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1857 के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत “मंगल पांडे” की बगावत से उखड़ने लगे थे अंग्रेज़ी हुक़ूमत के पाव।

1857 के 9 फरवरी के दिन जब “34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री” की देशी सेना में ये "नया कारतूस" बाँटा गया तो देश की मिटटी के इस सपूत ने कारतूस लेने से इंकार कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप ये हुआ कि इनकी वर्दी उतार लेने का हुक्म दिया गया और इनके हथियार भी छीन लिए गए। लेकिन मंगल पांडे ने इस आदेश को मानने से भी इनकार कर दिया।

“मंगल पांडे” इतिहास के पन्नों में छिपा ये वो नाम है जिसने देश के क्रांतिकारियों की सोच को बदल कर रख दिया। सन् 1857 उनके द्वारा लगाई गयी छोटी सी चिंगारी ने ही आगे चलकर क्रांति की धधकती ज्वाला का रूप धारण किया। जिसने अंग्रेज़ी सरकार के पंजों को बुरी तरह से हिला कर रख दिया। 

ये उन्ही की एक बगावत का नतीजा था सन् 1857 का स्वतंत्रता संग्राम में भारतीयों के दिलों में आज़ादी की जोत जल चुकी थी जिसकी तपन से जूझते हुए गोरी हुक़ूमत को 100 साल के अंदर ही भारत को आज़ाद करना पड़ा। ये अलग बात है कि आज़ादी की कीमत को चुकाते हुए सबसे पहले बलिया के इस बबर शेर ने फाँसी के फंदे को स्वीकार कर देशवासियों के लिए एक नई मिसाल कायम की।

इनके देश-प्रेम ने ही भारतीयों को आज़ादी का मतलब समझाया था जिसके बाद एक ऐसे विद्रोह ने जन्म लिया जिसने भारतवर्ष का भविष्य ही बदल दिया। गोरी सरकार ने “मंगल पांडे” जी को गद्दार और विद्रोही की संज्ञा दी, पर मंगल पांडे आज प्रत्येक भारतीय के लिए एक महानायक हैं।

“मंगल पाण्डेय” जी का जीवन परिचय-

इस महान स्वतंत्रता सेनानी का जन्म 19 जुलाई 1827 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के दुगवा नामक गांव में एक सामान्य ब्राह्मण परिवार हुआ। हांलाकि कुछ इतिहासकार इनका जन्म-स्थान फैज़ाबाद के गांव सुरहुरपुर को मानते हैं।

इनके पिता का नाम “दिवाकर पांडे” तथा माता का नाम श्रीमती “अभय रानी” था। एक सामान्य परिवार का सदस्य होने के नाते इन्हे अपने परिवार का निर्वाह करने के लिए सन 1849 “ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी” यानी अंग्रेज़ों की सेना में शामिल होना पड़ा। उस समय ये 22 वर्ष के थे। इन्हे बैरकपुर की सैनिक छावनी में “34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री” की पैदल सेना में नियुक्त किया गया। 

लेकिन गोरी हुक़ूमत का राज हड़प, कंपनी की रियासत अथवा ईसाईयों द्वारा धर्मपरिवर्तन पर बार बार ज़ोर देना इनके मन में लगातार हुक़ूमत के प्रति नफरत के अंगारे बो रहा था। 

लेकिन विद्रोह का असली प्रारम्भ ‘एनफील्ड पी.53’ राइफल नाम की एक बंदूक की वजह से हुआ। जिसमे नई कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ था। उस समय इन नए कारतूसों को बंदूक में भरने के लिए मुंह से काटकर खोलना पड़ता था। मान्यता थी कि इन नए किस्म के कारतूसों को बनाने में गाय तथा सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता है। हिन्दू तथा मुस्लिम सैनिकों के लिए ऐसी वस्तु को मुँह से खोलना धर्म भ्र्ष्ट करने जैसा था। इसलिए धीरे धीरे भारतीय सैनिकों में विद्रोह की गंध उठाने लगी।

भारतीय सैनिकों में पहले से ही बहुत भेदभाव किया जाता था जिसके चलते सैनिकों में रोष था ऐसे में कारतूस में चर्बी होने की खबर ने उस रोष की आग में घी डालकर उसे भड़काने का काम किया। 

1857 के 9 फरवरी के दिन जब “34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री” की देशी सेना में ये “नया कारतूस” बाँटा गया तो देश की मिटटी के इस सपूत ने कारतूस लेने से इंकार कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप ये हुआ कि इनकी वर्दी उतार लेने का हुक्म दिया गया और इनके हथियार भी छीन लिए गए। लेकिन मंगल पांडे ने इस आदेश को मानने से भी इनकार कर दिया। 

कहा जाता है कि 29 मार्च सन् 1857 बैरकपुर परेड मैदान में जब अँग्रेज़ अफ़सर उनकी राइफल छीन ने के लिए आगे बढे तो मंगल पाण्डेय ने  रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेण्ट ह्यूसन बाग पर हमला कर के उसे घायल कर दिया। जनरल “जान हेएरसेये” के अनुसार मंगल पाण्डेय किसी प्रकार के धार्मिक पागलपन में थे जनरल ने जमादार ईश्वरी प्रसाद से मंगल पांडे को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया लेकिन उसने मना कर दिया।

कहते है कि उस वक़्त सिवाए एक सिपाही “शेख पलटु” को छोड़ कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया। इस मंज़र को देखते मंगल पाण्डेय ने अपने साथियों को खुलेआम विद्रोह करने के लिये कहा, पर डर के कारण जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी ही रायफल से उस अँग्रेज़ अधिकारी “मेजर ह्यूसन” को मौत के घाट उतार दिया. इसके बाद पांडे ने एक और अँग्रेज़ अधिकारी “लेफ़्टिनेन्ट बॉब” को मौत के घात उतार दिया.

जिसके बाद मंगल पाण्डेय को अंग्रेजी सिपाहियों ने पकड लिया। उनपर कोर्ट मार्शल का मुक़दमा चला और 6 अप्रैल 1857 को अंग्रेजी सरकार द्वारा फाँसी का हुक्म सुना दिया गया। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने मंगल पाण्डेय को निर्धारित तिथि से दस दिन पूर्व ही 8अप्रैल सन् 1857 को फाँसी पर लटका दिया।

देश का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और मंगल पांडे-

भेदभाव के चलते पहले से ही अंग्रेजी सरकार के खिलाफ पहले ही भारतीयों में घृणा भाव था ऐसे में मंगल पांडे की दस दिन पूर्व फाँसी ने जनता में विद्रोह की चिंगारी को हवा दे दी थी। 

फाँसी के ठीक एक महीने के बाद 10 मई सन् 1857 को मेरठ की सैनिक छावनी में भी बगावत शुरू हो गयी और देखते ही देखते छोटी सी वह चिंगारी सारे देश में सैलाब बनकर फ़ैल गयी और देश में शुरू हो गया आज़ादी के लिए स्वतंत्रता संग्राम। जगह जगह अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष भड़क उठा। 

इससे गोरी सरकार को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर शासन करना उतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे। इस घटना के बाद भारत में चौंतीस हजार सात सौ पैंतीस अंग्रेजी कानून जनता पर थोपे गये ताकि कल को कोई दूसरा मंगल पाण्डेय जैसा सैनिक सरकार के विरुद्ध बगावत की मशाल ना उठा सके। 

आज का भारत और मंगल पांडे –

आज भारत में इस वीर सपुत को बहुत आदर से याद किया जाता है इनको श्रद्धांजलि देते हुए कईं लेखकों ने इनके जीवन पर कईं नाटक और कवितायेँ लिखी है। साल 2005 में भारत के सुप्रसिद्ध अभिनेता “आमिर खान” ने ‘मंगल पांडे: द राइजिंग’ नाम की फिल्म में “मंगल पांडे” जी की भूमिका निभाने की कोशिश की थी जिसे दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया। 

“जेडी स्मिथ” ने अपने प्रथम उपन्यास ‘वाइट टीथ’ में भी भारतीय क्रांतिकारी मंगल पांडे का जिक्र अपने अक्षरों में किया है। भारत सरकार ने भी इस महान सेनानी को श्रद्धांजलि देते हुए 5 अक्टूबर 1984 को इनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।

इनकी बगावत को देखकर ही बलिया की भूमि को बागी बलिया के नाम से जाना जाने लगा था। आज भले ही ये जैसा वीर योद्धा हमारे बीच नहीं है लेकिन इनके द्वारा जलाई गयी देश प्रेम की ज्योती सदैव ही हम भारतीयों के दिलों में जलती रहेगी।

देशप्रेम,आज़ादी की ख़ातिर,
जाने कितने समर हुए है ,

फाँसी का फंदा चूमने वाले ,
मरकर भी देखो अमर हुए है …


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