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कुछ ऐसी रही संत “श्री स्वामी विवेकानंद” जी के जीवन की अतुल्य अदभुद यात्रा।

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। नाकि भेदभाव बढ़ाना। स्वामी जी शिक्षा के क्षेत्र में कहते है कि शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास के साथ साथ बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने।

वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी सन 1863 कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली परिवार में हुआ। हिन्दू विद्वानों के अनुसार इनका जन्म मकर संक्रान्ति संवत् 1920 को हुआ। इनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था जो उस समय कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। और इनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। जिनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। 

कहा जाता है कि बालक नरेंद्र का झुकाव बचपन से ही आध्यात्मिकता की ओर था। कुशल बुद्धि के नरेंद्र नटखट और शरारती थे। लेकिन माता के धार्मिक विचार उन्हे कहीं का कहीं ले जाते। उनके घर में नियम पूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था। इसलिए बालक नरेंद्र का भी मानना था कि प्रत्येक जीव में परमात्मा की ही एक अलौकिक अंग विराजमान है। ईश्वर के बारे में जानने की लालसा इन्हे बचपन से ही थी। कहा जाता है कि ईश्वर को लेकर इनके सवाल इतने अदभुद  होते कि इनकी माँ अक्सर इन्हे पंडितों आदि के पास ले जाया करती थी।

इस तरह रही प्रारंभिक शिक्षा-

 इनकी प्रारंभिक शिक्षा ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में हुई,जहां इन्होने शिक्षा केंद्र में अपना कदम रखा। कुशल बुद्धि के नरेंद्र शिक्षा क्षेत्र में इतने तीव्र थे कि कहा जाता है वह एकमात्र ऐसे छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम  डिविज़न अंक प्राप्त किये। 

दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों के एक उत्साही पाठक नरेंद्र नाथ वेद और पुराणों के साथ साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत के भी धनी थे इन्होने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली इंस्टिटूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में किया।

इनकी तारीफ़ में सर विलियम हेस्टी (महासभा संस्था के प्रिंसिपल) ने लिखा है कि “नरेंद्र वास्तव में एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।” 

अध्यात्म,धर्म, ईश्वर और ब्रह्म समाज-

नरेंद्र नाथ बचपन से ही अध्यात्म,धर्म और ईश्वर में यकीन रखते थे। सन1880 में ये गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के विचारों से इतना प्रभावित हुए कि उनके अनुयायी बन गए. बाद में केशव चंद्र सेन व् देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में  ब्रह्म समाज भी अपनाया . जहाँ उन्होंने युक्तिसंगत, अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र ,वेदांत और उपनिषदों के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्ययन पर प्रोत्साहित किया।

वे अपने गुरु को अपना जीवन समर्पित कर चुके थे। उन्होंने अपने गुरु के स्वप्न के समाज को बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया। उन्होंने ने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य‍-मनुष्य‍ में कोई भेद न रहे।

विवेकानन्‍द जी को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। उन्होंने बताया कि आज के युवकों के लिये ओजस्‍वी सन्यासी का जीवन एक आदर्श है। उनका मानना था कि किसी भी राष्ट्र का विकास तब ही संभव है जब उसकी युवा शक्ति विकसित और देशप्रेमी होगी।

कहा जाता है कि 25 वर्ष की अवस्था में स्वामी जी ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। जिसके बाद उन्होंने पूरे भारत वर्ष की पदयात्रा की। दुनिया में धर्म की स्थापना के लिए उन्होने जापान के कई शहरों का दौरा करते हुए चीन,कनाडा और अमेरिका का भी दौरा किया और सन्‌ 1893 में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् में भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे।


उस समय कि यूरोप-अमरीका के लोग पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद जी को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले लेकिन वे ऐसा करने में सफल नहीं हुए।

कहतें है कि जब स्वामी जी ने मंच पर बोलना शुरू किया तो वहाँ के विद्वान तक उनके विचारो के कायल हो गए। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय  सा बन गया था। उनके ज्ञान के समुद्र में गोता खाने के बाद वहां के लोग तथा मीडिया उन्हे “साइक्लॉनिक हिन्दू” के नाम से जानने लगी थी।

1 मई 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके स्वामी जी ने पूरी दुनिया में शांति का संदेश पहुंचाया। यह मिशन दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्म योग मानता है स्वामी जी के गुरु अक्सर उन्हे यही सिखाया करते थे। 

उनकी छवि को देखते हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते है कि “यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िये” .

 फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां की कलम स्वामी जी को नमन करते हुए लिखती है कि “उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। वे केवल संत ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। 

अमरीका से भारत लौटकर उन्होने गुलाम भारत को तकलीफों से जूझते हुए देखा और देशवासियों को एक सूत में बांधते हुए कहा कि “नए भारत की शुरुआत के लिए हर कोई निकल पड़े, मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पड़े, झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।” उनकी ये आवाज़ जनता के दिलो को छूती हुई सबको सड़कों पर ले आयी .

गाँधी जी को आज़ादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह स्वामी जी के इस आह्वान का ही फल था।  वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा के स्रोत थे। देशवासियों के लिए उनका कथन है कि “‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ”। 

स्वामी जी ने ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला। उन्होंने कहा इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाये और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये। उनके इस ब्यान से भारत के लोगो ने सनसनी फ़ैल गयी। उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया।

वे अंग्रेजी  शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे। उनका मानना था कि इस प्रणाली का लक्ष्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना है उनका मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। नाकि भेदभाव बढ़ाना। स्वामी जी शिक्षा के क्षेत्र में कहते है कि शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास के साथ साथ बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने। उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक बल दिया।

अंतिम दिन-अंतिम यात्रा

कहा जाता है कि अपने अंतिम दिनों में स्वामी विवेकानंद जी ने  “शुक्ल यजुर्वेद” की व्याख्या की और कहा-“एक और विवेकानंद चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।” उनके अनुयायी कहते है कि 4 जुलाई 1920 स्वामी जी ने ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। उनके शिष्यों ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुए उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की। 

स्वामी विवेकानंद जैसी शख्सियत सदी में सिर्फ एक ही बार अवतरित होती है। आज भले ही स्वामी जी हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनके सिद्धांत उनके देशप्रेम की भावना , और उनके द्वारा किये गए अतुल्य अदभुद कार्य हमे हमेशा देश-प्रेम और प्रगति पथ पर बढ़ने के लिए अग्रसर करते रहेंगें .

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