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चंद्रशेखर जी की राजनीति ने ही देश की डूबती हुई अर्थव्यवस्था को सुधारा था।

समाजवाद एक शासन व्यवस्था नहीं है। समाजवाद मुक्त और बराबर लोगों का समाज रचने की एक प्रणाली है। भारत का लक्ष्य समाजवाद की ओर बढ़ना है, समाजवादी नीतियां मार्ग है। समाजवाद लक्ष्य है। समाजवाद का सार्वजनिक और निजी क्षेत्र से कुछ लेना देना नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र, कंट्रोल, रेगुलेशन, योजना यह सब समाजवाद की तरफ बढ़ने का एक कारण है।"

एमआईटी के अर्थ-शास्त्री डैरन ऐसमाउल और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जेम्स रॉबिन्सन, जिन्होंने बड़ी लगन से एक किताब लिखी थी – “व्हाई नेशंस फेल : द ऑरिजिन्स ऑफ पावर, प्रॉस्पेरिटी एंड पॉवर्टी, ए इनसाइट” 

इस पुस्तक में लेखक जोड़ी की एक स्थापना है कि –

 ‘एक देश का भाग्य काफी हद तक राजनीतिक और आर्थिक प्रणालियों की  उसकी अपनी पसंद से निर्धारित होता है। जो देश सफल हुए हैं उन्होंने समावेशी राजनीति और समावेशी अर्थशास्त्र को चुना है।  

भारतीय राजनेताओं ने -अभिमान से कम और पूर्वाग्रह और व्यामोह से अधिक प्रभावित हो,असंगत विचारों के संयोजन को चुना था । वह संयोजन है, समावेशी राजनीति और अलग – थलग करने वाला अर्थशास्त्र।  दूसरे शब्दों में, राजनीतिक स्वतंत्रता दी गई और आर्थिक स्वतंत्रता से वंचित कर दिया गया।’

अपनी पुस्तक “एक्सिडेंटल इंडिया” में शंकर अय्यर का यह मानना है कि भारतीय राजनेताओं ने अपनी यह गलत संयोजन की गलती 1991 में सुधारी। उदारीकरण को शंकर एक प्रकार का समावेशीकरण मानते है। अपनी किताब में वह फ्रांसिस फुकुयामा को उद्धृत करते हुए यह बताते है कि भारत का जनतंत्रीय अनुभव एक टेढ़े मेढे रास्ते पर बेतरतीब चला। 

फुकुयामा के अनुसार पश्चिम में सबसे पहले विधि के शासन की स्थापना का प्रयास किया गया फिर उसके बाद राज्य नामक संस्था को मजबूत किया गया तब जाके अंत में लोकतंत्र की घोषणा की गई। इसके उल्टे भारत (पूर्व) में ये तीनों चीजें एक ही साथ एक ही झटके में लागू कर दी गई। नतीजतन भारत को एक अस्त व्यस्त व्यवस्था मिली।

शंकर नायर देश को इस अस्त व्यस्त हालत से उबरने और आज सफल राष्ट्रों के बीच खड़े होने का सारा श्रेय ” सेवेन मिनी मिरैक्ल” को देते हैं। ये सात छोटे आश्चर्य दरअसल आज़ादी के बाद की सात राजनैतिक – आर्थिक घटनाएँ हैं। जिन्होंने देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शंकर नायर इनके लिए काफी दिलचस्प उप शीर्षकों का प्रयोग करते हैं। मसलन – 

 हरित क्रांति को वह ‘हंगर गेम्स’ उप शीर्षक  और श्वेत क्रांति को ‘मिल्की वे’ उप शीर्षक देते है इसी प्रकार वह सूचना के अधिकार अधिनियम को ‘द विंची कोड ‘ उप शीर्षक के जरिए व्याख्यायित करते हैं।

कुल मिलाकर शंकर नायर की किताब दिलचस्प है। 

शंकर नायर पर मेरे इतना सब कुछ लिखने का सबब आज से कुछ साल पहले चंद्रशेखर जी को केंद्र में रख कर एक हिंदी दैनिक के लिए लिखा गया उनका लेख है। लेख वाकई में अच्छा लिखा गया है। एक सधे हुए अंदाज का एक बेहतरीन लेख। 

किंतु प्रस्तुत लेख की मुख्य स्थापना को दिमाग में रखते हुए यदि चंद्रशेखर जी के प्रधानमंत्रित्व काल के लिखित साक्ष्यों से गुजरा जाए तो कुछ असंगत और विरोधाभासी सा मिलता है। इस विरोधाभास ने मुझे भी उद्वेलित किया जिसका प्रति-फल मेरा यह लेख हो सकता है।

शंकर अय्यर ने अपने लेख में मुख्यत तीन बातें कहीं है।

पहला, यह  चंद्रशेखर जी का ही प्रधानमंत्रित्व काल रहा जब भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति छोड़ प्रबुद्ध व्यावहारिकता को अपनाया। इराक की भर्त्सना की और फिलीपींस से उड़ने वाले अमेरिका के ‘ युद्धक ‘  विमानों को बंबई में तेल भरने की अनुमति प्रदान की।

वस्तुत: चंद्रशेखर जी एक कुशल व्यावहारिक राजनेता भी थे। किसी भी सिद्धांत को लेकर उनमें कट्टरवादिता का अभाव था। आप प्रधानमंत्री हो और  मामला जब राष्ट्रहित का हो तो कट्टरवादी हुआ भी नहीं जा सकता। वहां आपको मर्गेंथाऊ होना ही पड़ेगा।

जनवरी 1991 में खाड़ी युद्ध के प्रारंभ होने से 6 महीने पहले ही यानि  अगस्त में ही बीपी सिंह की सरकार अर्थव्यवस्था के मटियामेट होने की घोषणा कर चुकी थी। सोवियत संघ इतिहास बन चुका था।

देश में मंडल – मंदिर की आग जल रही थी। पूर्वोत्तर ,पंजाब और कश्मीर की हालत चिंताजनक थी। खाड़ी देशों में 12-13 लाख भारतीय फंसे थे। अर्थव्यवस्था को विदेशी मुद्रा की दरकार थी।

क्या ऐसे समय में कोई किसी भी देश का  नेतृत्व #अमेरिका की (जो उस समय एकमात्र विश्व शक्ति था) की नाराज़गी मोल लेना चाहता?

लेकिन चंद्रशेखर जी ने  अमेरिकी यूद्धक विमानों को देश से उड़ान भरने या ईंधन देने से मना कर दिया। फिर जब अमेरिका ने चिकित्सकीय राहत सामग्री वाले विमानों को ईंधन देने की बात की तो अन्तर्राष्ट्रीय  द्विपक्षीय समझौते से बंधे होने के कारण भारत राज़ी हो गया। यह एक किस्म की व्यावहारिकता थी।

29 जनवरी, 1991 को सिद्धार्थ श्रीवास्तव और गीतांजलि अय्यर ने जब CNN के लिए चंद्रशेखर जी का इंटरव्यू लिया तब उनका भी यही प्रश्न था कि क्या भारतीय गुटनिरपेक्षता की नीति बदल रही है?

 जिसका जवाब देते हुए चंद्रशेखर जी कहते है – “हमारी नीतियों में कहीं कोई बदलाव नहीं आया है। हम पहले की ही तरह हैं। हम तो परम्परा का निर्वाह कर रहें है। इसकी द्विपक्षीय तौर पर व्यवस्था है। हम पहले ही इस बात को लेकर दृढ़ है की ऐसा कुछ नहीं करना जो युद्ध की आशंका को बढ़ाता हो।

ये सुविधाएं  केवल लोगों को निकालने और चिकित्सा व इंजीनियरिंग से जुड़े लोगों के लिए थी। इसके लिए अमेरिकी मालवाहक विमान सी- 141 का प्रयोग किया गया। हमने पहले ही इसकी जांच कर ली थी कि इन विमानों का इस्तेमाल घातक हथियारों को ले जाने या इराक पर हमला करने के लिए न हो। हम इस बात को लेकर खासे सावधान है।’

इस सुविधा का मुख्य उद्देश्य अपने 12 लाख लोगों को खाड़ी देशों से निकालना था। व्यावहारिकता भी यही कह रही थी कि 12 लाख लोगों के लिए एक विमान का ईंधन एक सस्ता उपाय था। 

यह तब और भी जरूरी था कि बीपी सिंह सरकार के विदेश मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल इराक जाके सद्दाम हुसैन के साथ गले मिलते हुए फोटो खींचा आए हो। इस घटना ने बेवजह अमेरिका को भड़का दिया हो।

अब दूसरी बात

चंद्रशेखर जी ने इराक की भर्त्सना की। हां, यह सच है कि उन्होंने भर्त्सना की थी। लेकिन उन्होंने कुवैत पर इराक के आक्रमण और बेवजह खाड़ी देशों को युद्ध में धकेलने के कारण इराक की आलोचना की।

कुवैत पर इराकी हमले की निन्दा वस्तुत सभी देशों ने की थी इसमें ऐसा कुछ नहीं था कि जिसके लिए ये कहा जाए की भारत ने अपनी नीति बदल ली थी। भारतीय परिस्थितियों में तो यह बिल्कुल साहस का काम था। उस समय हमारे देश में मुस्लिम वोटों के लालच में बीपी सिंह की पार्टी और कांग्रेस गलत होने के बावजूद सद्दाम के समर्थन में खड़े थे।

तीसरी बात

चंद्रशेखर जी उदारीकरण की शुरुआत कर रहे थे। यह चंद्रशेखर जी के विचारों को समझे बिना एक गंभीर आरोप हो जाएगा कि समाजवादी चंद्रशेखर उदारवाद की शुरुआत कर रहे थे।

इसके लिए हमें चंद्रशेखर जी के समाजवाद संबंधी विचारों को पहले समझना होगा।

चंद्रशेखर जी कहते है –” समाजवाद एक शासन व्यवस्था नहीं है। समाजवाद मुक्त और बराबर लोगों का समाज रचने की एक प्रणाली है। भारत का लक्ष्य समाजवाद की ओर बढ़ना है, समाजवादी नीतियां मार्ग है। समाजवाद लक्ष्य है। 

समाजवाद का सार्वजनिक और निजी क्षेत्र से कुछ लेना देना नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र, कंट्रोल, रेगुलेशन, योजना यह सब समाजवाद की तरफ बढ़ने का एक कारण है।”

अर्थव्यस्था के उदारीकरण पर बोलते हुए चंद्रशेखर जी 19 नवम्बर 1990 को कहते है कि –“आज संसार का कोई देश दूसरे से अलग थलग नहीं रह सकता। इसलिए आर्थिक उदारीकरण का हर जगह स्वागत हो रहा है। मगर उदारीकरण से साधनों का अपव्यय नहीं होना चाहिए।

यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुरूह क्षेत्रों में अपनी उच्च तकनीक लगा कर उन्हें उपयोगी बनाने में हमारी मदद करती हैं तो मैं उनका समर्थन करता हूं। अगर यह अफसरशाही और लालफीताशाही को दूर करे, लाइसेंस प्रक्रिया को सरल करे, भ्रष्टचार को मिटा दे तो वह स्वागत योग्य है। लेकिन ध्यान रहे  हम गरीब और बड़े देश हैं, हम अपने श्रम शक्ति और सीमित संसाधनों के बल पर ही अपना विकास करना होगा। सिर्फ विदेशी सहायता से हमारा विकास नहीं हो सकता।”

यहां ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि चंद्रशेखर जी अर्थव्यवस्था को निर्बाध खोलने की वकालत नहीं अपितु अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता और पहुंच की बात कर रहे है। अब कोई इसे उदारीकरण कहना चाहे तो कहता रहे। लेकिन तथ्य तो यही है कि अर्थव्यवस्था के दरवाज़े 1993 में ही खोले गए।

शंकर अय्यर के कुछ बातों से मेरी गहरी सहमति है कि वह चंद्रशेखर जी ही थे जिन्होंने देश को उन मुश्किल हालातों से बाहर निकाला था और यह भी कि भारत का प्रबुद्ध समाज चंद्रशेखर जी के साथ कभी निष्पक्ष नहीं रहा। जितना उनको श्रेय मिलना चाहिए था उससे बहुत ही कम उनको मिला (इस बात को प्रधानमंत्री  नरेंद्रमोदी जी ने भी अभी हाल ही में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में उद्धृत किया है)

अंत में,

संकट के समय भारत को निर्णायक राजनैतिक नेतृत्व देने के लिए चंद्रशेखर जी को  भावी पीढ़ियों द्वारा याद किया जाना चाहिए।

प्रशांत बलिया ©

prashantcompaq@gmail.com

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