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जानिए कौन थे महाराज अग्रसेन (समाजवाद) और कैसे बने अग्र समाज के साढ़े सत्रह गोत्र ?

महाराजा अग्रसेन जी ने ‘एक ईट और एक रुपया’ के सिद्धांत की शुरुआत की थी। जिसके मुताबिक राज्य में प्रवेश करने वाले हर नए परिवार को राज्य में बसने के लिए ईट और रुपए दिए जाते थे। राजा का मानना था कि ईटों से व्यक्ति अपने निवास स्थान का निर्माण करेगा और रुपयों से उसे अपने नए व्यपार को शुरू करने में बहुत मदद मिलेगी। इस तरह महाराजा अग्रसेन जी को समाजवाद के प्रणेता के रुप में पहचान मिली।

पौराणिक काल से ही भारत की धरती राजाओं महाराजों की धरती रही है। यहाँ ऐसे ऐसे महाराजाओं ने जन्म लिया जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव सेवा और धर्म सेवा में लगा दिया।

इस मिट्टी ने ऐसे ही एक युगपुरुष “महाराजा अग्रसेन जी” को भी जन्म दिया। जिन्होंने धर्म क्षेत्र व् समाजसेवा में ऐसे ऐसे कार्य किए कि दुनिया में आज भी उनकी मिसाल दी जाती है। उनके जन्म दिवस को आज अग्रसेन महाराज जयंती के रूप में पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता हैं।

महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। इन्होने अपने राज्य में सभी भेद भावों को मिटाकर एक राम राज्य की स्थापना की। यह अग्रोदय नामक गणराज्य के महाराजा थे। जिसकी राजधानी अग्रोहा थी।

जीवन परिचय – महाराजा अग्रसेन का जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। यह जयंती नवरात्रि के प्रथम दिवस को आती है जिसे देश में अग्रवाल समाज के साथ बाकी सभी समुदाय भी बहुत आदर भाव से मनाते है।

धार्मिक मान्यता व् जानकार बताते है कि इनका जन्म सूर्यवंशीय महाराजा वल्लभ सेन के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में आज से लगभग 5143 वर्ष पूर्व हुआ था। इनके पिता जी महाराजा श्री वल्लभसेन जी समस्त खांडव प्रस्थ, बल्लभ गढ़, अग्र जनपद के राजा थे।

इतिहासकार बताते है कि महावीर महाकाव्य युग में द्वापर युग के अंतिम चरण के दौरान पैदा हुए महाराज अग्रसेन सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे, जोकि भगवान श्री कृष्ण के समकालीन थे। यह राजा मन्धाता के वंश थे और राजा वल्लभ और माता भगवती के सबसे बड़े बेटे थे। बचपन से ही बालक अग्रसेन अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। इनकी मिसाल धार्मिक, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले एक महान राजा के रूप में आज भी दी जाती है।

वैवाहिक जीवन – समयानुसार युवावस्था में राजा अग्रसेन ने राजा नागराज कुमूद की बेटी राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में भाग लिया। उस स्वयंवर में दूर-दूर से अनेक राजा और राजकुमार आए थे।

यहां तक कि देवताओं के साथ साथ स्वर्ग के परमेश्वर और तूफान और वर्षा के स्वामी राजा इंद्र भी राजकुमारी के सौंदर्य के कायल थे और उनसे विवाह रचाना चाहते थे। लेकिन अपने पति को चुनते हुए राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन के गले में जयमाला डालकर अपना प्राणनाथ सुनिश्चित किया। कहा जाता है कि उस समय यह दो अलग-अलग संप्रदायों, जातियों और संस्कृतियों का मेल हुआ था। राजकुमार अग्रसेन सूर्यवंशी थे और उनकी पत्नी माधवी एक नागवंश की कन्या थीं।

इंद्र का बदला – जैसा कि आप सब जानते है कि देव इंद्र राजकुमारी माधवी से शादी करना चाहते थे। लेकिन राजकुमारी द्वारा पति के रूप में अग्रसेन के चयन से इंद्र जलन और गुस्से में आपे से बाहर हो गये और बदला लेने का फैसला कर लिया। अपना बदला लेते हुए उन्होंने प्रतापनगर में वर्षा का होना रोक दिया।

चारों ओर त्राहि-त्राही मच गयी। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे व्, मानव जाति सब धीरे धीरे ना चाहते हुए भी मृत्यु को प्राप्त होने लगे। नतीजन, एक अकाल ने अग्रसेन के राज्य को अपना गुलाम बना लिया। प्रकृति की लगातार होती मृत्यु को देखते हुए महाराज अग्रसेन ने इंद्र के विरुद्ध युद्ध छेड दिया चूंकि अग्रसेन धर्म-युद्ध लड रहे थे तो उनका पलडा भारी था जिसे देख देवताओं ने नारद ऋषि को मध्यस्थ बना दोनों के बीच सुलह करवा दी।

एक अन्य कथा – इस घटना के सम्बन्ध में एक कथा बताती है कि इंद्र के प्रकोप से प्रतापनगर को इस संकट से बचाने के लिए महाराज अग्रसेन जी ने माता लक्ष्मी जी का आव्हान किया और उनसे इस संकट से उभरने के लिए समाधान माँगा। तब माता लक्ष्मी जी ने प्रसन्न होकर अग्रसेन जी को सलाह दी कि यदि वे कोलापुर के राजा नागराज महीरथ की पुत्री से विवाह कर लेते हो तो उनकी शक्तियां के हक़दार हो जायेगें और इंद्र से युद्ध में अधिक शक्तिशाली बन जायेगें, और देवइंद्र को भी आपके सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। कथा के अनुसार इस तरह महाराज अग्रसेन का दूसरा विवाह राजा नागराज महीरथ की पुत्री से हुआ था।

घोर तपस्या – अपनी प्रजा-जनों की खुशहाली के लिए महाराज अग्रसेन ने आगरा शहर में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हे दर्शन दिए और देवी महालक्ष्मी को प्रसन्न करने की सलाह दी।

जिसके बाद राजा ने माँ लक्ष्मी की तपस्या कर उन्हे प्रसन्न किया। परिणामस्वरूप माँ लक्ष्मी उन्हें दर्शन दिए और कहा कि अपना एक नया राज्य बनाएं और क्षात्र धर्म का पालन करते हुए अपने राज्य तथा प्रजा का पालन – पोषंण व रक्षा करें ! इसके बाद ही वे उनके वंश को समृद्धि के साथ आशीर्वाद देंगी।

अग्रोहा की स्थापना – जानकार बताते है कि एक नए राज्य के लिए जगह चुनने के लिए अग्रसेन ने अपनी रानी के साथ सम्पूर्ण भारत वर्ष की यात्रा की। इसी दौरान उन्हें एक जगह एक शेरनी एक शावक को जन्म देते दिखाई दी। कहते है जन्म लेते ही शावक ने महाराजा अग्रसेन के हाथी को अपनी माँ के लिए संकट समझकर तत्काल हाथी पर छलांग लगा दी।

इस घटना को देखकर राजा अग्रसेन और रानी माधवी को लगा कि यह एक शुभ संकेत है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने के लिए उन्हे प्रकृति की ओर से मिला है।

बाद में ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों से राय लेने के बाद राजा ने नये राज्य का नाम अग्रेयगण की स्थापना की। जिस जगह शावक का जन्म हुआ था उस जगह अग्रोदय की राजधानी अग्रोहा की स्थापना की गई। आज के समय में यह जगह हरियाणा के हिसार के नाम से विश्व भर में विख्यात है। अग्रवाल समाज के लिए आज भी यह स्थान पांचवे धाम के रूप में पूजा जाता है।

समाजवाद और राजा अग्रसेन – कहा जाता है कि महाराजा अग्रसेन ने ‘एक ईट और एक रुपया’ के सिद्धांत की शुरुआत की थी। जिसके मुताबिक राज्य में प्रवेश करने वाले हर नए परिवार को राज्य में बसने के लिए ईट और रुपए दिए जाते थे। राजा का मानना था कि ईटों से व्यक्ति अपने निवास स्थान का निर्माण करेगा और रुपयों से उसे अपने नए व्यपार को शुरू करने में बहुत मदद मिलेगी। इस तरह महाराजा अग्रसेन जी को समाजवाद के प्रणेता के रुप में पहचान मिली।

महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया, उन्होंने पुनः वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य की पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया।

कहते है इसी तरह महाराज के राज्य में अग्रोदय गणराज्य ने दिन दूनी- रात चौगुनी तरक्की की। महालक्ष्मी जी की कृपा से चरम स्मृद्धि के समय वहां लाखों व्यापारी आकर बस गए थे।

अठारह यज्ञ और अहिंसा – कहा जाता है कि माता महालक्ष्मी की कृपा से महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य को 18 गणराज्यो में विभाजित कर एक विशाल राज्य का निर्माण किया था, जो इनके नाम पर अग्रेय गणराज्य या अग्रोदय कहलाया। एक प्राचीन कथा से पता चलता है कि महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया।

जानकार बताते है कि उस समय यज्ञों में बैठे गए 18 गणाधिपतियों के नाम पर ही अग्रवंश के साढ़े सत्रह गोत्रो की स्थापना हुई थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने और सबसे बड़े राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी तरह गोभिल ॠषि द्वारा दूसरा यज्ञ करवाया और द्वितीय गणाधिपति को गोयल गोत्र दिया गया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया।

ऐसा 17 यज्ञों तक चलता रहा। लेकिन 17 यज्ञों तक निर्दोष पशुओं की बलि के दर्शय से महाराज अति दुखी हो चुके थे इसलिए जैसे ही 18 वें यज्ञ में पशुओं की बलि दी जा रही थी तो महाराज अग्रसेन सवयं को रोक नहीं सके और यज्ञ बीच में ही रोकते हुए कहा कि आज के बाद से भविष्य में भी मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति हर जीव की रक्षा करेगा।

कहते है कि महाराज ने इस घटना से प्रभावित होकर ही अहिंसा धर्म को अपनाया था। दूसरी ओर अठाहरवे यज्ञ में यज्ञाचार्यो पशुबलि को अनिवार्य बताया और महाराज को बताया कि यदि पशु बलि नहीं दी गयी तो गोत्र अधूरा ही रह जाएगा, लेकिन महाराज अपना निर्णय पहले ही ले चुके थे।

उन्होंने पशु बलि नहीं होने दी। जिसकी वजह से अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र अधूरा ही रह गया। आपको बता दें कि ये कथा आज भी अग्रवाल समाज मे आदरणीय है और आज भी इस समाज में 18 नही, साढ़े सत्रह गोत्र ही प्रचलित है। जिनके नाम इस प्रकार है।

इसी कथा से प्रेरित होते हुए काका हाथरसी जी कलम अग्रवाल गोत्र महिमा इस तरह से लिखती है।

वैश्य जाती में प्रतिष्ठित अग्रवाल का वर्ग,
गोत्र अठारह में प्रथम नोट कीजिए गर्ग,
नोट कीजिए गर्ग कि कुच्छल, तायल, तिंगल,
मंगल, मधुकूल, ऐरण, गोयन, बिंदल, जिंदल,
कहीं कहीं है नागल, धारण, भंदल, कंसल,
अधिक मिलेंगे मित्तल, गोयल, सिंहल, बंसल,
यह सब थे अग्रसेन के पुत्र दूलारे,
हम सब उनके वंशज है, वे पूज्य हमारे।

महाराज अग्रवाल और संन्यास – जानकार बताते है कि महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। उनमे जीवन मूल्यों में परम्परा, प्रयोग, अनुशासन, अहिंसा, प्रेम, भरपूर संगम दिखाई देतें है। जहां उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रथों का पालन करते हुए क्षत्रिय वर्ण के लिए निर्देशित कर्मक्षेत्र को स्वीकारा तो वहीँ दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श भी स्थापित किए।

वे अपने जीवन के तीन आदर्श मानते है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। कहा जाता है कि अपने जीवन के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू के हाथ अपना सारा साम्रज्य सौंप दिया और और सव्य को ईश्वर भक्ति के लिए तैयार कर लिया । वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास के जीवन को अपनाते हुए महाराज ने खुद को ईश्वर के संत-भिक्षुओं में शामिल कर लिया।

इतिहास के पन्नों में आज भी परम प्रतापी, धार्मिक, सहिष्णु, समाजवाद के प्रथम प्रेरक के रूप महाराज अग्रसेन का नाम सुनहरे अक्षरों में जड़ा हुआ है।

भारत सरकार द्वारा दिया गया सम्मान – आपको बता दें कि 24 सितंबर साल 1949 भारत सरकार ने महाराजा अग्रसेन के नाम पर 25 पैसे का एक डाक टिकट जारी किया। इसके बाद साल 1995 में दक्षिण कोरिया से आया एक विशेष तेल वाहक पोत का नाम भी “महाराजा अग्रसेन” के नाम पर रखा गया।

इस जहाज़ की क्षमता लगभग 1,80,000,000 टन बताई जाती है। सरकार द्वारा सन 2012 में भी भारतीय डाक अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया गया। आपको बता दें कि दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास हैली रोड में 60 मीटर लम्बी व 15 मीटर चौड़ी बावड़ी है जिसे अग्रसेन की बावली कहा जाता है।

महाराज अग्रसेन पर लिखी गयी पुस्तके – जानकार बताते है कि महाराज अग्रसेन कईं पुस्तके लिखी गयी है और आज भी लिखी जा रही है। लेकिन सबसे प्रसिद्ध पुस्तक अग्रवाल समुदाय से हुए महान लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र की “अग्रवालों की उत्पत्ति” है।

इसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने विस्तार से इनके बारे में बताया गया है। लेखक रवि प्रकाश रामपुर ने भी महाराजा अग्रसेन पर एक राष्ट्र एक जन पुस्तक लिखी जिसमे महालक्ष्मी जी की व्रत कथा को हिंदी के अक्षरों में संजोया गया है।

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