प्रधानमंत्री: प्रवासी या नागरिक, संसद : लोकतंत्र का मंदिर या पूंजीपतियों की रखेल?
मज़दूरों का कोई देश नहीं होता है " सत्ताधीशों का यह दृष्टिकोण देश एकता अखंडता के लिए खतरनाक है
रशियन क्रांति के प्रणेता लेनिन ने ड्यूमा यानि रसियन संसद को सुअरबाड़ा कहा , हिन्द स्वराज में महात्मा गाँधी संसद को वेश्या और बाँझ कहा है , बाद में अपने किसी महिला जानकार के आग्रह पर वेश्या शब्द को वापस ले लिया और पैसे वालों की रखेल बताया .
आज़ादी के बाद भारत में संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाने लगा , उसी हिन्द स्वराज में गाँधी कहते है की महान लेनिन ने रूस में जिस समाज की स्थापना की है , मैं भी उसी समाज की स्थापना करना चाहता हूँ फर्क सिर्फ इतना है लेनिन ने जो काम हिंसा के जरिये किया मैं उसे अहिंसा के जरिये करना चाहता हूँ।
हिंसा अहिंसा के मतभेदों के बाद भी यह स्पस्ट है की लेनिन और गाँधी का समाज एक ही है , गाँधी आगे लिखते है की ” लोकत्रंत्र में केंद्र में बैठे हुए मुठी भर लोग लोकतंत्र को नहीं चला सकते , भारत में लोकतंत्र का केंद्र बिंदु दिल्ली मुंबई और कलकत्ता जैसे राजधानियों में नहीं होना चाहिए , मैं भारत के लोकतंत्र को भारत के सात लाख गावो में बाटना चाहता हूँ”
अब अपनी विचारधारा के अनुरूप संसद के किसी भी रूप को स्वीकार करे सकते है , यह मैं पाठक के विवेक पर छोड़ता हूँ , लेकिन क्या आप इस बात से इंकार कर सकते है की इस संसद ने करोडो लोगो को उनके मौलिक और मनुष्य होने के अधिकार से वंचित नहीं किया है ? जिसे बार बार केवल मज़दूर और प्रवासी कहा जा रहा है , उसका नागरिक अधिकार कहाँ है ? क्या वह इस देश में शरणार्थी है ?
आज पक्ष विपक्ष के सभी नेता सड़कों पर भटक रहे करोडो लोगो को उनके पेशागत पहचान के आधार पर ही सम्बोधित कर रहे है , तो मतलब साफ़ है आप उनके नागरिक पहचान को समाप्त कर रहे है , उनके सम्बोधन में प्रवासी शब्द जोड़ने का क्या औचित्य है ?
क्या भारत में हर राज्य के आधार पर नागरिकों को नागरिकता दी जाती है ? अगर इसे आधार मान लिया जाय तो देश क्या राजनेताओं के बाप की जागीर है ? फिर तो प्रवासी राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री हुए, फिर किसी भी राज्य का राज्यपाल तो उस प्रान्त का नागरिक है ही नहीं , पर प्रान्त में नौकरी कर रहे आईएएस आईपीएस या उस राज्य का तंत्र क्या उस राज्य में घुसपैठिया हैं ?
नेता क्या इस नयी शब्दावली सहारे क्षेत्र के आधार पर बटवारा करंगें ? तो क्या यह देश नागरिकों का अपमान नहीं है ? और क्या इस देश का शासक वर्ग मुल्क की गरीब जनता को नागरिक नहीं मानते ? फिर तो यह सत्ताधीशो के तरफ से देश की लगभग 95% जनता के लिए खतनाक संकेत है , क्योकि इस दायरे में केवल छोटे कामगार ही नहीं , उच्च घरों के वो लोग भी आ जायेंगे पर प्रान्त में उच्च शिक्षा या ऊपर दर्जे के नौकरी में है , अगर मुल्क ही यही पहचान बनेगी तो फिर मार्क्स का वो नजरिया सही सिद्ध होता है जिसमे वो कहते है की ” मज़दूरों का कोई देश नहीं होता है ” सत्ताधीशों का यह दृष्टिकोण देश एकता अखंडता के लिए खतरनाक है
माउंटबेटन का प्रस्ताव भी तो यही था की भारत को 24 देशों में बाँट दिया जाय तब हम यह भी कह सकते है की हमें विदेशियों से उतना खतरा नहीं जितना की इन घरेलू दुश्मनो से है ,फिर वो जनता जिसे अपने नागरिक और संप्रभु होने का गुमान है उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती की माउंटबेटन के इन औलादों को नेस्ताननाबूद करके देश को इनकी गुलामी से आज़ाद कराये ?
आप याद कीजिये सात साल पहले जब नरेंद्र मोदी ने पटना के गाँधी मैदान में हुंकार रैली किया था , तब बीजेपी ने 3000 बसों और 11 ट्रैन को बुक किया था ,लेकिन आज सरकार बहादुर के पास जनता के लिए कुछ नहीं है , लेनिन अपने दर्शन में लमपट सर्वहारा की बात कहते है , यह लम्पट सर्वहारा आर्थिक तौर पर निहायत ही दरिद्र परिवारों से आते , लेकिन पूंजीपतियों की दलाली ,चोरी चकारी लयमारी के जरिये धनाढ्य बन जाते है ,
इसी बात को भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोवा भावे कहते है की “यह कैसा तमाशा है; सच तो यह है की चोर का बाप कंजूस है , जो बिना मेहनत के किसी के घर से रूपये उठा ले जाता है , वह चोर माना जाता है , जो कम काम करके ज्यादा ले जाता है वह भी चोर ही है , बड़े – बड़े प्रोफ़ेसर , डाक्टर , हाकिम जज मुश्किल से तीन चार घंटे काम करते है और हज़ारों रूपये ले जाते हैं क्या वो चोर नहीं हैं ? आगे वो कहते है की सच पूछो तो , पसीने की कमाई खाने वाले किसानो मज़दूरों को छोड़ कर बाकी सबकी गिनती लुटेरों में ही करनी चाहिए” इस माहमारी के दौर में भी जब जनता के लिए सरकार के पास एक ढेला नहीं है तब गत दिनों सरकार ने सभी सांसदों के वेतन में 50000 तक वृद्धि किया तब किसी सांसद ने इसके खिलाफ एक शब्द नहीं बोलै ,
फिर सवाल उठता है की इन माननीयों को क्या कहा जाय ? और हमारे जीवन में सरकार की भूमिका क्या है ? केवल जनता से टैक्स वसूलना और कॉर्पोरेट सहित सभी गद्दीनशीनो द्वारा उस टैक्स का आपस में बटवारा कर लेना ? ऐसे में तो संसद के लोकतंत्र का मंदिर होने पर भी सवाल खड़ा हो जायेगा और जो संसद अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा ना कर सके उसे सुअरबाड़ा और पैसे वालों की रखैल से अधिक क्या समझा जाना चाहिए ?
लेखक संतोष कुमार सिंह वरिष्ठ प्रत्रकार है।
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