राज्य सरकार का आचरण कोई निष्पक्षता और पारदर्शिता का नहीं बल्कि पिक एंड चूज़ का है-पूर्व सांसद लवली आनंद,चेतन आनंद विधायक
जानकारी हो कि शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन 3 दिसंबर 21 को बिहार के विभिन्न जेलों में उम्र कैद की सजा काट रहे सैकड़ों की संख्या में निरुद्ध बंदियों को अपनी निर्धारित सजा 14 वर्ष पूरी कर लेने के बाद भी छोड़ा नहीं जा रहा । इस मामले में राज्य सरकार का आचरण कोई निष्पक्षता और पारदर्शिता का नहीं बल्कि पिक एंड चूज़ का है। राजनीतिक नफा-नुकसान पर आधारित है,जो नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध है।
सेक्शन 432 (CRPC ) और सेक्शन 55( IPC ) राज्य सरकार को परिहार देने का अधिकार देती है। इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिनांक 3 अगस्त 2021 को ये कहता है कि 14 साल पूरा कर चुके उम्र कैद के कैदियों को सरकार रिहा करें।
फरवरी 3 -2021 को जस्टिस कौल और जस्टिस रॉय के बेंच से सुप्रीम कोर्ट का आदेश दिया गया कि आजीवन कारावास की सजा पाए गए कैदियों को परिहार का अधिकार है और सभी राज्य सरकार को यह आदेश जारी किया गया कि टाइम लाइन तय करके कैदियों को छोड़ा जाए।
लगातार कोरोना से पूर्व और कोरोना के बाद ऐसे अनेकों आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजे गए उदहारण के तौर पर दिनांक 7 जुलाई 2021 सुप्रीम कोर्ट ने बिहार ,UP और छत्तीसगढ़ को उम्र कैद वाले कैदियों के रिहाई का निर्देश दिया,परन्तु बिहार में ऐसा नहीं होने से सैकड़ों की संख्या में आज ऐसे कैदी जेलों में निरुद्ध हैं , जो अपनी निर्धारित सजा 14 वर्ष पूरी कर चुके हैं और समय पर ‘राज्य परिहार बोर्ड’ की बैठक नहीं करने के वजह से वे सभी इस अधिकार से वंचित हैं।
यहां बात सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की ही नहीं, दिनांक 7 मार्च 2017 को बिहार में ही पटना हाई कोर्ट के जस्टिस नवनीति प्रसाद सिंह एवं जस्टिस विकाश जैन की बेंच ने रवि प्रताप मिश्रा vs स्टेट ऑफ बिहार के केस में सरकार को यह आदेश दिया कि -“चाहे जुर्म कितना भी जघन्य क्यों न हो, कैदी को उसके परिहार के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता।” इस विषय पर लगातार पिछले कुछ सालों में अनेको हाई कोर्ट ने विभिन्न राज्यों में फैसला सुनाया और सैंकड़ों की संख्या में विभिन्न राज्य सरकारों ने कैदियों को परिहार दे, मुक्त भी किया है।
हमारे बिहार में सबसे बड़ी कमी इस बात की है कि ‘दिल्ली मॉडल’ के हिसाब से यहाँ पारदर्शिता नहीं है। ना वेबसाइट से, ना किसी और तरीके से परिहार पाने वाले या परिहार से वंचित लोगो की सूची, चाहे आम आदमी हो या खास आदमी, किसी को भी उपलब्ध नहीं हो पाती। यह मैं नहीं कहता, ये सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है और बिहार में जिसका सरे आम उलंघन हो रहा है।
भारत का संविधान का आर्टिकल 21 ‘राइट टू लाइफ’ की बात करता है और “ह्यूमैन राइट कमीशन” कैदियों को भी उतना ही अधिकार देने की बात करता है जितना किसी आम व्यक्ति को होता है।
ऐसे कैदियों को, जिन्हें उम्र कैद की सजा मिली हो, उन्हें परिहार नहीं मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है और सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है परिहार नही मिलना एक ” human rights issue” है। यह बात Justice S.K. Kaul के बेंच ने फरवरी 2021 को सरोधर vs स्टेट ऑफ छतीसगढ़ में कही थी।
आज बिहार के अधिकतर जिलों में क्षमता से अधिक कैदी मौजूद है। यहाँ के सभी 60 जेलों में मिलाकर करके करीब 47 हजार कैदियों को रखने की क्षमता है । परंतु यहाँ क्षमता से 20से25 % अधिक कैदियों को रखा जा रहा है ( यानी लगभग 60,000)
इसे देखते हुए ऑनरेवुल सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया था कि जिनकी सजा लगभग पूरी हो चुकी है, ऐसे सभी कैदियों को समय से पूर्व निकालना सुनिश्चित किया जाए। कारण जेलों में ज्यादा संख्या में कैदी रखना भी human rights violation है।
यह संविधान के आर्टिकल 21 के खिलाफ जाता है क्योंकि आर्टिकल 21 ‘Right to Life with dignity’ की बात करता है। देशभर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के आलोक में भले ही कार्रवाई हुई पर बिहार में जानबूझ ऐसा नहीं किया गया।
कानून स्पष्ट तौर पर कहता है कि 14 वर्ष पूरे होने के पहले ही किसी भी कैदी के ‘परिहार’ की सारी प्रक्रिया पूरी करा ली जाए । यही कारण है कि दिल्ली की मशहूर घटना जेसिका लाल मर्डर केस के मुख्य मुजरिम को समय पूर्व रिहा कर दिया गया और दिल्ली सरकार ने साढ़े 13 वर्षों में ही परिहार की सारी प्रक्रियाएं पूरी कर ली । परन्तु बिहार में राज्य सरकार के लापरवाही कि वजह से अनेकों ऐसे बंदी जो अपनी निर्धारित सजा अवधि 14 वर्ष पूरी कर लेने और अच्छे आचरण के बावजूद परिहार कि प्रक्रिया में अड़ंगा लगाए जाने की वजह से विभिन्न जेलों में सड़ रहे हैं। उदाहरण पूर्व सांसद ,साहित्यकार श्री आनंद मोहन जी की विलंबित रिहाई का वर्तमान मामला है।
लेकिन यह एक मात्र केस नही, ऐसे अनेकों लोग हैं जिन्हें अपने अधिकारों की जानकारी के अभाव में बेवजह जेलों में बन्द रहना पड़ रहा है।
पूरे देश में ऐसे दर्जनों उदाहरण है जिसमे सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और विभिन्न राज्य सरकारों ने स्वयं अनेकों लोगों को 14 साल की सजा अवधि पूरी हो जाने पर निकाला है। खास तौर पर वैश्विक महामारी कोरोना के मद्देनज़र ।
भारत का संविधान और न्यायिक प्रणाली इस नींव पर आधारित है कि जस्टिस Reformative हो और Punitive नही..यानी कि हमारा ज्यूडिशियल सिस्टम यह मानता है की न्याय सुधारात्मक हो दंडात्मक नहीं।
यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि दिल्ली, हिमाचल, पंजाब, महाराष्ट्र , तेलांगना जैसे कई प्रांतों में जहां सजायाफ्ता बंदियों को हर तीन महीने पर नियमित 15 दिनों का ‘फर्लो’ का प्रावधान है, वहीं वर्ष में एक बार 21 दिनों के ‘पेरोल’ का भी नियम है। पर बिहार में अपनी या वृद्ध मां -पिता की बीमारी, परिजनों की मौत और लड़का-लड़की शादी तक में कोई नियमितता नहीं है। यही कारण है कि कई बार मांगने के बाद भी मेरे पिता जी को साढ़े 14वर्षो के अंतराल में कभी ‘पेरोल’ नहीं मिला ।यह सरकार की मंशा को दर्शाने के लिए काफी है।
बिहार के प्रभारी गृह मंत्री श्री विजेंद्र प्र.यादव ने आनंद मोहन जी को लेकर सदन में जो वक्तव्य दिया है वह भ्रामक और गुमराह करने वाला है। कारण 2012 में लाया गया कोई ‘एमेनमेंट’ या जेल मैनुअल 2007 में सजाप्राप्त बंदी पर लागू नहीं होता ।
हम इसके खिलाफ कोर्ट तो जाएंगे ही साथ ही यह भी बता दें कि जनतंत्र में जनता की अदालत सबसे बड़ी अदालत है और हम इसे जनता की अदालत में भी मजबूती से उठाएंगे और पूरे मामले देश व्यापी मुहिम का हिस्सा बनाएंगे।