कबीर। समाजिक पाखंडों के आलोचक थे अनोखे धर्म निरपेक्ष संत व निर्भय कवि कबीर।
यदि कबीर सौभाग्य से आज के दौर में जीवित होते तो ये उनका दुर्भाग्य बन जाता क्योंकि जिस विचाधारा के लोग आज के समय में है शायद ही वे कबीर को बर्दाश्त कर पाते। कबीर निर्भय होकर सत्य बोलते थे जो आज के समय में किसी को गवारा नहीं है।
“कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लियो बनाय,,
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे का बहिरा भया खुदाय”
कबीर हिंदी साहित्य का वो नाम है जिसने अपने पद व् दोहों के ज़रिये सामाज में अंधविश्वास,कुरीतियों, बुराइयों एवं धर्म ठेकेदारों की खूब आलोचना की है. कबीर भक्ति-काल युग के निर्गुण शाखा के महान एवं निर्भय कवियों में एक है। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया।
“बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥”
कहा जाता है कि महात्मा कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरुप अज्ञान के अँधेरे से जूझ रहा था। एक तरफ तो मुसलमान शासकों की बर्बरता बढ़ती जा रही थी तो दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों ,पाखंडों एवं ढोंगियों से धर्म- बल का नाश हो रहा था आम लोगों के बीच भक्ति- भावनाओं से हटके पाखंडी प्रचार हो रहा था।
ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल धनी और साहूकारों के बगीचों की सिर्फ शोभा बढ़ा रहे थे। ऐसे नाजुक समय में समाज को एक बड़े ज्ञानी और निरपेक्ष युगद्रष्टा की ज़रुरत थी जो राम और रहीम के नाम पर लड़ने वालों को सत्य की राह दिखा सके, ऐसे ही संघर्ष के समय में जन्म हुआ “श्री भक्त कबीर जी” का जिन्होंने इस धरा को प्रेम एवं सत्य का मार्ग दिखाया। वे कहते है कि
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय”।
जीवन परिचय-
कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। कबीर का जन्म लगभग 14वी-15वी शताबदी के बीच माना गया है इनके जन्मस्थान को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है। लेकिन अधिकतर विद्वान इनका जन्म काशी में ही मानते हैं क्योकिं इसकी पुष्टि स्वयं कबीर के पदों में दिखाई देती है।
“भक्ति- सुधा- बिंदु- स्वाद” के द्वारा इनका जन्म-काल संवत् 1451 से संवत् 1552 के बीच माना गया है। वे जन्म से किस धर्म से थे इसमें भी मत है क्योकिं अधिकतर जानकारों का मानना है कि विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, एक प्रकाश रुप में कबीर को “लहर तारा” तालाब में एक कमल- पुष्प पर पाया गया था।
इनके माता- पिता के विषय में भी कोई ठोस प्रमाण नहीं है कुछ लोगों का मानना है कि “नीमा’ और “नीरु’ नामक जुलाहा दम्पति के घर कबीर ने जन्म लिया तो कुछ कहते है कि ये लहर-तालाब के समीप नीमा और नीरु को मिले थे। लेकिन इतना स्पष्ट है कि इनका भरण पोषण नीमा और नीरु जुलाहों ने ही किया था। कबीर कहते है
“जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।’
कहते है कि कबीर पढ़े लिखे नहीं थे उनके नाम पर जो भी ग्रंथ आज देखने को मिलते वे उन्होंने स्वयं नहीं लिखे है कबीर सिर्फ अपने दोहों को गाया करते थे और उनके शिष्य उनको कलमबद्ध किया करते थे। वे कहते थे
“मसि कागद छूवो नहीं,कलम गही नहि हाथ”
इनके समस्त विचारों में रामनाम की महिमा देखने को मिलती है। कबीर एक ही ईश्वर के अनुयायी थे इन्हे धर्म के ठेकेदारों और पाखंडियों से भरपूर घृणा थी। हिन्दू हो चाहे मुसलमान कबीर दोनों के खिलाफ थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।
कहते है कि उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
ऐसे ही दोहे वे अक्सर गाया करते थे। कोई किस धर्म का था कबीर को इस से क्या ? वे तो सच बोलने के आदि थे , अपनी बात निर्भय होकर समाज के सामने कहान उन्हे खूब आता था।
एक जुलाहा होकर उस समय “सनातन धर्म” की राजधानी “काशी” में निर्भय होकर हिन्दू पंडितों को कहना कि “पांडे तुम निपुण कसाई” उनकी निडरता और और साहस को सीधे रूप से दर्शाता है। युवा कबीर मौका पाकर इस्लाम धर्म के मौलवियों तक से उलझ जाते और भारी लफ़्ज़ों में कहते
“कहत कबीर सुनो रे भोंदू ,
बोलन हरा तुर्क न हिन्दू।”
इतना निडर स्वभाव कुछ तो उनमे बचपन से था और कुछ गुरु की महिमा का चमत्कार था। कहते है कि जिस समय कबीर की वाणियां काशी ने हड़कंप मचा रही थी उस समय स्वामी रामानंद जी की बड़ी पूज थी। कबीर अपनी वाणी में कहते है कि
“काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये”
वही दूसरी और कुछ ज्ञानी लोगों का मानना है कि कबीर निगुरा थे यानी उनका कोई गुरु था ही नहीं क्योकि अपनी वाणी में संत कबीर ये भी कहते है कि “आपे गुरु ,आपे चेला” अर्थात वे स्वयं ही गुरु है और चेला भी स्वयं ही है।
कबीर के विषय में रुचि रखने वालों का कथन है कि कबीर ने कभी भी शरीर को गुरु नहीं कहा है वे कहते है कि “ये सब गुरु है हद के, बेहद के गुरु नाही , बेहद अपने आप ही उपजे अनुभव के घर माहि “. अर्थात अनुभव ही सबसे बडा गुरु है क्योकि अनुभवों से ही व्यक्ति सब कुछ सीखता है।
कुछ मुस्लिम समुदाय के गुणी जन कबीर को पीताम्बर पीर का चेला मानते है क्योकि मान्यता ही कि कबीर उनकी कुटिया में सत्संग करने जाया करते थे कुछ उनको शेख तकि का शिष्य बताते है।
बहरहाल जो भी हो इतना तो साफ़ है कि कबीर को शब्दों का ज्ञान बिलकुल नहीं था। वे जो भी सही या गलत देखते बेबाक अपने शब्दों से कह डालते
“मैं कहता आखँ की देखी तू कहता कागद की लेखी ,
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे।”
उनका मानना था कि हर मनुष्य को ईश्वर को मानने का अधिकार है उसके लिए ब्राह्मण , मुसलमान हिन्दू,बौद्ध का होना ज़रूरी नहीं है हम सबको बनाने वाला एक ही है और उसी में एक दिन हम विलीन होने वाले है अगर हम अपने इंसान जन्म में प्रभु में भेद करते रहे तो ये जन्म व्यर्थ हो भी जायेगा।
“यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥”
“आईना ए अकबरी” के अनुसार कबीर ने गांव गांव घूम कर लोगों में ज्ञान बांटने की भरपूर कोशिश की। इनको दिल्ली के शासक सिकंदर लोदी के शासन काल माना जाता है।
कहते है कि उस समय जाने मौलवी शेख तकि ने सिकंदर लोदी के कानों में कबीर के खिलाफ ऐसा ज़हर घोला कि बादशाह सलामत ने उन्हे दरबार में बुला लिया कबीर को सुबह बुलाया गया लेकिन वे हिन्दू के भेष में शाम को पहुंचे, शेख ने उन्हे देखते ही खुद को पीर और उनके लिए काफिर जैसे शब्दों का प्रयोग किया.कबीर का जवाब अति सूंदर था उन्होंने कहा कि
“कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानही, सो काफिर बेपीर।।
कथाओं के मुताबिक कबीर के ऐसे ही जवाबों ने बादशाह का दिल जीत लिया और बादशाह ने भी उन्हे आज़ाद कर दिया लेकिंन कुछ कथाएँ कहती है कि बादशाह ने उन्हे बहुत सी यातनाएं दी और जब वे सफल ना हो सका तो उसने कबीर को मुक्त कर दिया.
कहा जाता है कि भारत में दलित समाज और दबे कुचले लोगों की कबीर पहली आवाज़ बनकर सामने आये थे.कबीर जाति और धर्म के की दीवारों को गिराना चाहते थे अंधविश्वास को मिटाना चाहते थे.उच्च वर्ग के लोगों और पाखंडियों ने मिलकर इन्हे समाप्त भी करना चाहा लेकिन वे सफल नहीं हुए.
“कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥”
विवाह या ब्रम्हचारी-
कहा जाता है कि कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या “लोई’ के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।
“बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।”
जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
“कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।’
यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है :-
“नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।”
कबीर विवाहित थे या नहीं इसमें भी मतभेद है लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि वे शायद पहले संत होंगे हमारे समाज में जिसने धर्म निरपेक्ष समाज की परिकल्पना की और निर्भय होकर निर्गुण भक्ति को अपनाया।
मृत्यु, मोक्ष और कबीर-
समाज को ज्ञान और पेमेश्वर के रूप से रूबरू करवाने वाले संत कबीर अपने आखिर के दिनों में धार्मिक स्थान काशी को छोड़कर मगहर चले गए थे . उस समय हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों में मान्यता थी कि काशी में प्राण त्यागने से मोक्ष की प्राप्ति होती है.
कबीर को जब लगा कि वे अब किसी भी समय संसार से विदा ले सकते है तो उन्होंने मगहर जाने का निर्णय कर लिया शायद वे दुनिया को समझना चाहते थे कि मोक्ष केवल कर्मों से प्राप्त हो सकता है. वे कहते है कि
“जो काशी तन तजे कबीरा ,तो रहिमन कोन निहोरा”
एक प्राचीन कथा के अनुसार जब कबीर परलोक सिधार गए तो हिन्दू और मुसलमानों में हंगामा होने लगा था . हिन्दू कबीर के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार अपने धर्म के अनुसार करना चाहते थे तो मुस्लिम अपने अनुसार क्योकिं दोनों ही समुदाय के लोग कबीर के चाहने वाले बन गए थे.
माना जाता है कि कबीर के घर के बाहर ये सब हंगामा चल ही रहा था कि किसी ने उनके कमरे में जाकर देखा कि उनके पार्थिव शरीर की जगह सुगंधित पुष्पों ने ली थी जो बाद में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लोगों ने आपस में बाँट लिए और मगहर में कबीर के निवास स्थान की जगह बना दी एक मस्जिद और मंदिर.
भारत के इतिहास में ना कबीर से पहले ऐसा कुछ देखने को मिला था न ही कबीर के बाद। यदि कबीर सौभाग्य से आज के दौर में जीवित होते तो ये उनका दुर्भाग्य बन जाता क्योंकि जिस विचाधारा के लोग आज के समय में है शायद ही वे कबीर को बर्दाश्त कर पाते। क्योंकि कबीर निर्भय होकर सत्य बोलते थे जो आज के समय में किसी को गवारा नहीं है।
बहरहाल आज कबीर भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके पद,उनके दोहे उनके विचारों का रूप लेकर हमारे साथ है वे कहते थे की समय आने पर हर कार्य हो जाता है अगर मेहनत सच्चे दिल से की जाये।
“धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय,,
माली सींचे सौ घड़ा ऋतू आये फल होय।”