बड़ा खुलासा!! सत्ता में आने से पहले ही मोदी सरकार ने कईं अखबारों को सरकारी विज्ञापन देना बंद कर दिया था।
कई ऐसे पत्रकार भी है जिन्हे सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक रिपोर्ट लिखने व छापने की वजह से खूब डराया और धमकाया गया है। उनका कहना है कि मोदी कार्यकाल में पत्रकारों को पूरी तरह से लिखने और बोलने की पूर्णता आज़ादी नहीं है। पत्रकारों की स्वतंत्रता पूरी तरह से खतरे में है।
हाल ही ख़बरों की सुर्ख़ियों ने एक बार फिर से मोदी सरकार को सवालों के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। सूत्रों द्वारा मिली जानकारी से पता चला है कि मोदी सरकार ने देश के तीन बड़े अखबारों को सरकारी विज्ञापन देना ही बंद कर दिए हैं।
आपको बता दें कि विपक्ष नेताओं का कहना है कि सरकार के खिलाफ की गयी रिपोर्टिंग कार्यवाही की प्रतिक्रिया के दौरान सरकार ने तीन बड़े अख़बारों को विज्ञापन देना ही बंद कर दिए।
जानकारी के अनुसार पता चला है कि कई ऐसे पत्रकार भी है जिन्हे सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक रिपोर्ट लिखने व छापने की वजह से खूब डराया और धमकाया गया है। उनका कहना है कि मोदी कार्यकाल में पत्रकारों को पूरी तरह से लिखने और बोलने की पूर्णता आज़ादी नहीं है। पत्रकारों की स्वतंत्रता पूरी तरह से खतरे में है।
इसी मामले में कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता रंजन चौधरी का कहना है कि ‘सरकारी विज्ञापन रोकने की अलोकतांत्रिक और अहंकारी प्रवृत्ति इस सरकार का मीडिया को उसकी लाइन बदलने के लिए एक संदेश है.’ मिली जानकारी के अनुसार ढाई करोड़ से अधिक मासिक पाठक वर्ग वाले देश के तीन बड़े अखबारों को मोदी सरकार ने दूसरी बार सरकार में कदम रखने से पहले ही इन अखबारों के विज्ञापनों को बंद कर दिया था।
देश की राष्ट्रिय सुरक्षा को लेकर महँगाई और बेरोज़गारी जैसे बड़े मुद्दों पर बेबाक बात करने वाले एक ग्रुप “द टेलीग्राम अखबार” के सरकारी विज्ञापनों को बंद करने की वजह से उनमें लगभग 15 % की गिरावट देखी गयी।
उस अखबार के अधिकारी का कहना है कि जब जब भी सरकार के खिलाफ कुछ भी ऐसा लिखा/छापा जाता है तो सरकार अपनी गलती सुधारने के बदले स्वतंत्र पत्रिकाओं को कुछ ना कुछ नुक्सान पहुंचाने लग जाती है। एक अन्य अधिकारी ने इस मामले में कहा की विश्व के सबसे बड़े लोकताँत्रिक देश में कम से कम अखबारों की स्वतंत्रता को बनाया रखा जाना चाहिए। लेकिन आज के हालात देख ऐसा कुछ नहीं लगता।
दूसरी ओर एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार के सरकारी विज्ञापनों में भारी मात्रा में कमी आयी है। इस अखबार के अधिकारी ने अपने ब्यान में बताया कि “फ्रांस के दसॉ से राफेल जेट” की खरीद से जुड़ी खबर को प्रकाशित करने के तुरंत बाद ही इन्हे मिलने सरकारी विज्ञापनों में एक भारी गिरावट आयी है।
आपको बता दें कि अखबारों ने बेबाक तरीके से अपने विज्ञापनों में सरकार की आलोचना करते हुए सरकार को सवालों के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया था। अपनी रिपोर्ट्स में इन अख़बारों ने सरकार पर खुले आरोप लगाए और उसे दोषी ठहराया। जिसकी वजह से इन अखबारों को सरकारी विज्ञापन मिलना ही बंद हो गए।
जबकि इस मामले में केंद्र सरकार के प्रवक्ता नलीन कोहली का कहना है कि पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा बड़ा स्तम्भ है जिसकी स्वतंत्रता पूरी तरह से कायम रखी गयी है। उन्होंने बताया की अखबारों और टीवी चैनलों पर सत्ताधारी पार्टी की अच्छी-ख़ासी आलोचना की जाती है. ये अलोचनाएं ही अभिव्यक्ति की आज़ादी की गवाह हैं. भाजपा पर प्रेस की आज़ादी को दबाने का आरोप लगाना बकवास है.’
आपको बता दें कि एक रिपोर्ट में मुताबिक़ साल 2019 में विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में हमारे देश भारत को 180 देशों की सूची में से 140 वें पायदान पर रखा गया है। इस सूची में हमारा देश अफग़ानिस्तान, म्यांमार और फिलीपींस देशों से भी निचले स्थान पर है।
अब सवाल ये आता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकताँत्रिक देश में अगर पत्रकारों से भी उनके बोलने या लिखने की आज़ादी छीन ली जाती है तो हम ये कैसे उम्मीद कर सकते है की यहां आम आदमी की मांगो का ख्याल रखा जायेगा। क्योंकि जो भी सरकार के खिलाफ लिखेगा या लिखता है किसी तरह से उसकी आज़ादी पर पाबंदी लगा दी जाती है।
आज देश के तमाम अखबारों और टीवी चैनलों में सिर्फ सरकार का ज़ोर शोर से गुणगान ही किया जाता है और जनता की परेशानियों को अनदेखा कर दिया जाता। आज हमारा देश भारत पानी की किल्लत से लेकर महँगाई और बेरोज़गारी का लगातार शिकार हो रहा है ऐसे में पत्रकारों की स्वतंत्रता का छीना जाना कितना सही है ? अपने कीमती सुझावों से हमें ज़रूर बताएं।