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कुंभ मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।

प्रयागराज कुंभ मेले के लिए प्रमुख स्थल है, जहां इसे त्रिवेणी संगम के नाम से जाना जाता है। प्रयागराज के संगम में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का मिलन होता है, जो कुंभ मेले को आध्यात्मिक रूप से और भी महत्वपूर्ण बनाता है। यहां के मेले की भव्यता केवल मंदिरों और धार्मिक स्थलों की सुंदरता को ही नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की अनुभूति को भी उजागर करती है। कुंभ मेले के दौरान प्रयागराज की भूमिका अत्यंत पवित्र होती है, जो इस आयोजन को और भी दिव्य बनाती है।

कुंभ मेला भारतीय संस्कृति का एक ऐसा आयोजन है जो दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐतिहासिक है। यह आयोजन हर 12 वर्षों में भारत के चार स्थानों (प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक) पर होता है, जहाँ गंगा, यमुना, क्षिप्रा और गोदावरी जैसी पवित्र नदियों के तट पर श्रद्धालु एकत्र होते हैं। कुंभ केवल आध्यात्मिक आयोजन नहीं है; यह ज्ञान के दर्शन के विज्ञान का उदघोष, सामाजिकता की स्थापना और खगोलीय परंपराओं और प्राकृतिक चक्रों से सभ्यता के मिलन, मिश्रण और समन्वयन का भी द्योतक है।


संवाद और विचारों का संगम- कुंभ ज्ञान, संवाद, और वैचारिक मंथन की परंपरा थी। इसकी जड़ें केवल धार्मिक आस्था में नहीं, बल्कि समाज सुधार, वाद-विवाद, और सहिष्णुता में निहित हैं।

प्राचीन काल से कुम्भ वह मंच रहा है जहाँ विभिन्न विचारधाराएँ और मत मिलते हैं, टकराते हैं, और परिष्कृत होते हैं। यह केवल तीर्थयात्रा नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण, वैचारिक सुधार, और ज्ञान के आदान-प्रदान का अवसर है। यह आयोजन हमें सहिष्णुता, तर्क, और सामाजिक एकता के महत्व की याद दिलाता है।

कुंभ मेला की ऐतिहासिकता:वाद-विवाद, ज्ञान-संवाद की परंपरा-

कुंभ मेले का उल्लेख वैदिक साहित्य, महाकाव्यों, और पुराणों में मिलता है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में राजा हर्षवर्धन द्वारा आयोजित प्रयागराज के कुंभ का वर्णन किया है, जिसमें विभिन्न धार्मिक समुदायों की उपस्थिति को उन्होंने महत्वपूर्ण बताया। प्राचीन काल से ही यहाँ विभिन्न विचारधाराओं और मतों के विद्वान एकत्र होते रहे हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने राजा हर्षवर्धन के काल में प्रयाग में हुए धार्मिक आयोजन का उल्लेख किया है, जिसमें बौद्ध और सनातनधर्मी दोनों ही भाग लेते थे। ह्वेनसांग लिखते हैं कि सम्राट ने बौद्ध भिक्षुओं और ब्राह्मणों को समान रूप से दान दिया। यह दर्शाता है कि कुम्भ सहिष्णुता और विचारों के आदान-प्रदान का प्रतीक रहा है।

मध्यकाल में यह आयोजन वैचारिक विमर्श और शास्त्रार्थ का प्रमुख केंद्र बना। स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा 1867 में हरिद्वार कुंभ में “पाखंड खंडिनी पताका” फहराना, धार्मिक सुधार की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण-
कुंभ मेला खगोलीय घटनाओं पर आधारित है। हर 12 वर्षों में बृहस्पति ग्रह के एक विशिष्ट राशि में प्रवेश और सूर्य के एक विशेष स्थान पर रहने के समय यह आयोजन होता है। यह आयोजन खगोल विज्ञान और जलवायु विज्ञान के गहरे ज्ञान का प्रमाण है।

  1. ग्रहों का संरेखण- गुरु और सूर्य की विशेष स्थिति में पृथ्वी पर अधिक सुर्य ऊर्जा का संचार होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह समय नदियों के पानी में खनिजों और औषधीय गुणों के बढ़ने का होता है।
  2. जल की शुद्धता- शोधों से यह प्रमाणित हुआ है कि कुंभ के समय गंगा और अन्य नदियों के पानी में बैक्टीरिया-रोधी गुण बढ़ जाते हैं। इसमें Bacteriophase नामक वायरस की उपस्थिति पाई गई है, जो पानी को लंबे समय तक शुद्ध रखता है। यह जल केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक रूप से भी औषधीय महत्व रखता है।
  3. सामूहिक ऊर्जा और मानस- करोड़ों लोगों के एक साथ एकत्र होने से बनने वाली “सामूहिक ऊर्जा” का मानव मानस पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसे सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है।

कुंभ का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व-

कुंभ मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। यह विभिन्न धर्मों, पंथों, और समाज के सभी वर्गों को एक मंच पर लाता है। कुंभ के दौरान होने वाले वाद-विवाद और संवाद ज्ञान के आदान-प्रदान का माध्यम बनते हैं। यह आयोजन विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं के सह-अस्तित्व की मिसाल है।

हालाँकि, आधुनिक समय में कुंभ मेले का एकमात्र उद्देश्य धार्मिक मान्यता और पाप-पुण्य तक सीमित कर दिया गया है। संवाद, सुधार और सामाजिक एकता की मूल भावना कहीं खोती दिख रही है। कुंभ मेला पाप-पुण्य के पार जाकर भारत की ज्ञान-परंपरा, खगोलीय विज्ञान, और सामाजिक एकता का प्रतीक है। इसकी ऐतिहासिकता और वैज्ञानिकता इसे न केवल भारतीय संस्कृति का, बल्कि मानव सभ्यता का भी अद्वितीय धरोहर बनाती है। कुंभ एक ऐसा आयोजन है जो भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों दृष्टियों से मानवता को प्रेरणा देता है। इसे केवल कर्मकांड तक सीमित न रखा जाए।

त्योहारों को धर्म के साथ जोड़ना पुराने समय में नहीं था। फसल पकना,ऋतु परिवर्तन आदि के उल्लासपूर्ण त्यौहारों में धर्म को महत्व पूर्ण बनाने के लिए अंधविश्वासों को जोडकर इन्हें धार्मिक स्वरुप जबरदस्ती दे दिया गया। मनु वादियों ने इसे केवल अंधविश्वास, पाप धोने पुण्य कमाने का पाखंड बनाकर इसकी पूरी दार्शनिकता, सामाजिकता और वैज्ञानिकता को खत्म कर दिया है जो कि इस देश में उनका लक्ष्य है…… इस देश की मूल कला, संसकृति और विरासत को नष्ट करना। जो बात मेले में ‘मुसलमानों को न घुसने देने’ से शुरू हुई थी, वह अब आर्यसमाजियों पर भी लागू की जा रही है। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरनंद ने एक टीवी चैनल से बात करते हुए साफ़ कहा है कि ‘गंगा स्नान से पुण्य न मिलने’ की बात करने वाले आर्यसमाजियों के लिए भी कुम्भ प्रवेश वर्जित होना चाहिए।आज की स्थिति में कोई कुम्भ में पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराने का सोच भी नहीं सकता। ऐसी किसी भी कोशिश को ‘देशद्रोह’ और ‘आतंकवाद’ से जोड़ने के लिए शासन-प्रशासन तैयार खड़ा है। भिन्न मतों का प्रवेश वर्जित करने वाले दरअसल संगम से ज्ञान का लोप करना चाहते हैं।


आज जरूरत है कि कुम्भ की इस परंपरा को पुनर्जीवित किया जाए। विभिन्न मतों, विचारधाराओं, और सुधारों के लिए कुम्भ को खुला मंच बनाना ही इसे उसकी वास्तविक पवित्रता और उद्देश्य के करीब ले जा सकता है। कुम्भ की आत्मा को जीवंत रखना हर विचारशील व्यक्ति की जिम्मेदारी है, ताकि यह आयोजन केवल भव्य न रहे, बल्कि वैचारिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी समृद्ध हो।

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