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राष्ट्रीय विवेक की अभिव्यक्ति: पूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर

भारत के कृषि क्षेत्र की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय है। भारतीय कृषि का मौजूदा आर्थिक और सामाजिक ढांचा किसानों के हित में पहल को बढ़ावा देने की अपेक्षा उसे हतोत्साहित करता है। भारत की संसद और राज्य विधानसभाओं में अधिकांश जनप्रतिनिधि या तो स्वयं जमींदार और साहूकार हैं अथवा उन्हीं के हितों को मुखरित करने वाले हैं

कभी लार्ड माले ने गाँधी जी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले का मूल्यांकन करते हुए कहा था कि – “उनका मस्तिष्क एक राजनीतिज्ञ का मस्तिष्क है उनमें शासन के उत्तरदायित्व की भावना व्याप्त थी।”

श्री चन्द्रशेखर मूलतः एक राजनीतिज्ञ थे। एक राजनीतिज्ञ के राजनीतिक मस्तिष्क की असली परीक्षा संसद में होती है। संसद ही राजनीति का अखाड़ा है। मैं जब श्री चन्द्रशेखर के राजनीतिक मस्तिष्क, राजनीतिक व्यक्तित्व की तलाश में निकलता हूँ तो मुझे संसद में उनके द्वारा दिए गए दो भाषण खास तौर से आकर्षित करते हैं।

पहला, बिल्कुल शुरुआत का किंतु परिपक्व 20, फरवरी 1963 को राज्यसभा में दिया गया भाषण और दूसरा 7 नवम्बर 1990 को लोकसभा में दिया गया भाषण। यहाँ विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि 1963 का भाषण, बलिया जैसे पिछड़े क्षेत्र से निकल सीधे भारत की संसद में पहुँचे एक 35 वर्षीय नौजवान का भाषण है जो उस संसद के उन सांसदों के सामने बोल रहा था, जो कमोबेश अभिजात्य पृष्ठभूमि से आये थे, जिनमें से अधिकांश ने अपनी शिक्षा विदेश में पूर्ण की थी, जिनमें से अधिकांश सदस्य स्वतंत्रता आंदोलन की आंच में तप के निकले थे। इस लिहाज से श्री चन्द्रशेखर का यह भाषण विशेष महत्व का है, खास तौर से तब जब हम आज सबाल्टर्न नजरिए से ‘परिधि की आवाज’ की बात करते हैं। इसी कारण मुझे उनका य़ह भाषण मुझे अति प्रिय है।

कभी-कभी मुझे अपरिपक्व विद्वान अथवा छिछले पत्रकारों की इस प्रकार की टिप्पणियां देखने को मिल जाती है कि चंद्रशेखर ने पूर्वांचल अथवा बलिया के विकास के लिए कोई कार्य नहीं किया।

इन पत्रकार और विद्वानों को श्री चंद्रशेखर का यह भाषण जरूर देखना और समझना चाहिए इससे उन्हें पता लगेगा कि चंद्रशेखर संसद में किन मुद्दों को उठा रहे थे और उनके क्या मानी थे। उनकी दृष्टि कहाँ तक जा रही थी, उनके वैचारिकी का ताना बाना क्या था। उनकी चिन्ताएँ किस प्रकार की थी।हमे उनके संबोधन में उठाए गए मुद्दों का क्रम और संबोधन का पैनापन भी देखना चाहिए। जो उनके आत्मविश्वास और प्राथमिकताओं को चिन्हित करता है।

श्री चन्द्रशेखर राष्ट्र की संसद में अपने इस भाषण के दौरान जो पहला मुद्दा उठाते हैं वह बलिया या बस्ती या पूर्वांचल के किसी सड़क, पुल या ट्रेन की माँग नहीं होती, वह मुद्दा होता है

1962 के भारत-चीन युद्द, उसमें भारत की हार, सरकार की नाकामी, राष्ट्रीय शर्म का मुद्दा, अंतर्राष्ट्रीय राजनय में सरकार की असफलता आदि।

इस मुद्दे पर श्री चन्द्रशेखर अत्यंत धारदार और तर्कपूर्ण ढंग से सम्बोधित करते हुए पहले राज्य नामक संस्था के गठन और उसके उद्देश्यों की चर्चा करते हैं. वे बताते है कि राज्य का गठन ही सुरक्षा के लिए हुआ था, सुरक्षा, सभ्यता और शांति के प्रचार के पहले आती है. वे कहते हैं कि –

“मुझे यह कहते हुए बहुत दुःख होता है कि मैंने कई बार इस सभा में सुना है कि हम चीन के विरुद्ध युद्ध के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर सके, क्योंकि हम अवसंरचना निर्माण में व्यस्त थे। हम चीन से युद्ध नहीं कर सके क्योंकि हम स्वयं को निरक्षरता, गरीबी और भुखमरी से ऊपर उठाना चाहते थे। … सम्पूर्ण विश्व में यह अत्यंत गर्व के साथ कहा जाता है कि हम शांतिप्रिय राष्ट्र हैं, हम महात्मा गांधी के देश से संबंध रखते हैं। हम सभ्य राष्ट्र हैं। मैं आपको बताना चाहूँगा कि राज्य और सरकार का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य राष्ट्र को सुरक्षा प्रदान करना है और यदि सरकार ऐसा करने में विफल रहती है तो वह सरकार विश्व में सभ्यता और शांति का प्रचार नहीं कर सकती। सुरक्षा, सभ्यता और शांति के प्रचार से पहले आती है।”

राजनीति शास्त्र की प्रारम्भिक समझ रखने वाले, राज्य उत्पति के सिद्धांत को एक नजर भी देखे हुए शख्स के लिए यह समझना बहुत आसान है कि श्री चन्द्रशेखर के तर्क की विचार भूमि क्या थी..

चीन के हमले को अप्रत्याशित बताने के सरकार के तर्क पर जो ये कह रही थी कि ‘कोई देश जिससे हम मित्रता करना चाहते हैं, हम पर हमला कैसे कर सकता है? इस बात कि आशा न थी।’

सरकार के प्रस्तुत तर्क पर चन्द्रशेखर जी तीन तथ्य रखते हैं –

1- वे बताते है कि नवम्बर 1957 में उन्हों ने मुख्यमंत्री संपूर्णानंद न को पत्र लिखा था कि चीनी लोग तकलाकोट में एकत्रित हो रहे है तो उस पत्र का संज्ञान क्यों नहीं लिया गया?

2- सरकार तब क्यों नहीं सचेत हुई जब चीन के ‘पीपुल्स डेली’ ने 1959 में एक लेख प्रकाशित किया – ”रिवॉल्यूशन इन तिब्बत एंड नेहरू फिलासफी’ और उसमें नेहरू जी को एक ‘साम्राज्यवादी एजेंट’ कहा।

3- 1960 में जब चीनी अखबार ‘रेड फ्लैग’ ने अपने लेख में कह दिया कि युद्द अनिवार्य है तब भी सरकार ने इस पर क्यों ध्यान नहीं दिया।

इसके पश्चात वे उपयुक्त उद्धरणों, तर्कों, साक्ष्यों के द्वारा सरकार की तिब्बत नीति, गुटनिरपेक्षता के रवैये, कम्युनिस्ट पार्टी के नीतियों की आलोचना करते हैं, वह भी पूरे दमखम से। मैं फिर आपको यह याद दिलाना उचित समझता हूं कि संसद में यह दमखम दिखाने वाला युवक हाल में ही पूर्व के ऑक्सफोर्ड इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकला 35 साल का ‘बलियाटिक’ युवक है जिसकी प्रतिभा और प्रखरता संसद देख रही थी, नेहरू जी देख रहे थे।

राज्यसभा में इस मुद्दे के बाद श्री चन्द्रशेखर द्वारा जो दूसरा मुद्दा उठाया गया वह भूमि सुधारों से संबंधित था, वे भूमि सुधार की तत्काल आवश्यकता को इंगित करते है। वे राष्ट्रीय नमूना प्रतिदर्श (NSSO) के आंकड़ों का सहारा लेते हुए बोलते है कि – ” “हमारे देश में 75 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो कि या तो भूमिहीन हैं या उनके पास एक एकड़ से कम भूमि है। यह पूरे भारत की तस्वीर है जो इस सरकार द्वारा गत पन्द्रह वर्षों के द्वारा की गई आश्चर्यजनक प्रगति को दर्शाता है। इस देश की 45 प्रतिशत किसानों की जनसंख्या की कुल भूमि में हिस्सेदारी केवल एक प्रतिशत है। 30 प्रतिशत लोगों के पास 15.6 प्रतिशत भूमि है 12.5 प्रतिशत लोगों के पास 17.34 प्रतिशत भूमि है। 11.54 प्रतिशत लोगों के पास 46 प्रतिशत भूमि है और एक प्रतिशत लोगों के पास कुल भूमि का 20 प्रतिशत भाग है। इस देश में भूमि सुधारों की यह स्थिति है।

भूमि-सुधार सम्बंधी नीति संविधान में निर्धारित नीति निर्देशक तत्त्व के अनुच्छेद 39 के संदर्भ में बनाई गई है ।

इस अनुच्छेद में कहा गया है कि राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा परिणामस्वरूप समुदाय की सम्पत्ति का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार हो जिससे अधिकाधिक सामूहिक हित हो सके तथा अर्थव्यवस्था इस प्रकार संचालित हो जिससे उत्पादन-साधनों का केन्द्रीयकरण अहितकारी न हो सके ।

एक समता कारी समाज और देश के निर्माण के लिए उस वक्त तत्काल व्यापक भूमि सुधारों की आवश्यकता थी, श्री चन्द्रशेखर एक समाजवादी सोच वाले नेता थे ये मुद्दा उनकी प्राथमिकता में दूसरा स्थान पाता है, जो अपने कलेवर मे राष्ट्रीय चरित्र का है और स्वरूप में समाजवादी।

भूमि सुधारों के पश्चात जो मुद्दा श्री चन्द्रशेखर द्वारा उठाया गया वह कृषि और उसकी उत्पादकता से जुड़ा था। कृषि जो भारत के अधिकांश जनसंख्या के आमदनी का जरिया थी, कृषि जो गंगा के मैदानों में लगभग सभी घरों का केंद्रीय विषय था, कृषि जो एक राष्ट्रीय सरोकार था और उसकी उत्पादकता एक राष्ट्रीय चिंता। इस प्रश्न पर श्री चन्द्रशेखर सरकार को अपने इस भाषण में आगाह करते हैं और कहते हैं कि – “हमारे देश की सकल कृषि आय 1700 करोड़ रुपये है, जिसमें से तीन प्रतिशत लोगों की आय 462 करोड़ रुपए हैं अर्थात् 27 प्रतिशत हैं। हमारे देश में कृषि आय का बंटवारा इस तरह से है। ये मेरे आंकड़े नहीं हैं। ये आंकड़े के.एल. राजसाहब के हैं जो दिल्ली स्कूल आफ इकोनाॅमिक्स के निदेशक हैं”

वे विलियम जिनिंग्स को उद्धृत करते हुए कृषि और गाँव की महत्ता बताते है –

विलियम जेंनिग्स ब्रायन द्वारा अपने विख्यात भाषण ‘‘क्रास ऑफ गोल्ड’’ में यह चेतावनी दी गई थी। उन्होंने कहा था-

‘‘अपने शहरों को जला डालो और हमारे खेतों को छोड दो तो तुम्हारे शहर जादू की तरह दोबारा से समृद्ध हो जाएंगे। लेकिन अगर हमारे खेतों को नष्ट करोगे तो तुम्हारे शहरों की गलियों में घास की उगेगी।’’ विलियम जेंनिग्स

कृषि क्षेत्र की वर्तमान समस्या कहाँ पर है वह इसको भी श्री चन्द्रशेखर बताते है, वे तिबोर् मेंडे को कोट करते हैं और बोलते हैं –

‘‘भारत के कृषि क्षेत्र की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय है। भारतीय कृषि का मौजूदा आर्थिक और सामाजिक ढांचा किसानों के हित में पहल को बढ़ावा देने की अपेक्षा उसे हतोत्साहित करता है। भारत की संसद और राज्य विधानसभाओं में अधिकांश जनप्रतिनिधि या तो स्वयं जमींदार और साहूकार हैं अथवा उन्हीं के हितों को मुखरित करने वाले हैं।’’

कृषि और गांव की महता के साथ पंचायतीराज गाँधी दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण तत्व है. यह शक्तियों के विकेन्द्रीकरण के लिए अनिवार्य है. नेहरू जी इन संस्थाओं की ‘हजार गलतियों को माफ़’ करने के पक्षधर थे किंतु ये संस्थाएं उस समय कुछ आधारभूत समस्याओं से ग्रसित हो चुकी थी.

श्री चन्द्रशेखर अपने संबोधन में सामुदायिक विकास और पंचायती राज के समस्याओं पर सदन के मार्फत राष्ट्र का ध्यान खिंचते हैं. वे बताते हैं कि देश की पंचायती राज संस्थाओं में ऊँची जाति और साधन संपन्न वर्ग का प्रभुत्व स्थापित हो चुका है. अपने बात के समर्थन मे वे पंजाब में हुए एक सर्वेक्षण और मसूरी के संस्थान के निदेशक श्री एस. सी दुबे जी का सहारा लेते हैं –

“जिन लोगों की आय 300 रुपए से अधिक है, जो कि पंजाब की जनसंख्या का 12. 2 प्रतिशत हैं, उनके पास पंजाब की पंचायत समिति की 41.7 प्रतिशत सीटें हैं। 150 रुपए से कम आय वाले लोगों की संख्या 62.9 प्रतिशत है। लेकिन इन लोगों में से 26.3 प्रतिशत लोग ही पंचायतों में स्थान पाते हैं। यह स्थिति पंचायतों में है। सिर्फ यही नहीं अपितु मसूरी संस्थान के निदेशक डाॅ. एस.सीदुबे कहते हैं:-

‘‘इसका लगभग 70 प्रतिशत लाभ उच्च समूह और अधिक समृद्ध तथा प्रभावशाली किसानों को मिला।’’

श्री चन्द्रशेखर के इस संबोधन में अगला मुद्दा गन्ना किसानों का उठता है। यह वह मुद्दा है जो तब से लेकर आज तक यथावत है। हमेशा अखबारों के सफेद पन्ने इन ख़बरों से काले किए मिले है कि किसानों का इतने करोड़ रुपया चीनी मिलों पर बकाया या फ़लाना चीन मिल बंद। भारत के जिन इलाक़ों में सिंचाई की अच्छी सुविधा है वहाँ गन्ने की पैदावार अच्छी होती है क्योंकि ये एक ऐसी फसल है जिसे पानी की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, धान से भी ज्यादा।

श्री चन्द्रशेखर गन्ना किसानो का पक्ष रखते हुए सदन को सूचित करते है कि – ” सरकार पिछले चार सालों से यह कह रही है कि गन्ने और चीनी का उत्पादन बढ़ना चाहिए। अतः किसानों ने अधिक मात्रा में गन्ने का उत्पादन किया किन्तु दो वर्ष के बाद ही अतिरिक्त गन्ने को नष्ट करने के लिए कहा गया क्योंकि हम इसका प्रबंध नहीं कर सकते तथा इसका उपयोग सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है। खांडसारी और गुड़ के उद्योग को किसानों ने ही स्थापित किया है। इस वर्ष क्या हुआ? गन्ना कम मात्रा में बोया गया और इसके परिणामस्वरूप गन्ने का उत्पादन कम हुआ। अब किसान अपने गन्ने से खांडसारी बनाना चाहते हैं, जबकि सरकार किसानों को उनका गन्ना मिल मालिकों को देने का दबाव बनारही है। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या ऐसा इसलिए नहीं हो रहा है कि मिल मालिक संगठित हैं और वे सरकार पर दबाव बना रहे हैं।

उद्योगपति किसानों का अहित किस प्रकार कर रहे है इसको वे पूर्वांचल के किसानों के सिंचाई की समस्या के माध्यम से बताते है और उक्त भाषण में कहते है कि –

“रिहन्द बांध का निर्माण पूर्वी जिलों के गरीब लोगों को कृषि के लिए बिजली प्रदान करने के लिए किया गया है। उस बिजली का एक बड़ा भाग सस्ती दरों पर बिरला साहब को दिया जा रहा है.”

श्री चन्द्रशेखर इसके उपरांत उत्तर प्रदेश के में फैली चेचक की समस्या को उठाते हैं वे सरकारी नीति निर्माण की सुविचारिता पर प्रश्न खड़े करते हैं

“उत्तर प्रदेश में कई हजार लोग चेचक से मर चुके हैं। देश से चेचक को मिटाने का मुद्दा उठाया जा रहा है लेकिन क्या इसके लिए कोई सुविचारित कार्यक्रम बनाया गया है? एक टीकाकर्मी मलेरिया का पता लगाने के लिए खून की जांच के लिए आता है और टीकाकरण हेतु वह दोबारा तीन वर्ष के बाद वापिस आता है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि यह किस तरह की योजना है और यह किस प्रकार का स्वास्थ्य प्रबंधन है? टीकाकरण किसी विशेषज्ञ का कार्य नहीं है। जब एक व्यक्ति मलेरिया उन्मूलन के लिए डी.डी.टी. छिड़कने जाता है तो यदि उसके पास चेचक का टीका है तो वह साथ ही साथ टीका भी लगा सकता है, परन्तु इस प्रकार का कोई प्रबंध नहीं किया गया और आज हमारे देश के लोग चेचक से पीड़ित हैं औरसमय-समय पर हैजा फैल रहा है।”

और सबसे अंत में पूर्वी जिलों बलिया, गोरखपुर, गाजीपुर, जौनपुर, गोंडा, बस्ती आदि की भयावह गरीबी की समस्या का जिक्र करते है इस क्रम में वे नेहरू जी पर तंज भी कसते है कि उन्हें पता नहीं कि इन जिलों के लोगों की औसत मजदूरी दो आने से कम है जैसे ये जिले अभी पैदा हुए हो, इनकी खोज अभी अभी हुई हो। वे मांग करते है कि – “विशेषज्ञों के एक जांच दल को वहां जाना चाहिए। जो उस क्षेत्र की समस्याओं को समझेगा और पिछड़े तथा अभवग्रस्त क्षेत्रों के लिए एक अलग योजना तैयार करेगा।”

अब यहाँ पूर्वांचल अथवा बलिया के लोग इस बात पर नाराज हो सकते हैं कि चंद्रशेखर जी ने उनका मुद्दा सबसे अंत में उठाया तो यह ऐसे लोगों की कमअक्ली ही कही जाएगी क्योंकिं इस भाषण में ऐसा कौन सा मुद्दा है जो उनसे नहीं जुड़ा है। कुछ समय पहले इस लेख के लेखक को बलिया के डॉ समीम अहमद ने किस्सा सुनाया था उसे सुना दूँ शायद कुछ समझ में आये।

डॉ साहब का यह किस्सा कुछ यूं है कि –

सन 1986-87 में वे और उनके कुछ सगे-संबंधी बस से उर्स करने अजमेर शरीफ़ जा रहे थे। रास्ते में पंजाब के किसी छोटे से बाज़ार के एक ढ़ाबे पर उनकी बस रुकी। वे लोग बस से उतर कर चाय पीने चले गए। चाय बनके तैयार हुई इसी बीच दुकानदार ने इन लोगों की बोली के कारण इनसे पूछा कि ये लोग कहाँ से है? डॉ साहब ने जवाब दिया – बलिया से। इतना सुनना था कि उस दुकानदार (चाय वाले) ने इन लोगों के हाथ से चाय का कप छीन लिया। वह कप जो इन लोगों के हाथों में आ चुका था। जब इन लोगों ने इसका कारण चाय वाले से पूछा उसे अधिक पैसे चाय के एवज में देने की कोशिश की तो चाय वाले सरदार जी ने टका सा जवाब दिया कि-

‘मैं तुम बलिया वालों को चाय नहीं पिला सकता, तुम लोगों ने ही 1984 में चंद्रशेखर को हरा दिया था।’

डॉ साहब बताते है कि वह क्षण ऐसा था कि हमें शर्म और गर्व दोनों एक साथ आ रहे थे। गर्व इस कारण की इसने चंद्रशेखर जी के प्रेम के कारण हमें चाय नहीं दिया और शर्म इस कारण कि मैं उस बलिया का था जिसने चंद्रशेखर को हराया था।

लेखक प्रशांतबलिया
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