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भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की सबसे बत्तर हालत बिहार और उत्तर-प्रदेश की। नीति आयोग।

"हेल्थ इंडेक्स" में देश के 21 बड़े प्रदेशों की स्वास्थ्य व्यवस्था की जांच करते हुए एक सूची तैयार की गयी थी जिसमे बिहार और उत्तर-प्रदेश की हालात सबसे ज़्यादा खस्ता दिखाई दी। इन दोनों प्रदेशों को सबसे अंतिम पायदान 20 और 21 पर रखा गया है।

हाल ही में ख़बरों की सुर्खियों ने बिहार और उत्तर-प्रदेश को एक बार फिर देश की जनता की नज़रों के सामने ला कर खड़ा कर है। बिहार में जिस तरह “चमकी बुखार” का कहर बरस रहा हर कोई त्राहिमाम कर रहा है। बिहार में इस बुखार ने सैंकड़ों बच्चों को अपनी तपिश का शिकार बनाया और लगातार बना रहा है।

 “चमकी बुखार” के इसी प्रकोप को देखते हुए देश के “नीति आयोग” ने देश की स्वास्थ्य सुविधाओं की जांच पड़ताल करते हुए एक “हेल्थ इंडेक्स” जारी किया है। 

आपको बता दें कि इस  “हेल्थ इंडेक्स” में देश के 21 बड़े प्रदेशों की स्वास्थ्य व्यवस्था की जांच करते हुए एक सूची तैयार की गयी थी जिसमे बिहार और उत्तर-प्रदेश की हालात सबसे ज़्यादा खस्ता दिखाई दी। 

जानकारी के अनुसार इन दोनों प्रदेशों को सबसे अंतिम पायदान 20 और 21 पर रखा गया है। जबकि शीर्ष तीन पर जिन राज्यों का कब्ज़ा है उनमें केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र  है। रिपोर्ट की संख्या क्रम से यह साफ़ साफ़ पता चलता है कि देश के उत्तरी इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था अधिक खतरे में है। 

वहीँ दूसरी ओर इस मामले में “वालंटरी हेल्थ एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन” श्री आलोक मुखोपाध्याय का कहना है कि “स्वास्थ्य के मामले में इन राज्यों का हाल पिछले 40 सालों से बहुत बुरा रहा है. कुछ सुधार हुआ है लेकिन ज़रूरत के मुताबिक़ नहीं. इन राज्यों में 30 से 40 फ़ीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है. बाल विवाह, लड़कियों की शिक्षा के मामले में इन राज्यों की हालत बहुत अच्छी नहीं है.”

उन्होंने बताया कि  “सबसे बड़ी बात है कि इन राज्यों में प्रशासन भी बहुत कमज़ोर है, इसलिए कोई योजना भी लागू नहीं हो पाती. यहां शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सामाजिक क्षेत्रों में निवेश भी बहुत कम हुआ है.”

इस पूरे हेल्थ इंडेक्स की रिपोर्ट में बिहार और उत्तर-प्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल खोल दी है। इस मामले में  दिल्ली के डॉ.एके अरुण इन बुरे हालातों का ज़िम्मेवार प्रशासन की लापरवाही बताते है। उनका कहना है कि “इन दोनों प्रदेशों में स्वास्थ्य को लेकर सरकारों की लापरवाही साफ़ दिखती है और विडंबना है कि पिछले दस सालों से उनका ऐसा ही प्रदर्शन रहा है.”

उन्होंने बताया कि मामले में राजधानी की हालात बीते कुछ सालों में काफी सुधरी है यहां की स्वास्थ्य सेवाओं में पहले से अधिक सुधार देखा गया है। “हेल्थ इंडेक्स” की सूची में दिल्ली केंद्र प्रशासित क्षेत्रों में पांचवा स्थान प्राप्त हुआ है। बीते साल यूएनडीपी की रिपोर्ट से जानकारी मिली थी कि जिसमें अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने अन्य राज्यों के मुक़ाबले भारत की राजधानी दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बताया था। 

लेकिन देश के बिहार और उत्तर-प्रदेश राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी सच में चिंता का विषय है। “चमकी-बुखार” के खतरनाक वायरस के चलते बिहार मुज़फ़्फ़रपुर के अस्पातलो में भीड़ बढ़ती ही जा रही है और वहाँ पर पर्याप्त मात्रा में बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं है कहीं डॉक्टरों की कमी है तो कहीं दवाइयों की।

 बताया जा रहा है कि कई अस्पतालों में  पर्याप्त मात्रा में मरीज़ों के लिए बेड तक का इंतज़ाम भी नहीं है। जिसका परिणाम हमें रोज़ टी०वी और अखबारों के पन्नों में दिख ही रहा है। देश अभी तक 200 से अधिक मासूम बच्चों को खो चुका है। 

सूत्रों की जानकरी से पता चला है कि जितने भी बच्चे इस बीमारी का शिकार हुए है उनमें से 90 % से ज़्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार थे। 

क्या हो सकते है समाधान ??

इस मामले में आलोक मुखोपाध्याय का कहना है कि केंद्र और राज्य में स्वास्थ्य पर आवंटित होने वाला बजट बहुत कम है। जिसकी वजह से ना तो अस्पतालों में पूरी सुविधाएँ पहुँचती है और ना ही दवाइयाँ। यदि उस बजट को कुछ हद तक बड़ा दिया जाये तो हालात सुधीर सकती है। 

दूसरी ओर डॉ० शिव शरण सिंह जी का कहना है कि स्वास्थ बिना स्वछता के सही नहीं रह सकता। इन क्षेत्रों में गन्दगी का स्तर बहुत अधिक है। इसलिए यहाँ बीमारी लगातार बढ़ती ही जा रही है। 

नेशनल हेल्थ पॉलिसी में ही 2025 तक स्वास्थ्य बजट 2.5 प्रतिशत किए जाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। जबकि मौजूदा समय में भारत का स्वास्थ्य बजट 1.7 प्रतिशत है। हालाकिं फ़रवरी महीने में मोदी सरकार ने भारत के स्वास्थ्य बजट का पांच गुना आवंटित किया गया था। 

मिली जानकारी के अनुसार पूरे एशिया में देखा जाए तो का स्वास्थ्य पर बजट में भारत की हिस्सेदारी बहुत ही कम है यहां तक कि भारत इस मामले में बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे है। देखा जाये तो भारत में मानव संसाधनों की भी एक बड़ी समस्या है। यहां पढ़े-लिखे युवा यूं ही बेकार ही घूम रहे है। 

देश में चैरिटेबल स्वास्थ्य संस्थाओं को उन इलाकों में अस्पताल खोलने के लिए बढ़ावा देना चाहिए जहां ज़रूरत हो। इस मामले में आलोक मुखोपाध्याय कहते हैं, “भारत की नेशनल हेल्थ पॉलिसी में स्वास्थ्य बजट का लक्ष्य है 2.5 प्रतिशत, जबकि मौजूदा बजट 1.7 प्रतिशत है। उनका मानना है की यह स्वास्थ्य बजट कम से कम 3.5 प्रतिशत होना चाहिए जिसे खर्च नहीं बल्कि निवेश के रूप में देखना चाहिए। 

अब देखना यह होगा कि देश और राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था में सरकार कौन सा नया कदम उठाती है जिससे बिहार और उत्तरप्रदेश के साथ साथ अन्य राज्यों में भी स्वास्थ्य व्यवस्था का स्तर पहले से और सुधर जाए। 

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