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किसानों की मौत का दस्तावेज है नई कृषि नीति?

नई कृषि नीति ना केवल किसानों की कमर तोड़ेगी बल्कि छोटे व्यापारियों सहित कृषि कार्य में लगे हुए भूमिहीन किसान और आने वाली पीढ़ी को गिरमिटिया मजदूर बना देगी

अब हम सब जान चुके हैं कि देश एक्ट आफ गॉड से चल रहा है गॉड की जुबान का संकलन एक लंबी प्रक्रिया में होता है।

गॉड का यह कथन सांसारिक नियमों को चलाने के लिए होता है यही नियम जब लिपिबद्ध होकर किताब के रूप में मूर्त रूप धारण करते हैं तब या तो वह जमीन पर नाजिल हो जाती है, और नहीं तो मनीषियों द्वारा अगले पीढ़ी को हस्तांतरित कर दिया जाता है।

दुनिया की जो भी धार्मिक सत्ता होती है उसके ज्ञान का स्रोत यही किताबें बनती है और वही से आम जनमानस जीव जंतु के लिए कानून बनाए जाते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि नई कृषि नीति भी एक्ट आफ गॉड है अब इसमें बेचारा मनुष्य जाति करें क्या ? भले ही वह प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री क्यों ना हो अब इस नीति में भगवान की इच्छा अगर किसानों की मौत है तो भला मनुष्य प्रेम से भरा हुआ प्रधानमंत्री का ह्रदय इस नीति को खारिज कैसे कर सकता है?

क्योंकि हमने ऊपर ही बताया है कि गॉड के विचार का संकलन और लिपिबद्ध होना एक लंबी प्रक्रिया है।

आइए देखते हैं की गॉड की इच्छा से नई कृषि नीति कब बननी शुरू हुई

2003 में भारत के कृषि नीति के संदर्भ में भगवान अर्थात विश्व बैंक में ने अपनी इच्छा प्रकट की कि भारत में छोटे जोत के कारण कृषि घाटे का सौदा हो गई है साथ ही प्रभु ने यह भी बताया कि कृषि और शिक्षा यह दोनों सेवा योग्य कार्य है।

इसका अर्थ यह है कि प्रभु कहना चाहते हैं कि कृषि और शिक्षा दोनों ही क्षेत्र निजी लोगों के लिए खोल देना चाहिए तत्कालीन समय में सनातनी परंपरा के ध्वजवाहक कवि हृदय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई प्रभु की शिक्षा का आदर करने के लिए नियम बनाने की कवायद शुरू कीए

लेकिन पर्याप्त संख्या बल ना होने के कारण सदन में यह नई कृषि नीति नहीं बन पाई और मामला ठंडे बस्ते में चला गया 2014 में प्रभु के सेवक के रूप में पूर्ण बहुमत के साथ देवदूत रूपी मनुष्य के रूप में प्रधानमंत्री पद भार ग्रहण किया श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी ने और तभी से कृषि नीति और भूमि अधिग्रहण बिल को संशोधित करने का दबाव प्रभु अर्थात विश्व बैंक और उससे जुड़े कारपोरेट घराने अपने सेवक के कंधों पर जोरदार तरीके से डालें।

प्रभु के सेवक श्री मोदी चाह कर भी भूमि अधिग्रहण कानून में कोई संशोधन नहीं कर पाए इस बात के लिए इन्होंने पिछले दरवाजे का सहारा लिया और नई कृषि नीति बना डाला।

जिसे मॉडल संविदा कृषि अधिनियम 2018 नाम दिया गया अपनी धाराओं और उपधाराओं से आच्छादित होकर 2020 में इस कानून ने मूर्त रूप धारण कर लिया।

इस कानूनी माया को समझने से पहले एक बात पर हमें आश्वस्त हो जाना चाहिए किस सदन के भीतर का जो विपक्ष है इस कानून पर उसकी चुप्पी से यह स्पष्ट है इस कानून से उसे कोई खास आपत्ती नहीं है।

इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता कि यह कानून सिर्फ अध्यादेश के जरिए लागू होगा या सदन के पटल पर रख कर और बहस के जरिए इसे कानूनी अमलीजामा पहनाया जाएगा क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है की थोड़ी बहुत नूरा कुश्ती के बाद इस कानून पर विपक्ष भी अपनी सहमति दे देगा।

इस कानून की पहली विशेषता यह है यह आवश्यक वस्तु अधिनियम को समाप्त कर दिया गया है इसके पीछे सरकारी दलील है कि किसान अपनी उपज का सही मूल्य प्राप्त नहीं कर पाता है, इसलिए यह आवश्यक है कि किसानों को यह छूट मिले कि अपनी उपज वह भंडारण कर सके, प्रसंस्करण कर सके, तथा दूसरे राज्यों में भी ले जाकर बेच सकें।

ऊपर से तो यह बात देखने में अच्छी लगती है लेकिन क्या अंदर से भी है इतना ही किसान की हितैषी नीति है?

पहली बात हम समझ ले आवश्यक वस्तु अधिनियम खत्म होने का अर्थ क्या है की अब कोई भी व्यक्ति चाहे वह कृषि कार्य में जुटा हो अथवा बाहर का खाद्य पदार्थों का भंडारण कर सकता है अगर साफ शब्दों में हम कहें तो इसका मतलब हुआ कि जमाखोरी कर सकता है चुकी भारत में 86% लघु और सीमांत किसान है और सरकार इस बात का रोना खुद ही रो रही है की छोटी जोत के कारण कृषि घाटे का सौदा है।

ऐसे में यह क्या यह संभव है कि कोई छोटा किसान अपनी उपज का भंडारण कर और दूसरे राज्य में बिक्री कर सकता है? फसल कटाई के बाद किसान के ऊपर पहला दबाव या होता है कि खेत में वह नई फसल की बुवाई करें उसके लिए उसे नगदी की आवश्यकता होती है जो सिर्फ अपनी उपज को बेच के ही प्राप्त कर सकता है अगर हम उसके घरेलू जिम्मेदारियों की बात मोदी करें तो भी उसे अपने कृषि ऋण को भरने, नए फसल की बुवाई के लिए पैसे की आवश्यकता होगी अगर इस गंभीरता को समझे तो क्या यह संभव है कि ऐसे में कोई किसान अपनी उपज को भंडारण में रख सकता है ताकि उसका मूल्य बढ़ा सकें?

इस बात से स्पष्ट है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम के समाप्ति से बिचौलियों की भूमिका बढ़ जाएगी और जमाखोरी के जरिए बिचौलिए कमोडिटी बाजार पर कब्जा करके बेतहाशा महंगाई को भी बढ़ा सकते हैं जिससे न सिर्फ किसानों की कमर टूटेगी बल्कि खाद्यान्न में मूल्य वृद्धि के कारण आम जनमानस की भी कमर टूट जाएगी।

इस नीति की दूसरी विशेषता यह है, की या मंडी परिषद सरकारी क्रय केंद्र पीसीएफ आदि का पूरी तरीके से सफाया कर देगी और किसान अपनी उपज को बेचने के लिए सिर्फ बिचौलियों पर निर्भर हो जाएगा।

विदित रहे 1970 से पहले देश में तीन बार खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुए

क्रय केंद्र , पीसीएफ सहकारी साधन समिति आदि के जरिए किसान अपनी उपज को सरकार को बेचता है विपरीत परिस्थितियों से बचने के लिए केंद्र सरकार के मातहत कार्य करने वाले फ़ूड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया के वेयरहाउस में इन खाद्यान्नों का भंडारण किया जाता है आवश्यकतानुसार इन खाद्य पदार्थों का सरकार आयात निर्यात करती है।

इन संस्थाओं के समाप्त होने से एफसीआई और किसान के बीच सिर्फ बिचौलिए की भूमिका बचेगी जो किसान की मजबूरी को देखते हुए मनमाने रेट पर खरीदारी करेगा और अपने पास उसका भंडारण करके मनमाने रेट पर सरकार को बेचेगा इससे खाद्यान्न संकट भी उत्पन्न होने की संभावना बरकरार रहेगी क्योंकि यदि बिचौलिए को या व्यापारियों को निर्यात में ज्यादा मुनाफा हासिल होगा तो वह बजाय केंद्र सरकार को बेचने के विदेशों को सप्लाई कर देंगे।

इस कानून की सबसे खतरनाक और तीसरी विशेषता कांट्रैक्ट फार्मिंग की है जैसा कि मैंने ऊपर ही बताया है विश्व बैंक का सुझाव था की छोटी जोत को सामूहिक मना कर बड़ी जोत में तब्दील कर और कांट्रेक्ट पर खेती कराई जाए।

इसका मतलब यह हुआ अब बड़ी कंपनी है किसानों से सीधे उनकी जमीन को 25 साल 30 साल 10 साल के लिज पर ले लेंगे इसके जरिए जो खेतों में मेढ़ बने होते हैं उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और वह एक बड़ी जोत में तब्दील हो जाएंगे ऊपर से तो देखने में बात अच्छी लगती है। लेकिन कृषि का अभी तक अनुभव या बताता है कि गन्ना किसानों को उनकी लागत मूल्य दो-दो वर्ष तक चीनी मिलों द्वारा रिटर्न नहीं किया जा रहा है मिलो तक गन्ना पहुंचाने के बाद भी अपना पैसा प्राप्त करने के लिए किसानों को आंदोलन का सहारा लेना पड़ता है ऐसे में सरकार लीज पर दी जाने वाली जमीनों का संरक्षण कैसे कर पाएगी।

गुजरात में कांट्रैक्ट फार्मिंग के लिए जिन आलू किसानों ने कंपनियों को अपनी जमीन कॉन्ट्रैक्ट पर दिए लीज खत्म होने के बाद आज तक वह अपनी जमीन को हासिल नहीं कर पाया आज भी उसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस कानून का सबसे बड़ा नुकसान यह कि किसान एक बार जब अपनी जमीन को कांट्रेक्ट पर दे देगा तो गांव के भीतर उसके लिए कोई अवसर नहीं बचता है।

अतः पलायन करके शहर का रुख करेगा जहां वह दिहारी मजदूर बन जाएगा फिर दोबारा गांव की तरफ रुख कर के आना और अपनी उस जमीन को हासिल करना , उसके तथा उसकी पीढ़ी के लिए संभव नहीं हो पाएगा और इसी के जरिए उस किसान की आने वाली नस्लें गिरमिटिया मजदूर बन जाएंगे। …

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