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गैर दलितों के द्वारा दलित पर लिखी हुई पुस्तक है गैरदलितों की दलित विषयक कहानियां

एक विचार घर किये हुए था कि दलित प्रश्न पर गैरदलित लेखकों ने किस तरह लिखा होगा। क्या सरोकार बन रहे होंगे? और, यह भी कि इस पर कोई ठोस विमर्श क्यों नहीं हुआ अभी तक। यदि हुआ भी है तो उल्लेखनीय दस्तावेज सामने क्यों नहीं आ पाये। यही सोचकर ‘गैरदलितों की दलित विषयक कहानियाँ’ शीर्षक के रूप में यह कहानी संकलन वर्तमान साहित्यिक संक्रमित दौर में मानवीय मूल्यों को लेकर आपके सामने है।

बहुत अरसे से इस विचार को यह कहकर नकारा जाता रहा था कि सहानुभूति का साहित्य कभी दलित समाज को प्रभावित नहीं कर सकता लेकिन यह समझना, साहित्यिक कर्म को कमज़ोर करने जैसा साबित हुआ है। साहित्य कर्मानुभूति की आग में तपकर रचा जाता है। इसलिए कहा जाना चाहिए कि संवेदनाएं और कर्म किसी जाति धर्म की बपौती नहीं है। यह दावा सिर्फ जाति आधारित किया भी नहीं जा सकता।

जाति आधारित उत्पीड़न को सामने लाना हर संवेदनशील लेखक का दायित्व होना चाहिए क्योंकि किसी भी जाति में जन्म लेना व्यक्ति के अपने बस की बात नहीं लेकिन जीवन में क्या करके जीना है यह उसके बस में जरूर होता है और यही आधार बनता है कर्म का और कर्मानुभूति का। मैं यह मानता हूँ कि साहित्य बदला नहीं बदलाव चाहता है और बात मानवीय मूल्यों से भी जुड़ी है।

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