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अभी तक के हुए किसान आन्दोलन  पर एक नजर: ज्ञानेन्द्र पाण्डेय 

देश की आजादी से लेकर हरित क्रांति तक में महत्वपूर्ण योगदान रहा है किसान आन्दोलनों का 

किसान आन्दोलन की जब भी बात होती है हम आदतन समय – समय पर देश की राजधानी  दिल्ली के आसपास होने वाले किसान आन्दोलनों के सन्दर्भ में विश्लेषण की शुरुआत कर इस विश्लेषण को यहीं पर समाप्त भी कर देते हैं लेकिन जब हम व्यापक धरातल पर इसकी पड़ताल करते हैं तब मालूम होता है कि सिर्फ दिल्ली और इसके आसपास के पंजाब , हरियाणा , पश्चिमी उत्तर प्रदेश , राजस्थान और मध्य प्रदेश राज्यों के किसान ही नहीं बल्कि देश के दूसरे राज्यों के किसानों का भी कृषि के माध्यम से देश की अर्थ व्यवस्था को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है और किसानों के इस योगदान का सिलसिला भी महज चार – पांच दशक पुराना ही नहीं है बल्कि देश की आजादी से कई दशक पहले से इस देश के किसान इस लिहाज से सकारात्मक भूमिका में ही रहे हैं।

आम तौर पर हमारा किसान संतोषी और शांतिप्रिय स्वभाव का होता है। गर्मी , सर्दी बारिश की परवाह किये बिना मौसम के हर तरह के थपेड़ों को सहन करते हुए देश के लिए अन्न उगाता है और फल सब्जी का इंतजाम भी करता है। इस काम में उसे मेहनत  भी बहुत करनी पड़ती है लेकिन किसान किसी से शिकायत नहीं करता अपना काम करते रहता है। पर कई बार ऐसा भी होता है जब सरकार की तरफ से उसे नीति संबंधी मदद नहीं मिल पाती जिनके चलते उसे बीज से लेकर खाद , पानी , बिजली तथा दूसरी सुविधाएं या तो समय पर नहीं मिल पाती या फिर ये सुविधाएं इतनी महंगी हो जाती हैं कि उसके लिए उत्पादन लागत और कृषि उप्पादों के बाजार भाव के बीच संतुलन स्थापित करने में इतनी दिक्कत आ जाती है कि उसे अपनी फसल बाजार में ले जा कर बेचने के स्थान पर खेत में ही सडाने को मजबूर हो जाना पड़ता है क्योंकि बाजार में उसे जो भाव मिलता है उससे लागत तो दूर फसल को खेत से बाजार तक ले जाने का खर्चा भी पूरा नहीं होता।

GYANENDRA PANDEY POST  ON  THEJANMAT
ज्ञानेन्द्र पाण्डेय  जी

हाल के दिनों में ही ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले जब किसानों को बड़े पैमाने पर अपनी गोभी की फसल खेतों में ही नष्ट करनी पडी थी। मजेदार बात यह है कि ऐसे हालात आने पर किसान को तो गोभी की कीमत एक रुपये प्रति किलो से अधिक नहीं मिलती लेकिन उपभोक्ता को भी बीस रुपये प्रति किलो की दर से गोभी जैसे पदार्थ उपलभध नहीं हो पाते। सवाल ये है कि एक रूपया प्रति किलो की खरीद और बीस रुपये प्रति किलो की बिक्री के बीच का जो फर्क है उसका फायदा केवल व्यापारी वर्ग को ही मिलता है।
 

जब – जब इस तरह की स्थितियां आती हैं तब – तब किसान अपने हकों के लिए खड़ा होता है तो उसे किसान आन्दोलन नाम दे दिया जाता है। ऐसा ही कुछ आजकल भी हो रहा है।

केंद्र सरकार द्वारा हाल में लागू किये गए कृषि बिलों की वजह से देश का किसान खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है और उसने आन्दोलन की राह पकड़ ली है। मौजूदा किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में एक नजर अब तक के प्रमुख किसान आन्दोलनों पर डालना प्रासंगिक होगा ..इस सन्दर्भ में अगर पिछले तीन – चार दशक के दौरान आयोजित किये गए किसान आन्दोलनों की जब चर्चा होती है तक एक नाम सबसे पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का ही सामने आता है। 32साल पहले दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ और उसके एक साल बाद दिल्ली के बोट क्लब मैदान में उनके नेतृत्व में हजारों किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में कई दिन तक जो डेरा जमाया था उसे आज भी एक मिसाल ही कहा जाता है।

महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों को अपने हकों के लिए लड़ने का जो जज्बा दिया उसके चलते उन्हें किसानों का मसीहा भी कहा जाता है। आज भी दिल्ली की सीमा पर जो किसान अपनी मांगों के लिए जमे हुए हैं उसके पीछे भी कहीं न कहीं महेंद्र सिंह टिकैत की ही प्रेरणा है।

महेंद्र सिंह टिकैत को किसानों का ‘दूसरा मसीहा’ यूं ही नहीं कहा जाता था, उनकी एक अवाज पर पर लाखों किसान अपनी लट्ठ के साथ तैयार रहते थे। आज से 32 साल पहले यानी साल 1988 में अपनी 35 मांगों के साथ किसान दिल्ली की तरफ कूच कर रहे थे। उन मांगों में सिचाई की दरें घटाने से लेकर फलस की उचित मूल्य को लेकर भी मांग रखी गई थी। इस भीड़ को रोकने के लिए पुलिस की तरफ से भायरिंग की गई जिसमें दो किसानों की मौत भी हो गई थी। किसानों की मांग पर इस तरह की कार्रवाई से पुलिस की काफी फजीहत भी हुई थी। मगर फिर भी सरकार किसानों के जुनून को नहीं रोक पाई। अंत में सरकार को किसानों की मांगो को मानना पड़ा जिसके कारण इस कृषि आंदोलन को विराम दिया जा सका। इसके बाद ही राजस्थान के जाट और गुर्जर किसानों ने आन्दोलन किया था लेकिन उनका आन्दोलन कृषि से जुड़े मसलों को लेकर नहीं बल्कि अपनी बिरादरी को आरक्षण देने की मांग को लेकर ज्यादा मुखेर था इसलिए उसे राजनीतिक आन्दोलन तो कह सकते हैं लेकिन किसान आन्दोलन नहीं।
 
भारतीय इतिहास में  करीब आधा दर्जन किसान आन्दोलन ऐसे हुए हैं जिनकी वजह से न केवल किसानों की मांगों को धार मिली बल्कि देश की आजादी के आन्दोलन में भी इनकी भूमिका निर्णायक रही है ऐसे ही आन्दोलन में एक दक्कन का विद्रोह भी है। गौरतलब बात यह है कि यह एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा वरन देश के विभिन्न भागों में फलाफूला। यह आग दक्षिण में भी लगी, क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई। इसी तरह उत्तर प्रदेश में 1918 का किसान आन्दोलन भी महत्वपूर्ण माना जाता है।

होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा निर्देशन के परिणामस्वरूप फरवरी, सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में ‘किसान सभा’ का गठन किया गया। सन् 1919 के अं‍तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने ‘एका आंदोलन’ नामक आंदोलन चलाया। इसी कड़ी में केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में विद्रोह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आंदोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में ‘अली मुसलियार‘ चर्चित थे। सन् 1920 में इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया और शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया।

1872 में कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज़ सरकार से लड़ने के लिए किये गए कूका विद्रोह की भी बड़ी भूमिका है। इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। सन् 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हें कैद कर रंगून (अब यांगून) भेज दिया गया, जहां पर सन् 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।

इसी तरह महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।1914 में बिहार में तानाजी भगत ने एक किसान आन्दोलन की इस आन्दोलन की शुरुआत की थी । यह आन्दोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक ‘जतरा भगत’ थे, जो कि इस आन्दोलन से सम्बद्ध थे।

‘मुण्डा आन्दोलन‘ की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद ‘ताना भगत आन्दोलन’ शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आन्दोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए ‘पंथ’ के निर्माण का आन्दोलन था। इस मायने में यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे। 1946 का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने ‘फ्लाइड कमीशन’ की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था।

बंगाल का ‘तेभागा आंदोलन’ फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था। यह बंगाल के 28 में से 15 जिलोंमें फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। ‘किसान सभा’ के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।
 
आंध्रप्रदेश में यह आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू किया गया था। सन् 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलन से अलग था। अब किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश मांगें आर्थिक होती थीं। किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।

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