकर 166 करोड़ हो गई। इसके साथ ही मजदूरी भुगतान में 40 फीसद की देरी हुई। कुल मिलाकर बीते दो वर्षों में मनरेगा को लेकर सरकार का रवैया बेतहर ढुलढुल रहा। वर्ष 2014-15 में योजना के मजदूरी और सामग्री अनुपात को 60ः40 से 51ः49 करने का प्रयास किया गया। आशंका पैदा हुई कि योजना के श्रम आधारित स्वरूप में बदलाव करने का विचार इस कानून के मुख्य उद्देश्य को प्रभावित करेगा। हालांकि सरकार ने इस सुझाव से अपने पर खींच लिए, लेकिन धन का आवंटन अप्रत्याशित बना हुई है। 

बीते कुछ सालों में राज्यों के पास फंड बैलैंस नकारात्मक दर्शा रहे थे। इसी बीच 2014 में सरकार बदल गई तो विकास से लेकर सत्ता की मान्यताए बदल गयीं। नयी सरकार जब पुरानी व्यवस्था पर अंगुली उठाती है तो पुराने कार्यक्रम अप्रांसगिक हो जाते हैं। क्योंकि कार्यक्रमों को सफल बनाने वाले दोनों घटकों यानी राजनीतिक इच्छाशक्ति और उक्त का कार्यक्रम के प्रति विश्वास में कमी आ जाती है।

कुछ राज्यों या जिलों में घटिया क्रियान्वयन अथवा भ्रष्टाचार के कारण इस कानून की जरूरत और उपयोगिता का फैसला नहीं किया जा सकता है। मनरेगा का आंकलन करने के दौरान हमें यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि यह एकमात्र ऐसा साधन है जो ग्राम पंचायतों को सशक्त करता रहा है। कामों का पचास फीसद ग्राम पंचायतें निष्पादित करती हैं। 

मनरेगा की आलोचना खासतौर से दो बातों के लिए की जाती है। एक, इस योजना में भारी पैमाने पर रिसाव है और दूसरी, इसमें काम के नाम पर गड़ढे खोदे और भरे गये हैं। जिसकी कोई उपयोगिता नहीं होती। ये दोनों आलोचनाएं बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई हैं और वे बौद्धिक आलस्य और वैचारिक संकीर्णता पर आधारित हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दूसरी योजनाओं की तरह  मनरेगा भी भ्रष्टाचार की समस्या से जूझ रहा है। इस बारे में आम राय है कि भ्रष्टाचार के साथ सख्ती से निपटने की जरूरत है, लेकिन फंड में कटौती इसका कोई हल नहीं था। अब मनरेगा को सेहतमंद रखने मेंवर्तमान सरकार भी इच्छुक है तो इसकी वास्तविक वजह को सत्ता पक्ष नए सिरे से कहना चाहेगा। ध्यान देने की जरूरत है कि मनरेगा आईटी और समुदाय आधारित जवाबदेही तंत्र जैसे सोशल आॅडिट के जरिये भ्रष्टाचार से लड़ती रही है।

तथ्य यह है कि देश में बहुत कम ही योजनाएं हैं जो सौ फीसद तकनीक से जुड़ी हुई हैं और उनसे संबंधित आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया है। वैसे तो मनरेगा के तहत होने वाले कामों के स्थायित्व और उपयोगिता से जुड़ी चिंताओं को 2013 में इसमें नए कामों को शामिल कर दूर करने का प्रयास किया गया था।

गैरसरकारी संगठनों, जमीनी स्तर पर सक्रिय समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों, सार्वजनिक सुविधाओं और ग्रामीण विकास के प्रबंधकों का वैविध्यपूर्ण गठबंधन इस काम के लिए जरूरी था।

यह सच है कि 1990 का दशक तमाम राजनीतिक दावेदारियों के बावजूद रोटी, कपड़ा और मकान के नाम लड़े गए संग्राम का एक हारा हुआ दशक था। विकास के नाम पर गरीबों के उद्धार के लिए जो काम हुए उनसे लोगों की भूख जरूर शांत हुई लेकिन जीवन के हर स्तर पर अंसतुलन एवं विद्रुपताएँ बढ़ती चली गईं। लोगों में जागरूकता आई किन्तु इस क्रम में लोगों को अपने अधिकार को लेकर चिंताएँ ज्यादा गहराई। इसी प्रक्रिया में कर्तव्यों के बारे में चिंतन की परंपरा खत्म होती चली गईं। संसाधनों के हड़पने और मानवीय श्रम के दोहन का सिलसिला जारी रहा। इससे समाज में असंतोष गहराता चला गया। कुछ राज्यों या जिलों में घटिया क्रियान्वयन अथवा भ्रष्टाचार के कारण इस कानून की जरूरत और उपयोगिता का फैसला नहीं किया जा सकता है। मनरेगा का आंकलन करने के दौरान हमें यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि यह एकमात्र ऐसा साधन है जो ग्राम पंचायतों को सशक्त करता रहा है। कामों का पचास फीसद ग्राम पंचायतें निष्पादित करती हैं। 

लेकिन पंचायतें निष्क्रिय हो जाती हैं क्यों िकि नक्सली आतंक में कोई कमी नहीं दिख रही है। क्योंकि कि राजनीतिक इच्छाएं स्वार्थपरक हो चुकी है। सुदूरवर्ती इलाकों में चल रहे लाल सलाम के कारोबार का भयंकर रूप इसी वजह से देखने को मिला। मनरेगा को भ्रष्टाचारियों से कहीं ज्यादा लाल आंतक का सामना करना पड़ा। नौकरशाही के शिकंजे में जा फँसे मनरेगा को नागरिक संस्थाओं, स्वयंसेवी  संगठनों, सहकारी संस्थाओं और स्वयं सहायता समूहों से जोड़ा जाना इसी वजह से जरूरी महसूस किया गया। मनरेगा में ऐसे प्रावधान थे मगर नौकरशाह चाहती तब तो। यही कारण है कि करोड़ों जरूरतमंद लोगों तक मनरेगा का लाभ पहुँचाने की चुनौती ऐसी रही है जिसके लिए जरूरी था जनकेंद्रित भागेदारी प्रक्रियाओं से जोड़ना। गैरसरकारी संगठनों, जमीनी स्तर पर सक्रिय समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों, सार्वजनिक सुविधाओं और ग्रामीण विकास के प्रबंधकों का वैविध्यपूर्ण गठबंधन इस काम के लिए जरूरी था।

मनरेगा आखिर में चले कैसे? इसकी जवाबदेही जिसकी है? क्योंकि सोशल आॅडिट से जवाबदेही सुनिश्चित होती है। अन्य किसी योजना में इतनी बड़ी मात्रा में फंड जारी नहीं हुआ है। इसमें औसतन पंद्रह लाख रुपये की राशि प्रति वर्ष सीधे ग्राम पंचायतों को जारी की जाती है। इस प्रकार यदि हम ग्रामसभा से लेकर लोकसभा में विश्वास करते हैं तो मनरेगा की आधारभूत संरचना का त्याग नहीं किया जाना चाहिए। इस योजना की लगातार समीक्षा और मूल्यांकन की जरूरत है। 

आज जरूरत इस बात की है कि मनरेगा के जरिये जल-प्रबंधन में जुटे राज-व्यवस्था को पानी से जुड़े अन्य उपायों पर भी ध्यान देना होगा। इस देश का भला तब होगा जब जल छाजन कार्यक्रम को समेटने के बजाय इसे मनरेगा से जोड़ा  जाता, साथ में  नौकरशाहों के हस्तक्षेप से अलग रहकर। यह ध्यान रहे मनरेगा के जरिये हम आम जनों तक रोटी-रोजगार पहुँचाना चाहते हैं। यह वोट की सौदागरी का कोई माध्यम नहीं है।  

मनरेगा राजनीतिक आकाओं के दुमछल्लों के रोजगार तथा ऐशपपरस्ती का साधन अब न बने, इसे देखा जाना जरूरी है। मनरेगा का ध्यान अति पिछड़े इलाकों के वंचित समुदायों और कौशल विकास पर केंद्रित किया जाना चाहिए। इसे 2013 में मनरेगा का हिस्सा बनाया गया था और आज इसमें विस्तार की जरूरत है। इसके अतिरिक्त मनरेगा को तुरंत सामाजिक-आर्थिक जाति गणना से जोड़ा जाना चाहिए। सबसे ध्यान देने की बात है कि मनरेगा के लिए राजनीतिक समर्थन में निरंतरता सबसे ज्यादा जरूरी है। 

यह मत भूलिए कि अब डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसी योजना का सफल कार्यान्वयन सरकार ब्लॉक स्तर पर नहीं करवा पाए तो देशव्यापी किसी नयी योजना के बारे में सोचना वर्तमान सरकार केलिए भला कहां सम्भव है। इनका आंकलन तो कीजिये। विफलताओं का स्मारक कहना आसान है– बढ़िया होता मनरेगा के बदले कोई सटीक और कारगर कार्यक्रम केंद्र सरकार लाती तो भ्र्ष्टाचार मुक्त विकास के नए युग की शुरुआत होती। अन्यथा इस अवतारी युग में उसी मनरेगा का धोवन पीने की विवशता क्या है ?

लेखक : अमरेंद्र किशोर

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण):इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति theJanmat.com उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार theJanmat.com के नहीं हैं, तथा theJanmat.com उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है..
Tags
Show More

Related Articles

One Comment

  1. मनरेगा को लेकर भाजपा शीर्ष नेतृत्व की बयानबाजी निसंदेह जल्दबाज़ी में थी। आज मनरेगा की स्थापित प्रणाली ही है जिसके कारण सरकार को ग्रामीण स्तर पर सहायता प्रदान करने में सहूलियत हो रही है। उम्दा लेख सर। आपने अत्यंत परिश्रम और शोध से एक महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाया और उसके साथ बराबर न्याय करते हुए एक स्तरीय लेख हम जैसे पाठकों को दिया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close