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लोकोक्तियों से प्रेरित होकर–बुंदेलखंड में अकाल से निजात पाने के लिए डॉक्टर संजय सिंह जल अभियान में जुटे

बुंदेलखंड में डॉक्टर संजय सिंह अकाल से निजात के पर्याय माने जाते हैं। बुन्देलखंड में अकाल का स्थायी बसेरा बन जाना संजय सिंह को बड़ा सहज लगता है क्योंकि यहाँ कुदरती संसाधनों की जमकर उपेक्षा की गयी है।


 उनके मुताबिक़ आजादी के बाद तक बुंदेलखंड के लोगों ने अपने ज्ञान, कौशल व श्रम से तालाबों को बनाने का अनूठा प्रयास किया– वहाँ के समाज और संस्कृति में तालाब थे। उसी का परिणाम था बुंदेलखंड की हरियाली, पानीदारी दिखते ही बनती थी। जरूरत के अनुसार लोगों की सामूहिक उपयोग हेतु तालाब बनाने की सोच थी। बुंदेलखंड के गांवों में खुशहाली का माहौल रहता था व गांव सुंदर स्वच्छ दिखते थे। 

उन्हीं तालाबों को लेकर यहां एक से एक लोकगीत थे और पानी को लेकर कहावतें थीं। चूँकि तालाबों के संरक्षण में समुदाय की भागीदारी थी, इसलिए लोगों को सालों भर पानी मिलता था। समाज के लोग  मिल-जुलकर गर्मियों के दिनों में तालाब किनारे बैठकर तालाब सफाई की योजना बनाते थे। उसके बाद पूरा समुदाय तालाब की सफाई में शामिल होकर अपना दायित्व निभाता और श्रमदान द्वारा तालाबों की सफाई बरसात से पहले कर लेते जिससे सालभर के लिए पानी मिल जाए। उन्होंने कई गाँवों के नाम बताये जहाँ गांव के लोग सन् 1990 तक नया तालाब से दाल पकाने के लिए पानी लेते थे।  इन तालाबों को बनानेवाले गांव के लोग थे जो तालाब का नक्शा बनाते। बहुत विस्तार से संजय सिंह बताते हैं कि कैसे गांव से चंदा इकट्ठा करके, कहीं पुण्य के नाम, कभी संत के नाम, तो कभी बुजुर्गों की याद में तालाब बनाने की अनूठी परंपरा बुंदेलखंड में थी। तालाब समाज के जीवन से जुड़े थे तभी तो उनमें कमल खिलते थे, पक्षी चहचहाते थे, गांव के लोग स्नान सहित अन्य कार्य भी करते थे, कई प्रकार की मछलियां तालाबों में होती थीं और उन तालाबों में पानीफल (सिंघाड़ा) की खेती होती थी । बुंदेलखंड के तालाब गांव के जीवन दर्शन प्रदर्शक के साथ गांव की संस्कृति के पूरक और आजीविका भी है। लेकिन साल 1990 के बाद स्थिति में अचानक बदलाव आया। 

सत्ता पर ठेकेदारों का और भूमि माफिया का दबदबा बढ़ता चला गया। तालाब के विशाल रकबे पर ठेकेदारों और बिल्डर्स की नजर जा धंसी। ऐसे में प्रशासन ने तालाबों को पाटने और बराबर करने की खुली छूट बिल्डर्स लोगों को दे दी। उधर ग्रेनाइट को लेकर शहरी समाज की भूख बढ़ती जा रही थी। उस भूख को मिटाने में पहाड़ तोड़े जाने लगे। नतीजतन, हजारों एकड़ के जंगल कागजों पर रह गए ज़मीनी स्तर पर उनका नामों-निशान मिट गया। सरकारी उपेक्षा के कारण आज बुंदेलखंड के लगभग 6000 तालाब विनाश की कगार पर हैं। अतिक्रमण-प्रदूषण व शहरों-गांवों के कूड़ेदान बन चुके ये तालाब घोर उपेक्षा के शिकार हो गए। गांव को स्वच्छ पानी पिलाने के नाम पर लोगों को तालाब से दूर कर दिया गया और सन् 1972 में गांवों को ‘इंडिया टू मार्क’ हैण्डपंप लगवाना शुरू किया। यहीं से तालाबों की विनाशलीला शुरू होती है, बुंदेलखंड की जनसंस्कृति से तालाब यहीं से गायब होते चले गए। 

संजय कहते हैं कि “जिन तालाबों में लोगों की आत्मा जुड़ी थी, उन्हीं तालाबों से साजिश के तहत लोगों को दूर किया। कितना बड़ा मजाक है कि इसके बाद तालाबों को बचाने का जिम्मा सरकारों ने लिया। फिर शुरू हुआ सरकारी आंकड़ों का घिनौना खेल। सिर्फ सरकारी फाईलों के आंकड़े बनते रहे, जबकि तालाब की हकीकत कोसों दूर जाती रही है। बुंदेलखंड में कहीं तालाब बेच दिए गए, कहीं उन पर स्कूल बना, कहीं अस्पताल, कहीं सड़क-रेल लाइन, कहीं बड़े-बड़े मकान हवेलियां, पार्क, खेल मैदान दिखने लगे और कहीं तालाबों को पाटकर उसमें में खेती होने लगी। इसी तरह दबंगों व भूमाफिया ने शासन प्रशासन के साथ मिलकर आज भी तालाबों पर अतिक्रमण कर रहे हैं। प्रशासन आंख मूंदकर फाइलों के आंकड़ेबाजी में जुटा है। जंगलों की कटाई और पहाड़ों के तोड़े जाने के बाद तालाब की उपेक्षा को संजय बुंदेलखंड के आबोहवा के चौपट होने की बड़ी वजह मानते हैं।

उन्होंने बुंदेलखंड में जल संकायों पर तथाकथित ऊंची जातियों के अधिकार की वजह से दशकों से प्यासे समाज की बदहाली की कहानी कहने के क्रम में बताया कि समाज के कमजोर तबके को कुएँ-तालाब के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी थी। पानी भरने गयी जो महिलाएं पाबंदी का विरोध करतीं थीं उनके साथ बदसलूकी भी की जाती थी। लेकिन संजय सिंह ने लोगों को एकजुट कर जिस सामाजिक लड़ाई को अंजाम दिया उसके सामने सामंती ताकतों को घुटने टेकने पड़े।   

बुंदेलखंड में महिलाओं और मजदूरों को लामबंद कर अकाल से बड़ी लड़ाई लड़ रहे डॉ० संजय सिंह तालाबों के उद्धार और चेक डैम के निर्माण को लेकर बुंदेलखंड के कई जिलों में सक्रीय हैं। वह राष्ट्रीय जल-जन जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं– इस नाते जल सुरक्षा मतलब जल-संकायों की हिफ़ाजत और हर इंसान के हलक तक पानी पहुँचने की परिस्थितियों का निर्माण इस अभियान का उद्देश्य है। देश के तालाबों-झीलों और नदियों को प्रदूषणमुक्त रखकर उनके समुचित उपयोग के अलावा हर इंसान का पाने के इन स्रोतों तक पहुँच और उन जल स्रोतों में पानी की मौजूदगी के मुद्दे पर समुदाय की प्रतिभागिता को  राष्ट्रीय जल-जन जोड़ो अभियान के कार्यकर्ता जरूरी मानते हैं। 

राष्ट्रीय जल-जन जोड़ो अभियान के व्यापक उद्देश्यों को मिलती सफलता और उसकी व्यापक चर्चा दुनिया भर के मुल्कों में हो रही है। इसी कारण नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय युवा सम्मेलन वहाँ की सरकार ने ख़ास तौर से संजय सिंह को देश प्रतिनिधित्व करने के लिए आमंत्रित किया था। इस सम्मेलन के जरिए दुनिया भर के युवाओं को एक-दूसरे के बारे में जानने का अवसर मिला।  इस कार्यक्रम में जल सखियों को लेकर व्यापक चर्चा हुई और दुनिया भर से आये प्रतिभागियों ने जाना कि समाज को पानीदार बनाने में जलसखियों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दुनिया भर को पानी की हिफाजत की विधियां समझाते डॉ० संजय सिंह का अपने मिशन में सफल होने की असली वजह उस इलाके में उनके मजबूत जनसम्पर्क और लोगों द्वारा स्वीकार किया जाना है।   

बुंदेलखंड ने इस जनपहल से वहां की कृषि में सुधार साफ़ दिख रहा है। जलवायु में सकारात्मक बदलाव आया है और पानी की अनमोल संस्कृति फिर से जीवित हो रही है।इसका श्रेय डॉ० संजय सिंह को जरूर जाता है।   


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Shweta R Rashmi

Special Correspondent-Political Analyst, Expertise on Film, Politics, Development Journalism And Social Issues. Consulting Editor Thejanmat.com

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