कौन है यह नक्सली-माओवादी- खालिस्तानी और कहां से आते हैं यह लोग?
मौजूदा किसान आंदोलन में सरकार और उनके नुमाइंदों के बयानों ने नक्सलवादी माओवादी खालिस्तानी आदि शब्दों को मौजू बना दिया है।
कुछ वर्ष पूर्व एक कार्यक्रम के दौरान दिल्ली में मेरी एक सज्जन से मुलाकात हुई, सामान्य कद काठी शरीर पर साधारण सफेद पजामा कुर्ता पहने हुए, थोड़ी बहुत जानकारी जुटाने पर पता चला सरकार ने इनके ऊपर सैकड़ों मुकदमे कर रखे हैं और कम से कम 10 साल तक उन्होंने जेल में बिताए हैं, इस सब के पीछे कारण था कि इनके ऊपर अर्बन नक्सल होने का ठप्पा था।
अर्बन नक्सल हालांकि नवीन शब्द है जबकि नक्सल शब्द पुराना शब्द है, लेकिन अर्बन नक्सल का मतलब होता है कि वह व्यक्ति जो हथियार भले ही ना उठाया हो परंतु वैचारिक स्तर पर पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का विरोधी हो अर्थात संपत्ति के निजीकरण का विरोधी होने के साथ-साथ सरकार द्वारा विकास की दी जाने वाली परिभाषा का भी विरोधी हो या यूँ कहे जिस विकास की परिकल्पना सतत विकास पर आधारित न हो वह विकास नहीं विनाश है और सरकारें हमेशा विकास की तरफ देखती है सस्टेनेबल डेवेलोपमेंट की तरफ नहीं देखती।
बातचीत के क्रम में मैंने एक सवाल उनके सामने उछाल दिया क्या आप लोगों को देश से प्रेम नहीं? आखिर सरकार गरीबों की इतनी हिमायती है दिन-रात उनके लिए काम कर रही है बावजूद आप लोग हथियारबंद लोगों का समर्थन करते हैं जो सरकार के विकास के मॉडल के धुर विरोधी हैं….. इस क्रम में आप तमाम आतंकी संगठनों और बाकी लोगों से भी आप लोगों के गठजोड़ होते हैं क्या आप इसको अनैतिक नहीं मानते?
उनका उत्तर था, समय का इंतजार कीजिए, जब आप दिल्ली के लालच को चुनौती देंगे तब आप नक्सली ही कहे जाएंगे।
वह दिन दूर नहीं जब हर किसी को अपने हक के लिए दिल्ली के लालच को चुनौती देना ही होगा मैं फिर उनसे कोई दूसरा सवाल ना पूछ सका, उनका यह जवाब ना केवल उनकी शालीनता बल्कि मेरे बौद्धिक विकास और मेरी चिंतन क्षमता पर भी एक सवाल था।
आखिर किसी आंदोलन में हम दिल्ली के लालच और दिल्ली के नजरियों को क्यों नहीं समझ पाते?
सन 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से छोटे किसान व मजदूर विद्रोह अपने जन्म के कुछ ही साल के भीतर देश के लगभग दो तिहाई हिस्सों में एक ऐसी विचारधारा बनकर उभरा जिसके प्रभाव से यूनिवर्सिटी कॉलेज खेत खलिहान सरकारी ऑफिस कोई ऐसी जगह नहीं रहा जो अछूता हो।
अपने तमाम उतार-चढ़ाव, भटकाव तथा देश से नक्सलवाद के खात्मे के सरकारी दावे के बाद भी आंदोलनकारी किसानों को नक्सली बताने के सरकारी दावे से सिद्ध होता है कि नक्सलवाद के खात्मे का सरकारी दावा खोखला है और एक बात और सिद्ध होती है नक्सलवाद सिर्फ बंदूक की संस्कृति नहीं है। क्योंकि सारे आंदोलनकारी किसान निहत्थे हैं और सरकार का दावा है कि वह नक्सली हैं।
सरकार के इस दावे से एक बात और साफ हो जाती है कि नक्सल केवल एक शब्द नहीं बल्कि एक पर्दा भी है जिसके पीछे दिल्ली अपने लालच छुपा लेती है।
केंद्र में जब यूपीए की सरकार थी उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने नक्सलवाद को विकास विरोधी और देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया था तत्कालीन विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी जी ने भी यूपीए सरकार के सुर में सुर मिलाया था।
उस समय भी मसला ऐसा ही था छत्तीसगढ़ के किसान मजदूर सरकार से गुहार लगा रहे थे कि आपका जो विकास का मॉडल है वह हमें नहीं चाहिए लेकिन सरकार उस विकास को छत्तीसगढ़ वासियों पर ठीक उसी प्रकार से लादने के लिए आमादा थी जैसे आज किसानों के विकास के लिए केंद्र की सरकार नए कृषि कानून को किसानों पर लादने के लिए आमादा है।
तत्कालीन समय में सरकार के विकास नीतियों की पोल ग्रामीण विकास मंत्रालय की 2008 के एक रिपोर्ट में खुल जाती है।
इस रिपोर्ट में बताया गया कि आदिवासियों की जमीन हड़पने के लिए कोलंबस के बाद जो सबसे बड़ा अभियान चला उसके पीछे टाटा और एस्सार ग्रुप का हाथ है ” कमेटी आने स्टेट एक ग्रियन रिलेशंस एंड अनफिनिश्ड टास्क आफ लैंड रिफॉर्म” शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट के पेज संख्या 107 और 161 में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर दंतेवाड़ा बीजापुर में गृह युद्ध के हालात बने हुए हैं।
इसी रिपोर्ट में बताया गया है किस सालवा जुडूम जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध लगा दिया था, इसके गठन की शुरुआत कांग्रेसी विधायक और सदन के विपक्ष के नेता महेंद्र कर्मा ने की थी लेकिन तत्कालीन भाजपा सरकार ने इसे भरपूर समर्थन दिया और इस अभियान के पीछे व्यापारी ठेकेदार और खानों की खुदाई के कारोबार में लगे लोग थे रिपोर्ट में बिना लाग लपेट के कहा गया है सालवा जुडूम शुरू करने के लिए पैसा और हथियार मुहैया कराने का काम टाटा और एस्सार ग्रुप ने किया।
इसी रिपोर्ट में बताया गया की बंदूक की नोक पर 3:30 लाख आदिवासियों को 640 गांव से खदेड़ कर टाटा और एस्सार जैसे स्टील कंपनियां इस पर कब्जा करना चाहती हैं क्योंकि यह गांव हजारों लाखों टर्न लोहे के ऊपर बसे हैं।
सवाल उठता है कि क्या इस विकास नीति में दिल्ली का कोई लालच नहीं था?
बिल्कुल भी बिना फिक्र के जिस समय यह रिपोर्ट तैयार की गई थी उस वक्त तत्कालीन गृह मंत्री और वेदांता ग्रुप के बोर्ड के पूर्व सदस्य श्री पी चिदंबरम जी के ऊपर भी सवालिया निशान खड़ा किया गया था, इस रिपोर्ट में बताया गया उड़ीसा की नियमगिरि पहाड़ियों को बॉक्साइट की तलाश में खोखला करने वाले वेदांता ग्रुप की निगाह अब छत्तीसगढ़ पर लगी है जिसे देश के गृह मंत्री का संरक्षण प्राप्त है।
क्या यह बिना दिल्ली के लालच के था?
जिस वक्त यह रिपोर्ट बनी तब से आज तक के हालात और भी बदतर हो गए आज आंदोलनरत किसान खुले शब्दों में अदानी और अंबानी को चुनौती दे रहे हैं जबकि सरकार नए कृषि कानून को विकास नीति और किसानों के पक्ष में लिया हुआ निर्णय बताते हुए किसान आंदोलन को नक्सली आंदोलन सिद्ध करने पर अमादा है।
तब से आज में सिर्फ इतना ही फर्क है कि दिल्ली के किरदार बदल गए लेकिन क्या दिल्ली के लालच में भी कोई अंतर है? यह सवाल तो उठता ही है।
बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक ई एन राममोहन ने भी एक साक्षात्कार में कहा कि दिल्ली जब तक अपने लालच को नहीं छोड़ेंगे नक्सलवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एक आर्थिक और सामाजिक लड़ाई है ना कि कानूनी लड़ाई है जिसे पुलिस फौज और हथियार के दम पर समाप्त किया जा सके !
बिहार में नक्सल विरोधी अभियान से जुड़े पूर्व आईपीएस बी एन सिन्हा नहीं भी नक्सलवाद की समस्या की जड़ में भूमि सुधार तथा अन्य सामाजिक मुद्दे को बताया।
पटना से प्रकाशित दैनिक सर्च लाइट में लेख लिखकर उन्होंने स्पष्ट किया किन नक्सलवाद एक सामाजिक आर्थिक समस्या है और इसका कोई सैनिक समाधान संभव नहीं है।
आज जब दिल्ली अपनी कल्याणकारी भूमिका की तिलांजलि दे चुका हो और खुलकर कारपोरेट का पक्ष कार बन बैठा हो तो क्या यह संभव है कि देश के भीतर उठने वाले तूफान और आंदोलन को रोका जा सके या सिर्फ यह कह कर कि यह आंदोलन आतंकी और नक्सलियों का है उसे दबाया जा सकता है ?
क्या दिल्ली को अपने लालच पर विचार नहीं करना चाहिए?
आज देश के भीतर सरस्वती विहीन और लक्ष्मी की सवारी उल्लू लोगों की एक ऐसी नई जमात पैदा हो चुकी है जिसे सरकार के हर कार्य में सिर्फ विकास और विरोध करने वालों में विकास विरोधी चेहरा दिखाई दे रहा है। जो की एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।
दिन भर कोल्हू के बैल की तरीके से काम करने वाला आदमी यदि पूजी पतियों के तिजोरी भरने वाले नीति का पक्षधर हो कर अपने ही खिलाफ खड़ा हो जाए तो उसे सरस्वती विहीन और उल्लू ना कहा जाए तो क्या कहा जाए ?