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रसखान। इस्लाम धर्म के सैय्यद इब्राहिम कैसे बन गए महान कृष्ण भक्त ।

जैसे ही वे मंदिर पहुचें पुजारी ने उन्हे गैर मज़हब का कहते हुए मंदिर में प्रवेश करने के लिए मना कर दिया। कथा के अनुसार रसखान 3 दिन तक भूखे प्यासे मंदिर के बहार रोते-बिलखते रहे जब प्रभु से उनकी यह दशा देखी नहीं गयी तो उन्होंने स्वय रसखान जी को आकर दर्शन दिए और अपने हाथो से भोजन भी करवाया।

“प्रेम प्रेम सब कोउ कहत ,प्रेम न जानत कोइ ,
जो जन जाने प्रेम तो , मरे जगत क्यों रोइ।”

ब्रज भाषा के महान कवियों एवं श्री कृष्ण के महान भक्तों के में यदि “सैय्यद इब्राहिम” उर्फ़ “मियां रसखान” का नाम न लिया जाये तो ये दोनों काज अधूरे से लगते है। कहने का तातपर्य बिलकुल सीधा और सरल है “मियां रसखान” भगवान श्री कृष्ण जी के ऐस भक्त थे जिन्होंने अपने शब्दों,काव्यों में,पदों में भगवान कृष्ण वे सारी लीलाएं कलमबद्ध की हैं जो वे करते थे बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि को रसखान ने अपने शब्दों में बखूबी पिरोया है। उनके सभी काव्यों में प्रेम को ही जीवन का मूल आधार बताया गया है।  

“आनंद अनुभव होत नहीं , बिना प्रेम जग जान ,
के वह विषयानन्द कै , ब्रह्मानंद बखान। “

जीवन परिचय-

ऐसा माना जाता है कि रसखान का जन्म सन् 1533 से लेकर सन 1548 के बीच में हुआ । उनका मूल नाम “सैयद इब्राहिम” था। इनके जन्म स्थान में विद्वानों का मतभेद है कुछ इन्हे उत्तर-प्रदेश में हरदोई ज़िले के पिहनी गांव का रहने वाला खान बताते है , तो कुछ इन्हे दिल्ली के आस पास के इलाके का पठान मुसलमान बताते है।

वहीँ “प्रेम-वाटिका” में इन्होने खुद को शाही खानदान का बताया है। जन्म से मुस्लिम धर्म से सबंध रखने वाले रसखान पर श्री कृष्ण लीला ने ऐसा जादू किया कि वे जीवन भर के लिए कृष्ण के हो गए। उन्होंने “गोस्वामी श्री विट्ठलनाथ” जी से नाम-दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे।

“हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥”

कहते है कि उस वक़्त दिल्ली में बहुत गदर मच गया था हर जगह कल्तेआम खून खराबा आम होने लगा था इसलिए स्तिथियों से परेशान होकर रसखान मथुरा आ गए जहाँ पर उनके जीवन को एक नई दृष्टि व् मार्ग मिला। जिसने आगे चलकर ब्रजभाषा के श्रेष्ट कवियों में इनको शामिल कर दिया। इनकी रचनाओं में कृष्ण प्रेम के साथ साथ सूफी पीरों के प्रेम को भी प्रधानता दी गयी है।

जानकारों से पता चलता है कि रसखान इनका परिवार भी भगवतभक्त था इसलिए वे भी कृष्ण के अनुयायी बने लेकिन इस बात में कितनी सच्चाई है कहा नहीं जा सकता।

जो भी हो पर इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि रसखान को बचपन से ही किसी चीज़ का कोई अभाव नहीं था। ये बहुत ही रईस मुसलमान खानदान से ताल्लुक रखते थे लेकिन कृष्ण कृपा के भक्ति आनंद ने इन्हे प्रेम के रंग में डुबोया कि रसखान कृष्ण वैरागी बन गए। इनके सबंध में एक प्राचीन कथा भी विख्यात है

कहा जाता है कि एक बार रसखान जी अपने उस्ताद और कुछ लोगों के साथ हज यात्रा पर जा रहे थे। रास्ते में उनके उस्ताद ने कहा कि ये हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ स्थल यानि वृन्दावन आने वाला है जहाँ की यमुना में खतरनाक कालिया नाग रहता है जो आने वाले यात्रियों का शिकार कर लेता है इसलिए वहां से जल्दी निकलना सबके लिए सुरक्षित होगा।

उस्ताद जी के मुँह से ये बात सुनकर रसखान जी को उत्सुकता होने लगी और वे सोचने लगे कि जिस धाम में भगवान श्री कृष्ण का निवास होता है वहां कोई किसी का शिकार कैसे कर सकता है।

भगवान् श्री हरी के बारे में सोचते सोचते वे चलते जा रहे थे कि उन्हे मुरली की मधुर ध्वनि सुनाई देने लगी वे कुछ और सोचते कि धीरे धीरे उन्हे राधा रानी की पायलों की ध्वनि भी सुनाई देने लगी। उन्हे यमुना के कालिया नाग का भी भय था।

कहते है कि रसखान अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए जैसे ही यमुना में देखते है तो उन्हे राधे कृष्ण के नृत्य मुद्रा में दर्शन हुए थे ।

प्रभु दर्शन के बाद जैसे उन्हे सब कुछ ही भूल गया ,उन्हे अपनी कुछ सुध ही नहीं रही थी,मानो श्री हरी ने उनपर हाथ रख दिया हो। अब रसखान जी की प्रभु से मिलने की उत्सुकता जाग गयी थी वे वृन्दावन की गलियों में ज़ोर ज़ोर से शोर करके सभी को पूछने लगे कि “किसी ने मेरे प्रभु शाम सलोने को देखा है ?” आँखों से बहती हुई अश्रुधारा,नंगे पाँव और कृष्ण दर्शन की ललक। जब लोगों ने उनमे ये वैरागपन देखा तो उन्हे कृष्ण मंदिर का रास्ता दिखा दिया। 

जैसे ही वे मंदिर पहुचें पुजारी ने उन्हे गैर मज़हब का कहते हुए मंदिर में प्रवेश करने के लिए मना कर दिया। कथा के अनुसार रसखान 3 दिन तक भूखे प्यासे मंदिर के बहार रोते-बिलखते रहे जब प्रभु से उनकी यह दशा देखी नहीं गयी तो उन्होंने स्वय रसखान जी को आकर दर्शन दिए और अपने हाथो से भोजन भी करवाया।

इस घटना के बाद “रस की खान” कहे जाने वाले महान कवि “रसखान” ने कृष्ण भक्ति पर ऐसे ऐसे पद ,दोहे एवं काव्य लिखे कि कृष्ण भक्तों में गिने जाने वाले महान कवियों में वे अमर हो गए।

“भारतेन्दु हरिश्चन्द्र” ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। 

“प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥

काव्य और रसखान-

रसखान की भाषा पर्याप्‍त परिमार्जित और सरस तथा काव्‍योचित थी। ब्रजभाषा में जितनी उत्‍तमता से अपने हृदय के भाव वे व्‍यक्‍त कर सके, उतना और कवियों के लिये कष्‍ट साध्‍य था।

उनकी परमोत्‍कृष्‍ट विशेषता यह थी कि उन्‍होंने अपने लौकिक प्रेम को भगवद् प्रेम में रूपान्‍तरित कर दिया। असार संसार का परित्‍याग करके सर्वथा नन्‍दकुमार के दरबार के सदस्‍य हो गये। उन्होंने श्री मदभागवत ग्रंथ को ब्रज और फ़ारसी भाषा में भी कलमबद्ध किया।


“गावैं गुनि गनिका गंधरव औ नारद सेस सबै गुन गावत।
नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
जोगी जती तपसी अरु सिध्द निरन्तर जाहि समाधि लगावत।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत।”

रसखान की प्रसिद्ध रचनाएँ-

1.रसखान रत्नावली
2.प्रेम वाटिकासुजान-रसखान
3.कानन दै अँगुरी रहिहौं
4.मोरपखा सिर ऊपर राखि हौं
5.कंचन मंदिर ऊँचे बनाई के

ये सब आदि रसखान जी की प्रसिद्ध रचनाएं है। रसखान जी की मृत्यु के बारे में कोई किसी भी ग्रंथ में कोई भी पूर्णत उल्लेख नहीं है इसलिए इनकी मृत्यु के बारे में कोई भी कथा नहीं मिलती।

अधिकतर विद्वानों के कहे अनुसार 45 वर्ष की आयु में रस की खान कहे जाने वाले इस महान कवि ने कृष्ण लीलाओं का वर्णन करते हुए लगभग 1628 ईस्वी के आसपास अपना शरीर छोड़ दिया। आज भी श्री कृष्ण नगरी गोकुल में भक्त कवि रसखान की समाधि बनी है जिसका दरस करके आज भी भक्तजन उन्हे श्रद्धा भाव से याद करते है।

प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है।

वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।

आज भले ही महा कवि एवं कृष्ण भक्त रसखान जी हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके लिखे दोहे एवं काव्य पद आज भी हमारे बीच रहकर हमे ज्ञान के मार्ग के साथ साथ भक्ति के मार्ग पर भी अग्रसर करते है जिससे हम अपने जीवन को प्रभु चरणों से जोड़ सके। 

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