नई शिक्षा नीति न्यू एजुकेशन पॉलिसी – नेप: पूंजीपतियों के हितों के मुताबिक शिक्षा में बदलाव की कोशिश

नई शिक्षा नीति (न्यू एजुकेशन पॉलिसी – नेप) के मसौदे को शिक्षा मंत्रालय और केन्द्र सरकार ने अपनी मंजूरी दे दी है। इसी के साथ ही सत्ताधारी पार्टी के नेताओं द्वारा एक-दूसरे को बधाई देने और सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री को धन्यवाद देने का दौर शुरू हो गया। नई शिक्षा नीति में शिक्षा में व्यापक बदलाव करने की अनुशंसा सरकार से की गई है। हालांकि प्राथमिक शिक्षा में थोड़े बहुत बदलावों/सुधारों की बातें हैं लेकिन उच्च शिक्षा, तकनीकि और पेशेवर शिक्षा में व्यापक बदलाव की बातें की गयी हैं। एक तरह से अभी तक चली आ रही उच्च शिक्षा के रूप और अंतर्वस्तु दोनों को ही बदलने की बातें हैं।
वर्तमान और पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री द्वारा 29 जुलाई को की गयी संयुक्त प्रेस वार्ता में कहा गया कि सभी उच्च शिक्षा संस्थानों (कानून और चिकित्सा शिक्षा को छोड़कर) के लिए एक नियामक संस्था होगी। यह भी कही गयी कि उच्च शिक्षा में भारत 2035 तक 50 प्रतिशत नामांकन हासिल करेगा। लेकिन इस के लिए संसाधन बढ़ाने के बजाए ऑनलाइन कोर्स चलाकर इस लक्ष्य को हासिल करने की बात की गई है। स्पष्ट है कि ऑनलाइन क्लास के जरिए शिक्षा को पूंजीपतियों की चारागाह बनाने की प्रक्रिया को ही आगे बढ़ाया जाएगा। ई-पाठयक्रम को क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित करने, विभिन्न उपायों के माध्यम से वर्ष 2030 तक समस्त स्कूली शिक्षा के लिए 100% नामांकन अनुपात प्राप्त करना लक्षित किया गया है। नेप को इस तरह से पेश किया जा रहा है जैसे ये भारत की शिक्षा में कोई बहुत बड़ा बदलाव का सूचक हो। जैसे इस शिक्षा नीति के लागू होने के बाद भारत के छात्रों को एक बेहतर शिक्षा उपलब्ध होगी।
नई शिक्षा नीति में एक बार फिर बजट का 6% शिक्षा पर खर्च करने का स्वप्न दिखाया गया है। ये स्वप्न ही है क्योंकि 1964 के कोठारी आयोग से लेकर तब से बने लगभग सभी आयोग 6% बजट की बात करते रहे हैं। तब से लेकर अब तक कांग्रेस बीजेपी सरकारों ने इसे कभी पूरा नहीं किया। खुद मोदी सरकार अपने बीते 6 सालों में शिक्षा के बजट को कम कर शिक्षा को प्राइवेट की ओर ही धकेलती रही है तो अब बजट बढ़ाने की बात समझ नहीं आती। वैसे बजट का 6% या 10% खर्च करने से समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा बल्कि सबको हर स्तर पर निःशुल्क और वैज्ञानिक शिक्षा की सरकार द्वारा गारंटी ही शिक्षा व्यवस्था में कुछ बदलाव कर सकती है।
लेकिन इसी शिक्षा नीति में प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम और ढांचा खड़ा करने की बात के साथ यह भी कहा गया है कि इस काम को कार्यकर्ताओं/शिक्षकों से कराया जाएगा। इसी प्रकार इन बच्चों की शिक्षा के लिए समुदायों (जिनसे ये आते है) पर अतिशय जोर दिया गया है। सीनियर छात्रों द्वारा अपने से छोटी कक्षा के छात्रों को तथा पढ़ाई में पिछड़ गए छात्रों को पढ़ाने के लिए नेशनल ट्यूटर प्रोग्राम बनाये जाने की अनुशंसा भी की गई है। इस सब से ये स्पष्ट है कि प्राथमिक शिक्षा से सरकार अपने हाथ और भी ज्यादा खींचने की ओर बढ़ेगी। प्राथमिक और बाल्यावस्था शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण काम को अंजाम देने के लिए सरकारी तन्त्र को मजबूत करने, इसमें योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों को नियुक्त करने के स्थान पर इस काम को कार्यकर्ताओं, समुदायों या फिर छात्रों के ऊपर ही डालने की मंशा उजागर होती है।
ओपन स्कूलिंग जैसी अनौपचारिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए इन कार्यक्रमों को विस्तार देने की बात है। कक्षा 10 और 12 कि बात तो छोड़ दीजिए नेप कक्षा 3, 5 व 8 को भी डिस्टेंस लर्निंग (दूरस्थ शिक्षा) में शामिल करने की अनुशंसा करती है। यह बात समझना बिल्कुल भी कठिन नहीं है कि सरकार शिक्षा में खर्च बढ़ाने, औपचारिक शिक्षा के लिये ढाँचा खड़ा करने के स्थान पर प्राथमिक शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र को भी डिस्टेन्स लर्निंग के हवाले करने की मंशा रखती है।
मदरसा, गुरुकुल, होम स्कूलिंग जैसे निजी स्कूलों को बढ़ावा देने और इसके लिए RTE को लचीला करने की बात भी नेप में कही गई है।
नेप में जगह-जगह “भारत का ज्ञान” की चर्चा की गई है जिसके तहत भारत के प्राचीन को गौरवान्वित करते हुए शिक्षा में शामिल करने की बात की गई है। इस अनुशंसा से संघी सरकार शिक्षा के भगवाकरण को और ऊँचाई पर ले जाने का भरसक प्रयास करेगी। अब नेप के जरिए दीना नाथ बत्रा की पुस्तकों जैसे पाठ्यक्रम को पूरे देश में लागू करने का प्रयास किया जाएगा। खैर इसके लिए संघी सरकार को किसी नेप की अनुशंसा की जरूरत नहीं है। नेप के बिना भी यह सरकार लंबे समय से शिक्षा में ऐसे ही बदलाव कर रही है। भारत के इतिहास में बहुत कुछ सीखने को है और साथ ही जातिवाद, महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण जैसी कई कमियां भी मौजूद हैं। जब हम भारत के इतिहास की बात करते हैं तो उसमें हमारा सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही शामिल है। केवल सकारात्मक या अति महानता का पाठ छात्रों को सच्चाई से दूर ले जाता है। ऐसे इतिहासबोध से तैयार हुआ छात्र इतिहास की गोद से वर्तमान में आ रही समस्याओं का सामना नहीं कर सकता। परन्तु संघी सरकार अति महानता का पाठ पढ़ाकर छात्रों को सच्चाई से दूर रखना चाहती है।
शिक्षकों, संसाधनों के अभाव से दम तोड़ रहे स्कूलों के लिए संसाधन और शिक्षकों की व्यवस्था करने के स्थान पर नेप, स्कूल कॉम्प्लेक्स का झुनझुना थमाने की अनुशंसा करती है। अब कई स्कूलों को मिलाकर एक स्कूल कॉम्प्लेक्स बनाकर इनके संसाधनों का मिलकर इस्तेमाल करने की योजना है। इसमें छोटी कक्षा के छात्र कैसे दूर वाले दूसरे स्कूल जाकर उसके संसाधनों का प्रयोग कर पायेंगे यह एक पहेली ही है।
निजी स्कूलों को खोलने और फीस को खुद ही तय करने की छूट देने की अनुशंसा नेप में की गई है।
नेप में मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम लागू करने की बात की गई है। आज के समय में अगर 4 साल इंजीनियरंग पढ़ने या 6 सेमेस्टर पढ़ने के दौरान किसी कारणवश यदि कोई छात्र बीच में पढ़ाई छोड़ देता है तो उसकी डिग्री पूरी नहीं मानी जाती लेकिन मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम में 1 साल के बाद सर्टिफिकेट, 2 साल के बाद डिप्लोमा और 3-4 साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इसे स्टूडेंट्स के हित में यह एक बड़ा फैसला बताया जा रहा है। परन्तु इस से छात्र को क्या फायदा होगा ये समझ से परे हैं। उसके बारे में तर्क दिया जा रहा है कि अब उसे नौकरी मिलने में आसानी होगी। परन्तु जब डिग्री लेकर करोड़ों छात्र बेरोजगारी की लाइन में खड़े होंगे तो सर्टिफिकेट वालों को कौन पूछेगा? इसका जवाब शायद सरकार के नुमाइंदों के पास भी नहीं है। वहीं नौकरी का संबंध डिग्री से नहीं बल्कि समाज में उपलब्ध अवसरों से होता है। परंतु आज के हालात ये दिखा रहे है कि डिग्री और सर्टिफिकेट वाले दोनों ही नौकरी की लाइन में लगे हैं पर उन्हें नौकरी मिल नहीं रही।
इसी तरह उच्च शिक्षा को 21 वी सदी की ज़रूरतों को पूरा करने वाला होने के नाम पर 21वी सदी के पूँजीपति वर्ग की जरूरतों को पूरा करने वाला बनाने की सिफारिश की गई है। उच्च शिक्षा को ‘बहु अनुशासत्मक’ और ‘बहुविषयक’ बनाने के नाम पर यह ऐसे मज़दूर तैयार करने की अनुशंसा है जो उच्च शिक्षा प्राप्त हो और एक साथ कई तरह के काम करने में दक्ष हो। यह व्हाइट कॉलर मज़दूर तैयार करने की योजना है। पहले यह FYUP के भेष में पेश किया गया, फिर CBCS के भेष में। अब फिर FYUP की अनुशंसा नेप में की गई है। ये वही FYUP है जिसे DU के लाखों छात्रों के विरोध के बाद भाजपा सरकार द्वारा हटा लिया गया था। इसे फिर से लागू करने की कोशिश दिखाती है कि पूंजीपतियों की इच्छा के सामने उनकी चारण सरकारें पूरी तरह नतमस्तक हैं।
राष्ट्रीय अनुसंधान फाऊंडेशन की स्थापना कर उच्च शिक्षा में शोध को पूंजीपतियों की जरूरत के अनुसार ढालने की कोशिश की जा रही है। नेप बेशर्मी से सिफारिश करती है कि उद्योग की जरूरतों के अनुसार शोध किये जायें, यानी पूँजीपति वर्ग के मुनाफे को बढ़ाने के लिए शोध किये जायें, उनको फंडिंग की जाए। साथ ही एमफिल को खत्म करने की बात भी नेप में की गई है। इसका मतलब अब एम ए के बाद सीधे छात्र पीएचडी में एडमिशन के लिए अप्लाई कर सकता है। सुनने में अच्छा लगने वाला ये फैसला भी छात्र और शोध विरोधी है। पहला तो इसके लागू होने के बाद देश में एमफिल की लाखों सीटें खत्म कर दी जाएंगी। दूसरी तरफ हर संस्थान में पीएचडी की सीटों की संख्या बेहद कम है जिसके चलते एम ए के बाद पीएचडी में एडमिशन ना मिल पाने की स्तिथि में छात्र या तो पढ़ाई छोड़ देगा या फिर तैयारी करते हुए अपने साल बर्बाद करेगा। इससे पहले छात्र एमफिल में एडमिशन लेता था जिससे उसे शोध का भी अनुभव प्राप्त होता था। परंतु अब एमफिल को खतम कर छात्रों से इस पर ताली बजाने को कहा जा रहा है।
इसी तरह अकादमिक ओर प्रशासनिक स्वायत्तता के हवाले देते हुए उच्च शिक्षा संस्थान बोर्डो के गठन करने का सुझाव है। ये बोर्ड अब एकतरफा सरकारी नियंत्रण को और अधिक कड़ा करने की साजिश के सिवा कुछ नही है। बची खुची स्वायतता और जनवाद को भी इन बोर्डों द्वारा सीमित और खतम किया जाएगा।
उच्च शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा देने के लिये पूंजीपतियों को टाइप 1 व टाइप 2 के उच्च शिक्षा संस्थान खोलने को प्रोत्साहित करने की बात नेप साफ-साफ कहती है। इसी के साथ निजी संस्थानों को भी अपनी डिग्री देने की छूट देने की बात भी है।
व्यापक स्तर पर ऑनलाइन कोर्स चलाने और हर उच्च शिक्षा संस्थान द्वारा अपना ऑनलाइन कोर्स चलाने या अपने कोर्स को स्वयंम प्लेटफार्म पर डालने की अनुशंसा की गई है। स्पष्ट है कि सरकार को इससे कोरोना काल मे ऑनलाइन कोर्स को गति देने और औपचारिक शिक्षा से अपना मुँह मोड़ लेने का वाज़िब तर्क मिल जायेगा। विदेशी विश्विद्यालय के साथ साझीदारी करने उन्हें अपने संस्थान भारत मे खोलने की छूट देने के पैरवी नेप करती है। हालांकि संशाधनों को बढ़ाने और छात्र-शिक्षक अनुपात 30:1 करने की बात भी कही गयी है लेकिन नवउदारवादी दौर में यह कितना सम्भव है यह बताने की जरूरत नही है।
उच्च शिक्षा में स्थाई नौकरी के लिए लंबे और कठिन प्रक्रिया की सिफारिश की गई है। पहले 5 वर्ष तक प्रोबेशन पर रखने और उसके बाद अलग-अलग जरियों से मूल्यांकन में ‘पास’ होने के बाद ही स्थायी नौकरी के फल का स्वाद चख पाने की बात की गई है। तब तक कोई भी नौजवान शिक्षक आशंका और दबाव में ही काम करने के लिए ही अभिशप्त रहेगा और जरूरी नही की मूल्यांकन के बाद स्थाई नौकरी मिल ही जाए।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर, यह दिखाया जा रहा है कि भाजपा शिक्षा के प्रति बहुत संजीदा है। नाम बदल दिया किन्तु अभी भी नई शिक्षा नीति मानव संसाधन (पूंजीपतियों के लिए कुशल सस्ता मजदूर) विकसित करने का ही मकसद पूरा कर रही है। पहले भी यही करती थी और अब आज की जरुरत के अनुसार करेगी।
कुल मिलाकर नई शिक्षा नीति आज के समय में पूंजीपतियों के हितों को ही पूरा करती है। एक शिक्षित, वैज्ञानिक भारत बनाने के बजाय शिक्षा को मेहनतकशों से छीनने और उन्हें कूपमण्डूक बनाने की कोशिश ही नई शिक्षा नीति के तहत की गई है। इसकी तमाम अनुशंसाएं सरकार द्वारा शिक्षा से हाथ खीचने और शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाने की ही बात करती हैं। ये अलग बात है कि संघी सरकार ने अपने हर जनविरोधी काम की तरह इसे भी शब्दों के जाल में छिपा रखा है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले के आयोग या कमेटियों के सुझाव जनता के हितों की पूर्ति करते थे। आजादी के बाद से सभी आयोगों और कमेटियों के प्रस्ताव पूंजीपतियों के हितों को ही केंद्र में रखते थे और उनके हितों में हुए बदलाव के साथ ही बदलते चले गए। आज भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया के पूंजीपति वर्ग की नजर भारत के शिक्षा के बाजार पर है जो एक अनुमान के मुताबिक 14 बिलियन डॉलर का है। ऐसे में नेप खुले छुपे तौर पर शिक्षा के निजीकरण की वकालत करती है, विदेशी विश्ववद्यालयों को भारत में खोलने की अनुशंसा करती है। कुल जमा सरकार अन्य कल्याणकारी योजनाओं की तरह ही शिक्षा देने की जिम्मेदारी से भी अपना पल्ला झाड़ते हुये शिक्षा को बाजार (पूंजीपतियों) के हवाले कर रही है।
आजादी के बाद से मेहनतकश तबके से आने वाले छात्रों के लिए शिक्षा दूर की कौड़ी रही है। नई शिक्षा नीति इसे आम छात्रों से और दूर करने, एक सोचने और सवाल करने वाला नागरिक बनाने के बजाय पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने वाली मशीन का पुर्जा बनाना चाहती है। देश के हर छात्र, शिक्षक, नागरिक को इसकी असलियत को उजागर करते हुए इसका पुरजोर विरोध करने की जरूरत है।

लेखक श्री गिरिजा शंकर सिंह