सरकार द्वारा किया जा रहा विकास, कर रहा है प्रकृति से खिलवाड़ !
हिमालय के कच्चे पहाड़ बहुत बड़ी मात्रा में गाद पैदा करता है जिसे नदियाँ अपनी मंज़िल तक ले जाती है जिससे निपटने के लिए किसी रास्ते का कोई प्रबंध नहीं है। हैरानी की बात ये है कि मौजूदा माॅडल कुदरत के कायदे कानूनों से छेड़छाड़ करते हुए बना है जिसमे केवल मानव विकास पर ही अधिक ज़ोर दिया गया है सतत विकास ना करके प्रकृति से खिलवाड़ किया जा रहा है .
हाल ही में ख़बरों की सुर्ख़ियों में मानव विकास की बढ़ती हुई लीला देखी जा रही है । ख़बरों की जानकारी से पता चला है कि सरकार हिमालयी राज्यों के समन्वित और सतत विकास के लिए क़दम उठा रही है। बताया जा रहा है कि हिमालयी राज्यों उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर से लेकर त्रिपुरा ,असम और पश्चिम बंगाल के दो-दो जिले सम्मिलित रहेंगे। जिसका लेखा-जोखा नीति आयोग के पास रहेगा।
इस परिषद का मुख्य कार्य देश में जल स्रोतों को सूचीबद्ध कर उनका पुनरूद्धार करना है। यह पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि को नया रूप देने के लिए विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल करेगी ,जिससे हिमालय की भौगोलिक, सामाजिक तथा पर्यावरणीय परिस्थितियों में सुधार आएगा तथा पर्यटन विकास तथा पर्यटन नीति एक नया रंग मिलेगा। सूत्रों के अनुसार पहाड़ी इलाकों के सतत विकास पर्यावरण के कायदे-क़ानूनों के पालन से ही किया जाएगा।
देश दुनिया में जिस तरह पेड़ों की कटाई व् प्रदूषण से पर्यावरण में बदलाव आ रहा हिमालय व् अन्य पहाड़ों में तबाही की का मंज़र बढ़ रहा है जिससे नदियों में उफान बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में भारतीय अंतर्देशीय जल-मार्ग प्राधिकरण ने नोएडा से प्रयागराज तक के 1,089 किलोमीटर लम्बे जल-मार्ग को अमलीजामा पहनाने के लिए उसकी विस्तृत कार्ययोजना पर काम प्रारंभ कर दिया है। जो नोएडा से ताज-नगरी आगरा होते हुए प्रयागराज पर समाप्त होगा। बताया जा रहा है कि इस जल-मार्ग से देश को एक वैकल्पिक जल-मार्ग उपलब्ध होगा।
दूसरी ओर कुछ ही दिन पहले वाराणसी “मल्टी माडल टर्मिनल” उदघाटन ने इंगित किया है कि सरकार का सबसे अधिक जोर गंगा नदी के जल-मार्ग को धरातल पर उतारने का है। जिससे भारत और पड़ोसी देशों के जलमार्गों पर मालवाहक जहाज़ो से आयात निर्यात बढ़ेगें।
बताया जा रहा है कि भारतीय अन्तराष्ट्रीय जल-मार्ग को बेहतर बनाने के लिए ये एक ठोस कदम बनने वाला है। आपको बता दें कि समुंद्री मालवाहक जहाज़ों को चलाने के लिए उनकी आवश्यकता के अनुसार उपयुक्त चौड़ाई तथा गहराई वाला हर मौसम में एक जैसा जल-मार्ग चाहिए। जिसमे मल,गाद, कूड़े आदि से निपटने की पूर्ण व्यवस्था हो।
सूत्रों के मुताबिक हिमालय के कच्चे पहाड़ बहुत बड़ी मात्रा में गाद पैदा करते है जिसे नदियाँ अपनी मंज़िल तक ले जाती है जिससे निपटने के लिए किसी रास्ते का कोई प्रबंध नहीं है। हैरानी की बात ये है कि मौजूदा माॅडल कुदरत के कायदे कानूनों से छेड़छाड़ करते हुए बना है जिसमे केवल मानव विकास पर ही अधिक ज़ोर दिया गया है सतत विकास ना करके प्रकृति से खिलवाड़ किया जा रहा है जिसका परिणाम हमें कईं बार देखने को मिला है।
जानकार कहतें है कि कुदरती माडल हमेशा कम ख़र्चीला माॅडल होता है। उस माॅडल का रखरखाव सबसे अधिक सस्ता होता है। वह माॅडल टिकाऊ होता है। वही माॅडल हिमालय की परिस्थितियों में सफल होगा। मॉडल कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे कुदरत को नुक्सान ना पहुंचे और उससे तालमेल बनाकर ही समाज का भला किया जा सके ताकि किसी की हानि न हो और सतत विकास को बढ़ावा भी मिल सके।
नदियाँ और जल-मार्ग की चुनौतियाँ-
एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की सबसे बड़ी नदी गंगा हर साल 300 करोड़ टन से भी अधिक का मलबा बंगाल की खाड़ी में धकेलती है। गंगा नदी में यह मलबा उसकी सहायक नदियों से आता है बात अगर यमुना नदी की करे तो उसके मलवे का भी वही स्रोत है। उसकी बहुत सी नदियां मध्यप्रदेश से आती हैं।
जो नदियां भिंड-मुरैना से आती हैं वे अपने भारी मात्रा में गाद भी लाती हैं। जो बाद में समुद्र में समा जाता है। इसलिए ये बहुत आवश्यक है कि नदियों से हर साल आने वाले इस गाद एवं मलवे का सुरक्षित निपटान किया जाए। जिससे भारतीय अन्तराष्ट्रीय जल-मार्ग बेहतर होंगे। यदि मलबा नदी की तली में जमने दिया तो कालांतर में सारा जल-मार्ग और परिवहन व्यवस्था विकलांग मिलेगी और समाज अपने को ठगा महसूस करेगा।
आप सब जानते ही होंगे कि नदियों में जल का परवाह पहाड़ों पर बर्फ के पिघलने से आता है लेकिन जलवायु परिवर्तन, भू-जल दोहन और वन-विनाश जैसे कारणों से यह आपूर्ति साल-दर-साल घट रही है।
देश में सदाबहार नदियों के होते हुए भी सूखे का खतरा बना रहता है लगातार बहने वाली नदियों में पानी की कमी दिखने लगती है ऐसे में पानी की गहराई बनाए रखना चुनौती का काम हो जाएगा और अगर पानी की गहराई नहीं बनी रही तो जल-मार्ग से आयत-निर्यात में नुक्सान और प्रकृति से खिलवाड़ होगा जिससे विकास सिर्फ झंडे ही नज़र आयेगें।
ये समस्या केवल जल मार्ग पर प्रस्तावित परिवहन की नहीं है बल्कि पूरे समाज की है क्योंकि हर योजना निर्माण से लेकर उसके पूरा होने तक और उसके रखरखाव से लेकर अप्रत्याशित हादसों तक की कीमत समाज चुकाता है।
इस कारण आवश्यक है कि हर योजना और क्रियान्वयन का चेहरा मानवीय हो ,कहीं ऐसा ना हो जाये कि विकास का मोल समाज की टैक्स चुकाने की सीमा में हो।