राजेंद्र बाबू की स्मृति में होने वाले व्याख्यान में भारत का सामर्थय विषय पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखरजी का भाषण जो आज भी प्रासंगिक है।
डॉ राजेंद्र प्रसाद स्मारक व्याख्यानमाला 2000 के तहत ऑल इंडिया रेडियो पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा दिसंबर 2000 में भारत की सामर्थ्य विषय पर दिया गया भाषण ।।
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की स्मृति की व्याख्यानमाला में इस बार मुझे बुलाया गया मैं आयोजकों का आभारी हूं भारत रत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद सिद्धांतों के प्रति निष्ठा सादगी के जीवन और भारतीय परंपरा के जीवंत प्रतीक के रूप में सदा याद किए जाएंगे। एक तरफ हमारी ऋषि परंपरा के अंतिम नेता थे।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भारत की शक्ति और सामर्थ्य के सूत्रों को परखा था उन्होंने आत्ममंथन किया था वह सूत्र उनके व्यक्तित्व में ही पूंजीभूत है। भारत के जनजीवन से उनका गहरा लगाव था इसी कारण एक मिश्रण भारत को एक नई प्रेरणा नई शक्ति देने में असमर्थ थे इसे स्मृति व्याख्यानमाला के कड़ी में मुझे भारत के सामर्थ्य विषय पर बोलने के लिए कहा गया है देश के सामने आज जो चुनौतियां मौजूद हैं उनको देखते हुए राजेंद्र बाबू की स्मृति में होने वाले व्याख्यान का यह सटीक विषय है इस पर बोलने का मैं अधिकारी हूं कि नहीं यह तो नहीं जानता लेकिन इससे जुड़े हुए पक्ष को मैं सामने रखने की कोशिश करूंगा। 1962 के अप्रैल में संसद सदस्य होकर मैं दिल्ली आया था कुछ ही दिनों बाद राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर पटना जा रहे थे। संसद के केंद्रीय कक्ष में उनकी विदाई के लिए समारोह था हम एकत्रित थे वह दृश्य मुझे याद भी याद है कि उनके लोगों की आंखों में आंसू थे चारों तरफ एक ही स्वर सुनाई देता था कि आज युग बदल रहा है आज देश का एक बड़ा तबका एक ऐसी व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए बेताब दिख रहा है जिसका हमारी अपनी मान्यताओं और परंपराओं से सरोकार नहीं हमारी संस्कृति हमारे मूल्य और मानवता हमारी अपनी सोच इन सब को भूलकर यह तबका उसी भीड़ में शामिल हुए, शामिल होने के लिए लालायित है यह चिंताजनक है हमारे चिंतन की मुख्य धारा क्या है हमारे अतीत की उपलब्धियों को जैसे पूरी तरह भुला देना हमारे लिए सामान्य बात बन गई है।
निजीकरण उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर दुनिया को जिस तरह एक विकृत संस्कृति का शिकार बनाने का कुत्सित प्रयास हो रहा है उससे हमारी सामूहिक चेतना भ्रष्ट हो रही है अपनी सांस्कृतिक वरिष्ठता को होकर एक आखरी में भी आकृति बिहीन भीड़ का अंग हो जाने का खतरा बन गया है।
आज एक सवाल बार बार उभर कर सामने आता है क्या भारत कोई निराला देश है मेरा जवाब सकारात्मक है, हां हिंदुस्तान सचमुच दुनिया का एक निराला देश है यह सवाल 1960 में गांधी जी से पूछा गया था तब उनका जो जवाब था वही आज मेरा जवाब है मैं मानता हूं कि जो सभ्यता हिंदुस्तान ने दिखाई उस ऊंचाई तक दूसरा कोई नहीं पहुंच सका है जो बीज हमारे पुरखों ने बोए हैं उनकी बराबरी कर सकें ऐसी कोई चीज हमारे देखने में नहीं आई यह तब से सवाल उठ रहा है जब सारी दुनिया एक तरह का राह अपना रही हैं तो क्या हम उससे अलग रह कर अपने अस्तित्व को संभाल रहे सकते हैं ? आजादी के आंदोलन के दौरान भी यह सवाल उठा था 1928 में गांधीजी को लिखे एक पत्र में नेहरू जी ने लिखा था …..
आपने कहीं कहां है कि भारत को पश्चिम से कुछ नहीं सीखना है और भारत अपने पुराने दिनों में ही सभ्यता की एक संपूर्ण ऊंचाई पर पहुंच चुका था मैं आपके इस विचार से सहमत हूं मेरा मानना है कि अपनी औद्योगिक पहुंच के बल पर कुछ किंतु परंतु के साथ पश्चिम की औद्योगिक संस्कृति भारत को जीत लेगी। आपने औद्योगिकरण के कुछ बुराइयों को गिनाया है। परंतु उनकी खूबियों पर ध्यान नहीं दिया है इन बुराइयों को सब जानते हैं और उन्हें दूर करने की कोशिश भी हो रही है पश्चिम में विद्वान लोग यह मानते हैं कि यह बुराइयां औद्योगिक व्यवस्था की नहीं बल्कि पूंजीवाद सोच की है।
आजादी के बाद देश में कुछ इसी प्रकार की सोच रही इस विचारधारा का आश्रय लेकर आज कुछ लोग ऐसा सोच रहे हैं कि भारत के अपने मानकों को छोड़कर हमें सुधार की मान्यता को स्वीकार कर लेना चाहिए वे भूल जाते हैं कि जैसे व्यक्तियों के व्यक्तित्व अलग होते हैं वैसे ही हर राष्ट्र का एक अपना व्यक्तित्व होता है और वह सचमुच विशिष्ट होता है जो राष्ट्र अपने अतीत की उपलब्धियों उसकी कल्याणकारी प्रवृत्तियों और मान्यताओं को भुला देता है वह ना तो अपनी वर्तमान समस्याओं को समझ सकता है और ना ही उज्जवल भविष्य की रचना में समर्थ हो सकता है आज इस प्रकार के चिंतन के शिकार होकर हम अपने लिए गंभीर समस्या पैदा करने पर उतारू जान पड़ते हैं।
सामर्थ क्या है इसे समझने के प्रयास हर मोड़ पर किए जाते रहे हैं चाहे सतयुग हो या आज का युग और अपनी अस्मिता में असमर्थ छिपा रहता है। खुद को पहचानने से शक्ति स्रोत का दर्शन हो जाता है इसका तरीका क्या हो आधार क्या होगा यह ऐतिहासिक समझ से संबंधित है। हमारा साहित्य पर प्रकाश डालता है उनकी सही व्याख्या से खुद को समझने में सहायता मिल सकती है सही व्याख्या पेचीदा है और यह विवादों से भरा हुआ है इसी नासमझी के कारण पहले से बने संकट निरंतर बढ़ते जा रहे हैं
हमारी समृद्धि और सामर्थ्य के आधार किसान और मजदूर निराश और हताश है कल कारखाने बंद हो रहे हैं पूरी अर्थव्यवस्था संकट में है युवा वर्ग में उत्साह नहीं भविष्य में कोई आस्था नहीं वे निराशा के शिकार हैं शिक्षा व्यवस्था को भी बाजार बनाया जा रहा है। लोगों के सुख-दुख से जैसे राष्ट्र निर्माताओं का कोई वास्ता ही नहीं रहा, पूरे समाज में निराशा और स्थिरता असमंजस की एक अजीब सी मानसिकता दिखाई पड़ रही है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति के भी खराब होने के लक्षण बहुत साफ साफ दिखने लगे हैं। आलम यह है कि सत्तारूढ़ वर्ग वर्षों से अर्जित देश की संपत्ति बेचने पर आमदा है, हमारे रोजगार और व्यवसाय उनकी नीतियां जैसे कहीं और से संचालित हो रहे हैं। बैंक चलाने से लेकर बिजली आदि के साथ लड्डू बनाने तक का काम दूसरों के हाथों में सौंपा जा रहा है। निर्यात घटता जा रहा है। और आयात की स्थिति यह है कि जूते मोजे से लेकर सिर की टोपी तक बाहर से ही आ रहे हैं। अब तो हालात यह है कि यहां की उत्पादन व्यवस्था को नष्ट कर देने के लिए उद्योगों से लेकर खेती तक के उत्पादों को दूसरे के भरोसे छोड़ने का प्रयास हो रहा है। रोजगार और व्यवसाय के मौके कम से कम होते जा रहे हैं समाज सांस्कृतिक हमले की चपेट में आ चुका है।
देश के अनेक संस्थाओं को जैसे एक योजना के तहत ध्वस्त किया जा रहा है किसान की जोट घटती जा रही है और कृषि नीति में बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों को बड़े से बड़े क्षेत्र बना लेने की छूट देने की बात जोरों से चल रही है। विश्व व्यापार संगठन के कानून को तेजी से थोपने के काम को कि सरकार अपनी कुशलता और सफलता मानने लगी है किसान अपने घर में रखा बीज भी अगले साल अपने खेत में बोना चाहे तो उसकी चाह को मिटाने के लिए नए बीज जिन का उत्पादन विदेशी ताकतों के हाथ में होगा बाजार से लेने होंगे ऐसी आशा के साथ हताशा का भाव पैदा करने का प्रयास हो रहा है सत्ता का केंद्र जैसे कहीं बाहर से संचालित हो रहा है देश में नए-नए संकट उभर रहे हैं मसलन एक और आतंकवाद तो दूसरी ओर विखंडित होती समाज का नजारा है कभी जाति के नाम पर फसाद कभी संप्रदाय के नाम पर झगड़े खड़े किए जा रहे हैं। हमारी राजनीतिक व्यवस्था भी जैसे पंगु हो गई है हम ऐसे ही विभाजन और विखंडन की राजनीति के शिकार बनते जा रहे हैं सत्ता के केंद्र विचार हमारी मानसिकता पर छा गई है भारत की मानसिकता उसकी प्राथमिकताएं उसकी प्राकृतिक उपलब्धियां हमारे आज के देश चलाने वाले लोगों की सोच से बाहर है वह भूल गए हैं कि 2000 वर्ष से यूरोपीय उसके अरब लोग मुख्यता जिस अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर जीवन चलाते थे। उसका आधार था शोषण और अन्य देशों की संपत्तियों की लूट बाकी विश्व का भी वही तरीका बनाने की भूल को एक नई नीति का रूप देने की कोशिश हो रही है हमने तो सदियों से एक दूसरी राह अपनाई है
हमने अपने प्राकृतिक साधनों और श्रम शक्ति को ही आधार माना है अपनी आवश्यकता के साधनों को प्रचुर मात्रा में पैदा किया उनका व्यवस्थित उपयोग किया मौलिक आवश्यकता है खाना कपड़ा रहने की जगह सांस्कृतिक अभिव्यक्ति अपने यहां के सब लोगों को उपलब्ध कराया यह सब भूल गए से जान पड़ते हैं इस तरह की भूल है तो हमारे यहां पिछले कुछ दिनों में तेजी से होती आई है और अब तो हम सब पढ़े लिखे अच्छे खाते पीते किसी भी दल या संप्रदायवाद के हैं इन भूलों को सत्य की तरह मानने लगे हैं हम अपने और पराए व्यक्ति व्यवस्था तकनीकी विज्ञान के भेद को भुला बैठे हैं।
सभ्यता और संस्कृति का केंद्र बिंदु है मनुष्य किसी देश और समाज की शक्ति और समर्थ इस बात में होती है कि अपने चिंतन को परिस्थितियों के अनुरूप व किस तरह एक अनवरत और शाश्वत प्रवाह का रूप देता है यह बहाव एक भरी पूरी नदी का बहाव है जो अपने किनारों को थामें रखती है और जिसका पानी हर क्षण नया भी होता रहता है इस सरिता की कथा होती हैं उसका दर्शन उसके रीति रिवाज उसकी आर्थिक राजनीतिक सामाजिक समृद्धि उसके लोगों की अपनी त्याग और तपस्या की गाथा इसके अलावा समाज की सृजनात्मकता से जो प्रवाह बनता है वह पूरे देश और समाज को धारण करता है और उसको संपूर्णता देता है।
भारत सिर्फ मिट्टी का नाम नहीं है। कुछ नदियों और पहाड़ों का समुच्चय नहीं है। भारत सत्य की एक सतत व शाश्वत का नाम है सत्य के साथ कोई अद्भुत सहारा से यह दुनिया बार-बार आलोकित करती रही है यह ऋषियों संतों महात्माओं सूफियों और गुरु की साधना का देश है। उन्हें आस्था और शक्ति देने वाली महान जनशक्ति का देश है। वेन सॉन्ग फाहियान इबन बतूता मैक्स मूलर यूं ही भारत देखने नहीं चले आए थे।
आइंस्टीन ने कहा था कि मानवता के विकास में भारत के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता उसने दुनिया को गिनना न सीखाया होता तो आज यह खोज और अविष्कार ना हुए होते मनुष्यता की अनमोल धरोहर में दुनिया के सोचने समझने वाले किन लोगों को अपनी ओर नहीं खींचा है मैंने जब भारत को जाना तो उनके मुंह से केवल यही शब्द निकला कि मानवता भारत रूप रुपी पालने में फली फूली है मनुष्य को वाणी यही से मिली है और मनुष्य का इतिहास भी यहीं से निकला है गाथाओं की तो भारत दादी रहा है और परंपराओं के मामले में दादी की भी मां मनुष्यता की सारी रचनात्मक धरोहर है भारत में ही रही है।
भारत केवल गंगा यमुना कावेरी सतलुज नर्मदा सिंधु और ब्रह्मपुत्र की घाटी तक ही सीमित नहीं रहा है भारत एक बहुत बड़े सांस्कृतिक विस्तार का नाम है अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत भूसी इस सांस्कृतिक विस्तार की अभ्यर्थना करते हुए कहते हैं भारत ने चीन में एक भी सैनिक नहीं भेजा खून का एक भी कतरा नहीं बहाया किसी की आंखों में आंसू की एक भी बूंद नहीं डाली फिर भी चीन 2000 साल तक उसके प्रभाव में रहा यह एक स्थापित तथ्य है और आप सब जानते हैं अपने 10000 साल के ज्ञान इतिहास में भारत ने किसी दूसरे देश पर कभी भी कोई हमला नहीं किया उसने किसी दूसरे मनुष्य को दबाने के लिए कभी हाथ और पांव नहीं फटकारे। कोई हजम करने आया तो उसे उसने अपने में ही समेट लिया। शक है कि रात यमन सब उसके अपने होकर रह गए ऐसे संस्कृति का नाम ही भारत है ईसा के जन्म से 700 साल पहले ही ज्ञान के संस्थागत केंद्र के रूप में भारत में तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी। यूरोप में पहला विश्वविद्यालय इसके 2000 साल बाद बना ईसा के जन्म से लगभग 500 साल पहले आयुर्वेद को ऐसी संगठित चिकित्सा शास्त्र दिया जाता है। कि ऑपरेशन भी किए थे जिन्हें आज प्लास्टिक सर्जरी कहते हैं उन्हें आनुवंशिकी और रोग की रोकथाम के तरीकों की विधिवत जानकारी थे उनका शास्त्र सिंध में 6000 साल पहले ही विकसित हो गया था।
जिस नेविगेशन नौवहन शब्द का आज हम अक्सर इस्तेमाल किया करते हैं उसका जन्म संस्कृत के शब्द से हुआ है। संस्कृत समस्त यूरोपीय भाषाओं की जननी है आज तो विज्ञान के नवीनतम साधन कंप्यूटर के शास्त्री लोग भी मानते हैं कि कंप्यूटर के उपयोग के लिए सबसे ज्ञानिक भाषा संस्कृत है। पृथ्वी सूरज के इर्द-गिर्द एक चक्कर लगाने में कितना समय लेती है भास्कराचार्य ने इसकी सही-सही गणना काफी पहले ही कर दी थी जबकि पश्चिम इस बात को मान कर चलता रहा था कि सूरज पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमती है और कोई इसके उल्टा कहता है तो उसकी सजा फांसी होती थी।
भारत ने दुनिया को गिनना सिखाया और आर्यभट्ट ने सुनने की अवधारणा दी मिस्र और रोमन संस्कृति में सबसे बड़ी गिनती 10 पावर 6 की हो सकी थी जबकि भारत में ईसा के जन्म से 5000 साल पहले वैदिक काल में ही 10 पावर 53 तक की गिनती की जा चुकी थी हर संख्या को उसका अलग अलग विशेष नाम दिया जा चुका था यूरोप में जब बड़ी तत्वों का जन्म भी नहीं हुआ था तब उनके जन्म के 600 साल पहले भी बुद्धाय ने पाई का मूल्य ज्ञात कर लिया था उस प्रमेय को सामने रखा गया था जिसे आज हम पाइथागोरस प्रमेय का कर रखते। बीजगणित त्रिकोणमिति ज्यामिति कैलकुलस आदि भारत निजात की दशमलव प्रणाली और अंकों का स्थान महत्त्व भरा भारत के गणित से ही निकला है जब दुनिया के अधिकांश लोग खानाबदोश की जिंदगी जी रहे थे तब भारत 5000 साल पहले ही भारत में सिंधु घाटी में एक संपूर्ण संगठित सभ्यता विकसित हो चुकी थी सरस्वती संस्कृत की खोज में विभिन्न राज्यों में जो उत्खनन हो रहे हैं वह बहुत ही परिपूर्ण सभ्यता के होने के सबूत भी दे रहे हैं जब दुनिया स्वर से परिचित तक नहीं थी इस देश में सामवेद के गीत गाए जाते थे।
जब लोगों ने बांध और झील के उपयोग के बारे में मैं भी सोचा नहीं था भारत में चंद्रगुप्त मौर्य के जमाने में ही शक राजा रूद्रदमन में रविवार तक की पहाड़ियों पर सुदर्शन जैसी बड़ी झील बनवाकर आसपास के इलाकों के लिए कभी न सूखने वाली पानी के टैंक का इंतजाम कर दिया था।
जनतंत्र के जिस राज्यतंत्र को आज हम मानवता के सबसे बड़े धरोहर के रूप में मानते हैं उसका उदय भारत में जन्म से पहले ही हो चुका था फ्रांस के अनन्य विद्वानरूम अमरोली को यूरोप से कम प्यार नहीं था पर जब उन्होंने भारत को देखा जाना और समझा तो उनके मुंह से निकला मनुष्य ने जिस दिन से सपने देखने शुरू किए होंगे और कहीं जग में फल और फूल है तो दुनिया में वह केवल एक ही जगह है और वह है भारत – भारत – भारत
मैंने भारत की गौरव की यह बातें विरुदावली के गाने के लिए नहीं कहीं और ना ही अपना सीना फुलाने के लिए कही है। हमें ऐसी महान उपलब्धियों वाले देश के वासी हैं यह बातें मैंने उस श्रोत की तलाश के लिए प्रेरित करने के लिए कही है जिसे भारत कहा जाता है और जहां से शक्ति और सामर्थ्य निकलती है यह अकस्मात नहीं हो सका था। कहीं भास्कर आचार्य पैदा हो गए और कहीं से बुद्धा निकल आए यह अकस्मात नहीं था कि कभी किसी बुध का जन्म हो गया है और कभी कहीं कोई कबीर पैदा हो गया यह उपलब्धियां जीवन से सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था की देन थी।।
भारत में 33 करोड़ देवता और 56 करोड़ देवियों की पूजा अंधविश्वास नहीं है यह मानव शक्ति में अटूट आस्था का प्रतीक है और यह भी कोई अनायास नहीं हुआ कि अरब यूनान रूम जैसी सभ्यताओं के मुंह यदि भारत की ओर आए थे तो यूरोप से जो जहाजी बेड़े निकले उनके बालों और परिवारों का रुख भी भारत की ओर ही था यह जो पूरी नई दुनिया खोजी गई यह सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत की खोज में किए जाने वाले प्रयास का एक अभूतपूर्व परिणाम था।।
सच तो यह है की 17वीं सदी में अंग्रेजों के आने के पहले तक भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश था उसके ज्ञान-विज्ञान के कल कारखानों की रीत रिवाज की एकएक संस्था को गुलाम के दिनों में ध्वस्त किया गया। अगर किसी एक का इस सिलसिले में नाम लेना जरूरी है तो मैं ईस्ट इंडिया कंपनी को चिन्हित करता हूं उस दौर में भारत की लूट के दो हिस्से हैं। पहले कंपनी ने हमारी संपदा बटोरी व्यापार का काम चलाया औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवाद की प्रारंभिक अवस्था में कच्चा माल ढोया जाने लगा और उनके वहां का पक्का माल यहां बिके इसलिए हमारे देश को कृषि प्रधान बना कर साजिश रची गई। विद्वानों ने जो जाना और पाया है उसके मुताबिक 17वीं सदी तक हमारे देश में चिकित्सा शिक्षा धातु विज्ञान गणित व्यापार आदि विधिवत विकसित प्रणालियां विकसित थे उनके क्षेत्र थे, अन्न के भंडार भी थे, इस्पात तक के बनाने का अपने यहां कौशल था अनेक संस्थाओं ने अपनी खोजों से इस बात को साबित किया है और सबसे बड़ी बात इस तरह के तथ्यों के साथ अंग्रेज प्रशासकों ने अपने रिकॉर्ड में भी दर्ज किए हैं।।
गांधीजी और अंग्रेज प्रोफ़ेसर फिलिप हरटोग के बीच तो इस बारे में 9 साल लंबी बहस भी चली थी । और उन्हें एक पत्र में 1931 में गांधी जी ने बहुत साफ कहा था मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि भारत में आज जितनी अशिक्षा है 100 साल पहले उतनी अशिक्षा नहीं थी। जो चीज है जहां थी वहां से उन्हें सहेजने और संभालने के बदले अंग्रेज प्रशासकों ने पहले उनकी जड़ें खोद कर देखना शुरु किया। उन्होंने मिट्टी हटा ली जड़ों को नंगा छोड़ दिया और भारत नाम का एक अति सुंदर वृक्ष सूख गया
इतिहासकार थर्मल ने द ब्यूटीफुल ट्री ऑफ डब्ल्यू लंदन का एक उद्धरण दिया है 1830 के आसपास बंगाल और बिहार में एक लाख के आसपास स्कूल थे और मुंबई प्रेसिडेंसी में 1820 तक कोई भी ऐसा गांव नहीं था जहां एक स्कूल ना हो बड़े गांव में तो एक से अधिक स्कूल थे जीबृजेश ने लिखा है कि पंजाब में अट्ठारह सौ पचास तक शिक्षा के प्रसार का यही हालात था। इस धर्मपाल जी ने यहां आए अंग्रेज प्रशासकों को लिखे पढ़ने का जो अध्ययन किया उसके मुताबिक 17वीं सदी तक देश के तकरीब हर एक गांव में एक स्कूल पाठशाला थी। अपने हाट बाजार थे अपने न्याय और प्रशासन की व्यवस्था थी कला कौशल और उद्योग को संभालने और बढ़ाने के अपने अलग इंतजाम थे 17 वीं शताब्दी तक सारी व्यवस्थाओं को आपदाओं के बावजूद हमारी उत्पादन व्यवस्था बहुत मजबूत थे वह स्वावलंबी थे जरूरत इस बात की थी कि उसी कड़ी से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो वहां से जुड़े वहां से उठे वहीं से आधुनिकीकरण का अगला कदम उठाए यह नहीं हुआ यह जानना जरूरी है कि क्यों नहीं हुआ गांधी को जानने वाले मानते हैं कि इस अति सुंदर वृक्ष की जड़ों को सुखाकर उनकी जगह पर बिना जड़ की एक विदेशी प्रणाली को बैठा देना ही हमारी मौजूदा दुर्दशा का कारण है।
एक तो इसे शिक्षा ज्ञान विज्ञान कला कौशल की प्रणाली बिगड़ी है यही वजह है कि साक्षरता और सब को शिक्षा देने कि हमारे आज के प्रयास में सफल नहीं हो पा रहे हैं दूसरे इसेसे सामाजिक संतुलन चौपट हो चुका है यह सामाजिक संतुलन था तो समाज का हर वर्ग अपनी जरूरत का इंतजाम कर लेता था और उसका हर आदमी स्थानीय स्तर पर समाज के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में अधिकार और सम्मान भागीदारी ले सकता था इससे बड़े समाज में भी उसकी भागीदारी के रास्ते खुले थे शिक्षा स्वास्थ्य और आर्थिक संरचना के टूट जाने से किसानों जमीनी स्तर पर काम करने वाले का कारोबार उद्योग धंधा करने वाले लोगों की सामाजिक और आर्थिक हैसियत में कमी आ गई आज जिन्हें हम दलित और पिछड़े कहते हैं और जिनकी सामाजिक और आर्थिक गिरावट की जगह उनकी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण यही है सूचना को सीखना समझना चीजों को अपने कौशल से अपने हिसाब का बना लेना और उनमें प्राण फूंक देना हमारे समाज की विशिष्ट शक्ति रही है लेकिन इस विशेषता का मनमाने ढंग से इस्तेमाल भी किया गया है।
सभ्यता क्या है इसे लेकर गांधी जी ने कहा है कि वह आचरण है जिसे आदमी अपना फर्ज अदा करता है फर्ज अदा करने के माने हैं नीति का पालन करना नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना ऐसा करते हुए हम अपने को अपनी असलियत को पहचानते हैं यही सभ्यता है इसी से जो उल्टा है वही बिगाड़ करने वाला है और वही नाश करने वाला है हमने देखा है कि मनुष्य की वृतियां चंचल है उसका मन बेकार की दौड़-धूप किया करता है उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा दिया जाए वैसे वैसे ज्यादा मांगता है ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता भोग भोगने से भूखी इच्छा और बढ़ जाती है इसलिए हमारे पुरखों ने भूख की हदें बांधी थी बहुत सोच कर देखा कि सुख दुख तो मन के कारण हैं अमिर अपनी अमीरी की वजह से सुखी नहीं है गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सूखी देखने में आता है करोड़ों लोग तो गरीब ही रहेंगे ऐसा देखकर उन्होंने भूखी वासना छुड़वाई हजारों साल पहले जैसे झोपड़े थे उन्हें हमने कायम रखा हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी सब अपना अपना धंधा करते रहें ।। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक काम किए और दाम लिए।
ऐसा नहीं था कि हम यंत्र वगैरा की खोज करना ही नहीं जानते थे लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरा के झंझट में पड़ेंगे तो ग़ुलाम ही बनेंगे। और अपनी नीति को छोड़ देंगे उन्होंने सोच समझ कर के हमें अपने हाथ और पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए हाथ पैर का इस्तेमाल करने में ही सोच समझ है और उसी में हमारी तंदुरुस्ती है और अगर तंदुरुस्ती है तो हम स्वस्थ हैं और हम स्वस्थ हैं तो हम संपन्न में भी हैं उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकार का झंझट है उनमें लोग सुखी नहीं होंगे उनमें दोस्तों की टोलियां और वेश्याओं की गलियां पैदा होंगे गरीब अमीरों से लूटे जाएंगे इसलिए उन्होंने छोटे देहातों में सन्तोष माना उन्होंने देखा राजाओं और उनकी तलवारों के बनिस्बत नीति का बल ज्यादा बलवान है इसलिए उन्होंने राजाओं के नीति वान पुरुष ऋषि यों और फकीरों से सबसे कम दर्जे का माना ।।
ऐसा जिस राष्ट्र का गठन है वह राष्ट्र दूसरे को सिखाने लायक है वह दूसरों से सीखने लायक नहीं है पश्चिम में शक्ति का स्रोत आर्थिक और राजनीतिक सत्ता रही है इसी में उसका परमानंद है उनका दृष्टिकोण मनुष्य और प्रकृति के बीच टकराव का है और वहां का औद्योगिकीकरण उनकी संस्कृति उनका रहन-सहन उनकी सोच इसी से निकली है इसलिए वह भौतिकवाद का प्रबल रहा है। भारत में मनुष्य और प्रकृति के बीच में सहयोग और समन्वय का रिश्ता है हमारी संस्कृति और सभ्यता के सूत्र यहां से निकले हैं और उसका निचोड़ बहुत रोचक रहा है यह निचोड़ थे समाज के रूप में एक ऐसी बहुरंगी चमन जिसमें हर बयार को हर बहार को खिलने की आजादी है सत्ता और अर्थ संरचना की ऐसी भी केंद्रित इकाइयां जहां गांव अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भर इकाई हो और वहां उसका स्वशासन व्यवस्था और न्याय की रचना और अनुपालन के लिए सामूहिक व सामुदायिक पंचायतें ऐसे समाज को ना राजा की बहुत जरूरत है और ना ही प्रजा की यह एक ऐसी व्यवस्था थी जहां हर हाथ के लिए काम था और हर मुंह के लिए निवाला था कच्चा माल इधर से उधर आता जाता था तो उसे अपने यहां के लिए ठोक पीटकर लोहा बना लिया जाता जन जन तक फैले इस भारत संप्रभु के अनंत हाथ थे और अनंत मेघा थी।।
इसी सम्पूर्ण भारत से उठकर कोई प्रश्न कह सकता था कि देखो सारा ब्रह्मांड मेरे अंदर लीन है हमारा परमआनंद था इस परमानंद में राज्य समाज धर्म और अर्थ इन चारों ही व्यवस्थाओं के सहज स्वाभाविक रूप से विकेंद्रित होना था। हमारा मंत्र रहा विकेंद्रीकृत व्यवस्था से शक्ति संचय हम उस व्यवस्था से 17वीं सदी तक दुनिया के सबसे समृद्ध देश है। महान रोमन साम्राज्य को भी कानून बनाना पड़ा था कि भारत के कपड़े की खरीदी ना की जाए
भारत ही कह सकता था कि मेरे पास जो कुछ है वह समस्त मानवता का है त्वदीयं वस्तु गोविंद अब तो हमें व सर्वप्रेम वैश्वीकरण तो यह है भूख का नहीं वैश्वीकरण उपभोग का नहीं कृतज्ञता का वैश्वीकरण सत्ता का नहीं सदस्यता का वैश्वीकरण मनुष्यता का वैश्वीकरण जहां तक सूरज की रोशनी जाती है और जहां जहां तक नहीं दी जाती है वहां मेरी अपनी मौजूदगी का वैश्वीकरण।।
अंदर बाहर के निस्वार्थ होने के कारण भारत की शक्ति और सामर्थ्य को बार-बार झकझोरा है जाति वर्ग संप्रदाय समूह धर्म भाषा बोली रंग आदि आदि के नाम पर हमारी इस अंतर चेतना को कुंद करने की ना जाने कितनी कोशिश हुए हैं इस देश में जो 9 ऋषि हुए उनकी कोई जाति नहीं हमारी चेतना किसी एक जाति और धर्म से नहीं निकलती है जिन्हें हम पिछड़े और दलित कहते हैं वाल्मीकि से लेकर संत रैदास तक जाने कितने महात्मा हुए जिन्होंने इस भारत को साधा लेकिन गुण और कर्म आधारित एक चल व्यवस्था पूर्ण कर दिया गया उच्च नीच छूत अछूत और छोटे बड़े बना दिया गया उन्होंने कंधों को आडंबर बना दिया इस संप्रदाय का उस संप्रदाय को वर्चस्व देने की कोशिश की गई समाज को इसका बार-बार और बहुत बार खामियाजा भी उठाना पड़ा लेकिन इतिहास गवाह है ना की किसी राजा की सत्ता चली और ना किसी संप्रदायिक ताकत की मनमानी ही चली यह विचार की धारा वही धारा समय और काल से जुड़ सकती है जो मनुष्य की उसकी संपूर्णता में पोषित करती है उसके प्रस्फुटन के हजारे रास्ते खोलती है।।
आज के वैश्वीकरण के सूत्र भारत के समाज को विखंडन के रास्ते पर ले जा रहे हैं इसलिए यह कोई संयोग नहीं है कि जाति और संप्रदाय के नाम पर हमारे समाज को बांटने वाली ताकतों ने वैश्वीकरण को अपने गले में हार की तरह पहन लिया है यह पश्चिम के अंधानुकरण की लगातार ढोल पीट रहे हैं।
हमारी शक्ति के सूत्र हैं किसान और मजदूर हमारे गांव गांव और हाथ हाथ तक फ़ैल सकने वाले लोगों और कठोर कुटीर उद्योग का स्थानीय सामग्रियां कौशल और प्रतिभा को उत्पादन में बदलने वाले छोटे कल और कारखाने जमीनी स्तर की अपनी सरकारों को लेकर गठित पंचायत हैं उनकी राजनीतिक और वैज्ञानिक व्यवस्थाएं हमारी परिवार व्यवस्था हमारी विभिन्न भाषाएं और बोलियां हमारे अपने हाट और बाजार हमारे अपने ताल और तलैया हमारी नदियां हमारे पहाड़ और हमारा मनुष्य और मनुष्यता को पोषित करने वाला संपूर्ण जीवन दर्शन भारत का जो नक्शा बनेगा वह इसी के इर्द-गिर्द बनेगा और जो बनेगा उसे गांधी ने हिंद स्वराज में इसी रूप में देखा है।।
इस राष्ट्र में अदालतें थी वकील थे डॉक्टर रहे लेकिन वे सब ठीक ढंग से नियम के मुताबिक चलते थे वे सब जानते थे कि धंधे बड़े नहीं हैं वकील डॉक्टर वैगरह लोगों में आज की तरह लूट नहीं मचाते थे वह तो लोगों के आश्रित थे वे लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इंसाफ काफी अच्छा होता था अदालत में न जाना या लोगों का देखा जाना उन्हें भरमाने वाले स्वार्थी लोग नहीं थे। इतनी सड़न भी सिर्फ राजा और राजधानी के आसपास ही थी झाइयों पर जाओ तो उसे स्वतंत्र रहकर अपने खेत का मालिक के हक की भक्ति थी उसके पास से सच्चा स्वराज था जहां यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुंचे वहां हिंदुस्तान आज भी वैसा ही है उसके सामने आप अपने नए ढंग की बात करेंगे तो वह आपको अपनी हंसी उड़ा आएगा उस पर ना तो अंग्रेज राज करते हैं ना आप राज कर सकते हैं
जिन लोगों के नाम पर हम बातें करते हैं उन्हें हम पहचानते नहीं हैं न वे हमें पहचानते हैं आपको और दूसरों को जिनमें देश प्रेम है मेरी सलाह है कि आप देश में जहां रेल की बाढ़ नहीं फैली है उस भाग में 6 महीने के लिए घूम कर के आए बाद में देश की लगन लगाए बाद में स्वराज की बात करें।।
आज राजेंद्र बाबू का स्मृतिदिन है राजेंद्र बाबू उस मिट्टी से निकले थे जिसे भारत कहा जाता है उनकी जीवनी पढ़ने पर पता चलता है कि एक बात जीवन भर उनके जेहन में घूमती रहती थी इस देश को भारत कैसे बनाया जाए गांधी के चंपारण आंदोलन से उन्होंने एक बार जो समाज सेवा की शुरुआत की तो उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा उन्होंने जब वकालत छोड़ी तो उनकी जेब में कुल ₹15 थे और पीछे था एक भरे पूरे परिवार को संभालने का दायित्व। गांधी और सरदार पटेल की जीवनधारा से जुड़े हुए थे और राष्ट्रपति बनने के बाद भी उन्होंने जीवनधारा को नहीं बदला सत्ता व्यवस्था के इस बात को लेकर उनकी कई बार टकराव भी हुए लेकिन राजेंद्र बाबू अपनी मर्यादाओं के भीतर अपने रास्ते पर चलते रहे उनके जमाने में राष्ट्रपति भवन में विदेशी मेहमानों के लिए भले ही अंग्रेजी ढंग से खाना परोस दिया जाता रहा हो परंतु भारत के राष्ट्रपति खुद भारतीय ढंग से थाली में परोसे को ही खाते थे बाहर से आए मेहमानों के लिए उनका इस भारतीय पद्धति का सत्कार ही किया राष्ट्रपति खुद घोड़ा गाड़ी पर सुबह टहलने निकल जाते थे और लोगों से उनके दुख दर्द का हाल पहुंचते थे। पश्चिम पर सत्ता व्यवस्था ने बड़ा विरोध करके इस परंपरा को बंद कराया इसी तरह का विरोध तब हुआ जब उन्होंने बनारस में पंडितों की पाठ पूजा और पाद प्रक्षालन किया राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा हमारी संस्कृति में विद्वान का स्थान राजा से भी बड़ा होता है विद्वानों का सम्मान कर के हम अपना ही सम्मान करते हैं राजेंद्र बाबू 1950 में जब अंतरिम राष्ट्रपति बने तो एक वर्ग ने इस बात का बड़ा विरोध किया अंग्रेजी पद्धति को स्वीकार न करने वाला राष्ट्रपति इस देश को कैसे चलायेंगे। 1952 से 1957 में उनके चुनाव के समय फिर व्यवस्था मैं यही सवाल उठाया उन्हें सत्ता लोलुप और धार्मिक पुनर्जागरणवादी का समर्थक कह उनका तिरस्कार करने की कोशिश में भी हुई लेकिन राजेंद्र बाबू अडिग रहे और उन्होंने पश्चिमफर्क मान्यताओं से जूझते रहने का रास्ता चुना चाहे हिंदू कोड बिल का सवाल हो चाहे केरल में राष्ट्रपति शासन लगाने का सवाल हो चाहे सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में जाने का सवाल हो राजेंद्र बाबू दृढ़ता पूर्वक अपनी मर्यादाओं पर अडिग रहें ईमानदारी से अपनी बात कहते रहे और व्यवस्था को समझाते रहे इस देश का कल्याण भारतीयता के रास्ते पर चलने में ही है तब देश इतना हारा नहीं था जितना कि आज है।
1957 में जब उन्हें हटाकर किसी और को राष्ट्रपति बनाने की बात चली तो मौलाना आजाद ने नेहरू को लिखा हमारी आजादी के जंगओ जहाज में जिसने अपने आपको मिटा दिया और दूसरे जीसे विदेशी सरकार के हाथों सर का खिताब कबूल करने में कोई झिझक नहीं हुई उसमें जमीन आसमान का फर्क है और इस फर्क का एहसास आपको करना ही होगा। उसी तरह सरदार पटेल की मृत्यु पर व्यवस्था के सारे विरोध के बावजूद वे उनकी अंत्येष्टि में शरीक होने गए ज्ञानवती दरबार को उन्होंने जो चिट्टियां लिखाई उसमें एक बात बहुत साफ है कि राष्ट्रपति इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि भारत पश्चिम के जिस रास्ते पर चल पड़ा है उसका नतीजा क्या होगा तो जहां भी जाते भारत की परंपरा और उसकी समृद्धि की पहल एक तरह से खुद ही किया करते रहते थे।
यह भी राष्ट्रपति थे जो देश की सीमाओं की रक्षा के लिए शहीद सैनिकों की स्मृति में शौर्य पुरस्कार देते जाते समय उनकी आंखों से आंसू झड़ रहे होते थे उन्हें इस बात की भी लगातार चिंता रहती थी कि सार्वजनिक जीवन का जो क्षरण हो रहा है उसका नतीजा क्या होगा इसलिए वे गांधीजी के इस बात को बार-बार याद करते कि आजादी के बाद कांग्रेस को राजनीतिक दल के बदले सेवा के एक संगठन में बदल दिया जाए और गांधी जी पर उनकी इतनी निष्ठा थी कि वह हाथ में पेंसिल और कागज लेकर बैठे हैं तो उस कागज पर गांधी जी की मृत्यु के बाद भी उनका संदेश लिखा उठा
वे राष्ट्रपति थे जिन्होंने 30 जनवरी 1959 को लिखा हमने गांधीजी के 11 साल पहले ही हत्या कर दी थी लेकिन क्या इतनी ही बात है गांधीजी की तो हम रोज रोज हत्या कर रहे हैं 13 मई 1959 को उन्होंने लिखा आज इस भारत का नक्शा हम देख रहे हैं वह सरदार पटेल के प्रयासों से बना है लेकिन दिल्ली में उनका एक भी स्मृति चिन्ह नहीं है हम उन्हें महत्व नहीं देना चाहते तो इसका मतलब यह नहीं कि देश के लिए उनकी सेवाएं कम परंपरागत संस्थाओं को बहुत महत्व देख कर देते थे।
8 मई 1960 को उन्होंने लिखा यह कहां तक सही है कि लोगों को केवल उनकी अपनी बौद्धिक और शारीरिक शक्ति के भरोसे छोड़ दिया जाए परिवार उसके हर सदस्य के लिए बीमा का काम करते थे मैं मानता हूं कि परिवारिक व्यवस्था हमारी बहुत ही मानवीय व्यवस्था रही है लेकिन व्यवस्था नहीं इस बात की पूरी कोशिश की यदि राष्ट्रपति मरे तो गांधी के राजघाट के आसपास उनकी कोई समाधि ना बनने पर इसके लिए दूर की एक जगह तलाशी गई थी जहां बाद में लाल बहादुर शास्त्री की समाधि बना।
राजेंद्र बाबू गांधी के उच्च चंपारण सत्याग्रह आंदोलन से निकले थे जो गांधी का इस भारत के नजदीक जाने का प्रयोग था जमीन से शक्ति संचित करने का प्रयोग था क्या आज का वक्त गांधी और राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों को फिर से खींच कर एक साथ खड़ा कर देने का है भारत का ही प्रयोग बचाएगा मुझे लगता है कि हमारे देश की शक्ति और सामर्थ्य फिर से तभी जिंदा होगी जब हजारों लोग एक साथ मिलकर अपने देश को अपनी संस्कृति के कल्याणकारी पक्ष का जो फर्क है उसे समझे ज्ञान विज्ञान को परिस्थिति के अनुरूप निखारे अपनी सामर्थ्य की आस्था के आधार पर चलने की कोशिश करें।।
अपने संस्कृतिक का एक कल्याणकारी पक्ष का फर्क है ज्ञान विज्ञान को परिस्थिति कम रूप निखारे अपनी सामर्थ्य की आस्था के आधार पर चलने की कोशिश करें भारत संपूर्ण मानवता के लिए बहुत बढ़िया सा है आज पूरी दुनिया भारत की ओर देख रही है इसी आशा से कि वह पूरी दुनिया को कौन-कौन सा रास्ता दिखाता है राजेंद्र बाबू ने इस सामर्थ्य को समझा था उसे अपने जीवन में उतारा था अपने निष्ठा और संकल्प शक्ति के सहारे उस राह पर चले थे आज भी हमारे प्रेरणा के स्रोत हैं गांधी की आवाज से अनुप्राणित उनकी जिंदगी एक ऐसा प्रकाशन स्तंभ है जो आज के फैलते अंधेरे में हमें एक नया प्रकाश देगी जिससे ना केवल सही राह पर स्वयं चलने में सक्षम होंगे वरुण सारी मानवता को एक नई रोशनी देने में समर्थ होंगे उस महामानव देशरत्न की स्मृति को मेरा प्रणाम
आप का चंद्रशेखर
डॉ राजेंद्र प्रसाद स्मारक व्याख्यानमाला 2000 के तहत ऑल इंडिया रेडियो पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा दिसंबर 2000 में भारत की सामर्थ्य विषय पर दिया गया भाषण ।।
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