मैं चाहता हूँ, वो मेरी हत्या करें, मैं आत्महत्या करके उनका काम आसान नहीं करना चाहता!
जीवन-मृत्यु, सफलता-विफलता, संपन्नता-विपन्नता जैसे शब्द युग्म अपनी पूरी दार्शनिक हैसियत के साथ एकदम सट कर खड़े हैं। आँखों में आँखें डाले, सीने से सीना सटाये। मैं बच के निकल जाना चाहता हूँ पर कहाँ ? कहीं नहीं जा सकता। जो लोग उलझ कर गिरे फिर कभी उठ नहीं सके। कपूर की तरह काफ़ूर हो गए। अपने पीछे सवाल छोड़ गए कि लोग आत्महत्या क्यों करते हैं ? इसका ज़वाब उन्हीं के पास था। और ये सवाल सिर्फ सवाल की तरह ही शेष रहेगा हमारे पास।
जेब में अकूत पैसे, अच्छा घर, खूब नाम, बहुत सारी शोहरत, के बावजूद “कुछ” नहीं था जिसके बग़ैर जीना मुश्किल हो गया था। इतना मुश्किल की मरना आसान लगा। इतना मुश्किल की मौत एक दरवाज़ा लगी और उसके पार निकल गए जिंदगी की झंझट छोड़ कर। इंसान बहुत सख़्त चीज़ होता है। टूटते टूटते टूटता है। हम आँखों के रहते हुए अंधे बने रहते हैं। लोगों का टूटना हम नहीं देख पाते क्योंकि हम नायकों को पूजते हुए भूल गए हैं कि मनुष्य नायक होने के साथ मनुष्य भी है। नायकत्व का आग्रह उसे उसकी समस्या, उसकी कमज़ोरी, उसकी आत्मा में लगी दीमक को छुपाने पर मज़बूर कर देता है। और वो इतना अकेला हो जाता है, जितना उसे नहीं होना चाहिए।
इंसान जीवन और जगत में सानिध्य के लिए ही होता है। जब यही सानिध्य उससे जाता रहता है तो जीवन में विराट व्यर्थता प्रकटती है। और इंसान को निगल लेती है। हम रोते हैं किसी के जाने के बाद पर उसके साथ उसके दर्द सुनने, उसे समय देने, उसके टूटते हुए भीतरी इंसान को ढाँढस बंधाने के लिए समय नहीं निकाल पाते। निकालना चाहिए। हम किसी के लिए इससे बेहतर कुछ और नहीं कर सकते।
सुशांत सिंह राजपूत मर गए। फाँसी लगा ली। गले पर निशान वाली उनकी तस्वीरें लोगों की मोबाइल में पड़ी है और एक मुस्कुराता चेहरा हमेशा के लिए ओझल हो गया। मुझे सुशांत की सबसे पहली स्मृति 2011-12 की है। या एक साल पहले बाद की। मतलब इसी समय के आसपास “पवित्र रिश्ता” सीरियल में वो उभर कर सामने आए थे। माँ को बहुत पसंद थे। माँ को उनकी आवाज़ बहुत पसंद थी। वो अक्सर कहती थीं इसकी आवाज़ अलग है। जैसे गले में एक ख़ूबसूरत सा दर्द बैठा हुआ है। फंस कर आती उनकी आवाज़ ख़ास लगती थी। बहुत सादगी थी उसमें। मुझे भी वो, उनकी अवाज़ और सादगी के लिए पसंद थे। मुझे और माँ को उस वक़्त नहीं मालूम था कि एकदिन सुशांत के उसी गले पर निशान वाली ऐसी तस्वीर देखनी पड़ेगी। उनकी आवाज़ और साँस दोनों घुट जाएंगी। ना जाने वो कौन सा खूबसूरत दर्द था जो अब उनके गले से कभी नहीं बोलेगा।
मुझे अफवाहों में आनंद तलाशते लोगों, ख़ुसुर-फुसुर करते दीमकों, अटकलें लगाते दिवालिया दिमाग़ों, भेड़िया बन चुकी मीडिया और नफरत में पागल हो चुकी जॉम्बी भीड़ से कुछ नहीं कहना। मुझे बचे हुए मनुष्य से मेरे मन की बची हुई बात कहनी है। वह बात जिसपर मुझे आस्था है। जो मेरी प्रेरणा है। मैं भी हताश होता हूँ। टूटता हूँ। अकेला पड़ता हूँ। पर हर बार मुझे बस एक बात उबार लाती है वह है मेरे देश की मेहनतकश आवाम की पिटी हुई ज़र्द सूरत। हमारी दशा अस्पताल के बाहर पड़े अपनी मौत से लड़ते ग़रीब से बेहतर है। उनसे अच्छी है जिनके पास ना वो पोलिटिकल हैसियत थी और ना इकोनॉमिकल कूबत कि अपने घर वापस साधन से जा सकें। वो हमारी आँखों से ओझल लोग हज़ारों किलोमीटर पैदल ही चल दिये। रास्ते में चलते चलते मर गए। कभी देखिएगा सड़को पर समान बेचते बच्चों को, रेहड़ी पट्टी वाले बुड्ढे दुकानदारों को, पेट-पीठ एक किये हुए मज़दूरों को, भूखे किसानों को, मॉल में 12 घंटे खड़े रहने वाले गार्ड्स को, दरवाज़ा दरवाज़ा घूमते सेल्समैनस को, देह बेचती वैस्याओं को, अनाथ आश्रम में पड़े बच्चों और वृद्धाश्रम में पड़े बुजुर्गों को। ऐसे ही जहां जहां नज़र जाए देखिएगा ज़िंदगी से लड़ता हुआ ज़ज़्बा दिखेगा। हम जिस परेशानी में आत्महत्या की सोच रहे हैं, सोचते हैं। उसे वो परेशानी भी नहीं मानते। जिस स्थिति में हम हैं वो उनका स्वप्न है। जो चीज़ें हमें हासिल हैं उनका ख़्वाब देखते हैं वो। उनके लिए जीवन जंग है और जीना उनका दुःसाहसी चुनाव। हम जिन्होंने अपने लिए टार्गेट्स बना लिए हैं हम चूहों की तरह दौड़ते हुए हाँफ रहे हैं और जिंदगी किनारे खड़ी कभी हँसती है, कभी रोती है। हम नकली जीत और असली हार के मारे हुए लोग हैं।
कल सुबह की बात है। पाँच बजे जग गया था। बल्कि सच कहूँ तो रात भर नींद ही नहीं आयी थी। मैं संगम की तरफ निकल लिया। लोअर टीशर्ट पहली। जूता गांठा और संगम टहलने निकल लिया। हनुमान मंदिर की तरफ से जो रोड संगम वाली राह पर मिलती है। उसपर एक 18-19 साल का लड़का अचानक मुझे जॉइन करता है। अंगड़ाई लेते हुए ख़ुद से कहता है, “तीन साल हो गए”। मैंने पलट कर पूछा किस चीज़ के तीन साल हो गए ? कहने लगा घर से भागे आज तीन साल हो गए। माँ के मरने के दो दिन बाद ही पिता एक नई औरत घर ले आए। फिर अपनी लोवर नीचे से सरका कर दिखता है। एक लंबी चोट का निशान और कहता है कि हाँथ नहीं लगाते तो पैर टूट जाता फिर कभी चल नहीं पाते। सरिया गरम करके मारते थे पाप। मैं शांत था फिर पूछता हूँ कि अकेले हो, भाई बहन ? एक बहन थी मास्टर साहब ले गए। ट्यूशन पढ़ाने आते थे बहन उन्हीं के पास है। कहाँ रहते हो ? शंकराचार्य विमान मंडपम की सीढ़ी पर। कहाँ काम करते हो ? हनुमान मंदिर के सामने वाली मिठाई की दुकान पर। शनि मंगल 250 रुपए और बाकी दिन 150 रुपए। खाना कहाँ खाते हो ? गंगा किनारे जहां मिल जाए। सुबह दो तीन घंटे गंगा में नहाते भी है और पैसा भी खोज लेते हैं, ख़र्चा निकल आता है। घर से भाग पर इलाहाबाद चले आये थे। मंदिर के बाहर धीरज भइया मिल गए और यहीं रुक गए। आगे क्या करोगे ? पता नहीं। लंबाई अच्छी है। सेना में भर्ती हो जाते तो ठीक रहता। गंगा का घाट आ चुका था। कपड़े उतार कर गंगा में कूद गया लड़का और मैं काफी देर तक बस उसे ही देखता रहा। क्या देखता रहा ? पता नहीं। शायद जीवन जीने का ज़रूरी समान जुटा रहा था।
वापसी में राम घाट पर कुछ बच्चे गंगा की रेती पर स्टंट और डांस की प्रैक्टिस कर रहे थे।। मैले कुचैले कपड़े, और चमकीली आँखों वाले बच्चे। ग़ज़ब का डांस कर रहे थे वे लोग। ठीक वैसे ही उल्टी पलटी मार रहे थे जैसे अफ़्रीकन डांसर मारते हैं। जैसे ट्रेंड डांसर टीवी पर करते हैं। मैंने सबका नाम पूछा चार-पाँच लड़के थे। कोई भी सातवीं से आगे नहीं पढ़ा था। परेड ग्राउंड में ब्रीज़ के नीचे रहते हैं। फेरी करते हैं और शादियों में वेटर भी बनते हैं। डांस की लगन है। तो इतना अच्छा डांस सीख लिया। किससे ? खुद से। आगे क्या करोगे के ज़वाब में सब मुस्कुराने लगे। और एक ख़ामोशी के बाद बोले डांस करने का मन है। शायद वो जानते हैं हमारे देश की संरचना मन तोड़ने में माहिर है। यहाँ आबाद होने के गिने चुने रास्ते हैं और बर्बाद होने के अनंत। पर सब जीवन से भरपूर थे। आगे की नहीं कह सकता पर उस समय तक तो थे। लॉकडाउन में सबका काम बंद है और दो वक्त की रोटी भी मुश्किल है। पर जिंदगी हंस रही थी वहाँ पर।
ज़्यादा ज्ञान नहीं दूंगा। क्योंकि बेमानी है। अवसाद भयानक होता है। तर्क की वरक उतार कर कच्चा चबा जाता है। मैं जानता हूँ, बचपन से ही अवसाद झेल रहा हूँ। पर हर बार मैं बस यही सोचता हूँ लड़ने का अधिकार कोई मुझसे नहीं छीन सकता। मैं चाहता हूँ ये क्रूर समाज, इसकी असंवेदनशीलता, इसका शोषक ढाँचा, इसका लिजलिजा चरित्र, आत्मा तक भेद देने वाली बेशर्मी, निहायत दर्ज़े की मतलबपरस्ती और प्रयोग करके भूल जाने वाली सोच मेरी हत्या करे, मैं आत्महत्या करके इसका काम आसान नहीं करना चाहता। मैं चाहता हूँ सीने पर खंजर पड़े और मैं लड़ते हुए मारा जाऊँ। मैं आख़री दम तक इस समझदारी का हाँथ नहीं छोड़ना चाहता कि जीवन सिर्फ़ सुख, ख़ुशी और जीत का नाम नहीं है।
अलविदा सुशांत !!
आराम करो, बहुत थक गए होगे।