Religion
Trending

मीराबाई- राजवधु मीरा से कृष्ण भक्त एवं प्रेम वैरागन मीराबाई तक ।

ब्राह्मण जनों को कष्ट में देखते हुए मीराबाई ने राजस्थान जाने के लिए हामी भर दी। शाम को जैसे ही वे कृष्ण मंदिर में पूजा अर्चना के लिए गयी तो बाहर ही नहीं आयी। जब पुजारियों ने अंदर जाकर देखा तो दंग रह गए , वहां मीराबाई थी ही नहीं,उनके स्थान पर श्री कृष्ण जी की प्रतिमा के हाथ में सिर्फ उनकी चुनरी रह गयी थी।

मीराबाई कृष्ण भक्त के नाम से विश्व भर जानी जाती है। हम कह सकते है कि भगवान कृष्ण के सभी भक्तों में वे सबसे सर्वश्रेष्ठ थीं। उनकी भक्ति का रस उनकी रचनाओं से खूब झलकता है। वे भक्ति आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय भक्ति-संतों में एक थीं। भगवान श्री कृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं और श्रद्धा के साथ गाए जाते हैं। 

बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में डूबी रहने वाली मीराबाई जी का जन्म संवत् 1498 विक्रमी में मेड़ता में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर में हुआ। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थल कुड़की ग्राम में मानते है।

पिता रतन सिंह राठौड़ एक छोटे से राजपूत रियासत के शासक थे। मीराबाई अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं बचपन में ही इनकी माता जी का निधन हो गया था। इसलिए इनका भरण पोषण इनके दादा की देख रेख में हुआ जो स्वयं  भी भगवान “श्री हरी”  के उपासक थे। 

एक राजपूत योद्धा होने के साथ साथ वे एक भक्त-हृदय के व्यक्ति थे और साधु-संतों की खूब सेवा करते थे शायद इसलिए नन्ही मीरा भी संगीत व् धर्म में अधिक रुचि रखती थी।

वेद,पुराण व् शास्त्र ग्रंर्थों की शिक्षा के साथ साथ इन्हे तीर, तलवार,रणनीति, घुड़सवारी, रथ चलाने और युद्ध संचालन की शिक्षा भी दी गयी थी। शास्त्र चलाने की शिक्षा ने मीरा को शुरू से ही निर्भय बना दिया था और धार्मिक दृष्टिकोण ने उन्हे एक उदार स्वभाव प्रधान किया। 

जन्म से ही मीठी और सरस वाणी रखने वाली मीरा जैसे जैसे बड़ी हुई वे अत्यधिक गुणवती,रूपवती और सुरीली होती गई। उनके श्री मुख से भगवान “श्री कृष्ण” के भजन से हर कोई प्रभावित होने लगा था। उनके सुन्दर रूप और मीठी वाणी की इतनी अधिक चर्चा होने लगी थी कि मेवाड़ के राजा महाराणा सांगा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र युवराज भोजराज के विवाह के लिए मीरा को उनके दादा से माँगा और सन1516 में मीरा मेवाड़ की राजकुमारी बन गयी। 

कहते है कि विवाह के 10 वर्ष बाद ही लगभग सन 1521 उनके पति भोजराज की मुग़लों के साथ एक युद्ध मृत्यु हो गयी । अभी पति की मृत्यु का ज़ख्म हरा ही था कि उनके पिता और श्वसुर भी मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के साथ युद्ध में घायल हो गए। माना जाता है कि बाद में उन्हे महल के ही कुछ षड्यंत्रकारियों ने ज़हर देकर मार डाला। 

उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु के बाद मीरा को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किंतु वे इसके लिए तैयार नही हुईं और धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गयी और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं।

कृष्ण भक्ति, मीरा और गुरु रवि-दास-

पति भोजराज के निधन के बाद मीराबाई की कृष्ण भक्ति निरंतर बढ़ने लगी थी। वे गली गली में कृष्ण भजन का सुमिरन करतीं और मंदिरों में कृष्ण प्रतिमा के सामने नाचने गाने लगती। एक तरह से वे कृष्ण नाम की जोगन बन चुकीं थी। लेकिन अभी तक उन्हे प्रभु की प्राप्ति नहीं हुई थी। 

जानकारी के अनुसार पता चलता है मीराबाई ने गुरु दीक्षा संत गुरु श्री रवि-दास जी से ली थी। जो अपना पूरा समय भगवान की भक्ति और लोगों के लिए जूते सिलने का काम करते थे। मीरा बाई कहती है कि सद्गुरु के बिना प्रभु की प्राप्ति असंभव है। गुरु और प्रभु का माहात्म्य वे अपने श्लोक से इस तरह देती है 

         “हरी बिना रहियो ना जाए ,

           गुरां बिना तरियो ना जाए”

अपने शब्दों में वे कहती है कि केवल संत गुरु रवि-दास जी द्वारा ही उन्हे अपने आध्यात्मिक देह की प्राप्ति हो सकी । इससे पहले वे प्रभु की खोज में दर दर भटकती रहती थी लेकिन गुरु रवि-दास जी ने उनको रूहानी मार्ग का ज्ञान दिया जिसे वे अपने आध्यात्मिक ह्रदय से रूहानी-मंडलों में अपने प्रियतम एवं प्रभु श्री कृष्ण को देख सकी। 

कुछ कहानियां ये भी कहती है कि गुरुरविदास जी ने उन्हे राम का नाम दिया था लेकिन वे कृष्ण प्रेम में इतनी मग्न थी कि उन्होने अपने जीवन में श्री कृष्ण नाम ही जपा। अपने काव्यों में उनके श्लोक है

 “मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा ना कोय” 

अर्थात इस पूरे सृष्टि व् पूरे ब्रह्मांड में उनका प्रभु “श्री कृष्ण” के अलावा दूसरा कोई भी नहीं है। और उनको प्राप्त करने का दिव्य मार्ग उन्हे संत रवि-दास जी ने दिया है। वे जान चुकी थी कि राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं है ये गुरुदेव की परीक्षा का एक प्रश्न है जिसे उन्होंने भलीभांति उत्तीर्ण किया। अब वे संसार में धर्म,जात,उंच-नींच के भेदभाव और अन्य मोह-माया को त्याग चुकी थी। 

लेकिन उनका इस तरह से साधू संतों के बीच बैठना ,गली गली जोगणों की तरह गाना और “श्री कृष्ण जी” की प्रतिमा के सामने जोगणों की तरह नृत्य करना उनके ससुराल(राज परिवार) को पसंद नहीं था।

उस समय राणा परिवार की महिलाएं किसी के सामने नहीं जाती थी राणा को बिलकुल पसंद नहीं था कि राज घराने की बहु कृष्ण नाम में इस तरह से लीन हो और किसी ऐसे व्यक्ति को अपना गुरु माने जो पेशे से लोगों के जूते सिलता हो। कहते है कि मीराबाई हर रोज़ अपने गुरु के दिव्य दर्शन के लिए जाया करती थी ,जो राणा को बिलकुल भी पसंद नहीं था। इसलिए राणा ने  मीरा को खत्म करने की योजना शुरू कर दी।

सबसे पहले उसने मीरा को मारने के लिए फूलों के गुलदस्ते में ज़हीरीले फनियर को भेजा, लेकिन जब वे फूल मीरा के हाथ लगे तो वे फनियर “श्री कृष्ण” की मूर्ति में बदल चुका था।

दूसरी बार राणा ने मीरा को विष का भरा हुआ प्याला भेजा जिसे मीरा ने चरणामृत समझ कर अपने कंठ में उतार दिया। प्रभु की लीला ही थी कि मीराबाई को कुछ भी नहीं हुआ। कहा जाता है। इसके बाद मीरा जगह-जगह मंदिरों में कृष्ण-भक्ति काव्य व् पद लिखती और गाती रही। 

एक कथा के अनुसार मीराबाई वृन्दावन में जब कृष्ण भक्त जीवं गोस्वामी से मिलने गयी तो “गोस्वामी” ने उन्हे मिलने से इंकार कर दिया क्योंकि उनकी प्रितज्ञा थी कि वे स्त्रियों को नही देखते थे। वे मुरली-धर की गोपी रूप में पूजा करते थे उनका मानना था कि इस नश्वर संसार में सिर्फ श्री कृष्ण ही एक पुरुष है बाकी सब स्त्रियां व् गोपियाँ है। 

जब मीरा बाई को पता चला कि वे स्त्रियों से नहीं मिलते तो मीरा बाई ने कहा कि “मैं तो समझती थी कि वृन्दावन में सिर्फ एक ही पुरुष है “कृष्ण”, लेकिन यहाँ कोई और भी है, जानकार बड़ा आश्चर्य हुआ। 

उनका इतना कहना था कि “गोस्वामी” की आंखे खुल गयी और उन्होंने बाहर आकर मीराबाई का स्वागत किया। 

कुछ समय बाद मीरा-बाई ने “द्वारिका” जाने का फैसला कर लिया उनका मानना था कि “श्री कृष्ण” के चरणों में  ही उनका निवास स्थान है। उनकी भक्ति व् प्रेम अब पूरी तरह विकसित हो चुका था। 

 कहा जाता है कि मीराबाई के राजस्थान छोड़ने के बाद ही राजस्थान का नाश शुरू हो गया था इसलिए वहां के ब्राह्मणों ने द्वारिका जाकर मीराबाई से पुनः राजस्थान आने का आग्रह किया लेकिन मीराबाई अब वहां जाना नहीं चाहती थी उनके इस निर्णय को देखते हुए ब्राह्मणो ने अन्न जल का त्याग कर दिया और कहा जब तक मीराबाई राजस्थान नहीं जाएंगी तब तक वे भूखे प्यासे ही रहेंगें। 

ब्राह्मण जनों को कष्ट में देखते हुए मीराबाई ने राजस्थान जाने के लिए हामी भर दी। शाम को जैसे ही वे कृष्ण मंदिर में पूजा अर्चना के लिए गयी तो बाहर ही नहीं आयी। जब पुजारियों ने अंदर जाकर देखा तो दंग रह गए , वहां मीराबाई थी ही नहीं,उनके स्थान पर श्री कृष्ण जी की प्रतिमा के हाथ में सिर्फ उनकी चुनरी रह गयी थी।

धीरे धीरे यह बात लोगो में फैलती चली गयी और मान लिया गया कि श्री कृष्ण भक्त मीरा श्री कृष्ण की मूर्ति में ही समा गयी है। 

मीरा-बाई के जीवन के बारे में तमाम पौराणिक कथाएँ और किवदंतियां प्रचलित हैं। ये सभी किवदंतियां मीराबाई के भक्ति रस और भगवान कृष्ण निर्भय प्रेम को दर्शाती है। इनकी कविताओं और रचनाओं के माध्यम से पता चलता है की किस प्रकार से मीराबाई ने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और भगवान श्री कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयी। 

उनका मानना था कि जब तक ह्रदय में सच्चे प्रेम की ज्योति ना जले तब तक प्रभु को पाना असंभव है। और गुरु एकमात्र ऐसी कुंजी है जो प्रभु से हमारी भेंट है।

मीरा जैसी वैरागिन ने इस सृष्टि को भक्ति पाठ का जो मार्ग दिखाया वो सच में अतुल्य एवं अलौकिक है जिसपर श्रद्धा भाव चलकर हम प्रभु की प्राप्ति कर सकते है क्योकिं इस नश्वर संसार में हर मनुष्य की आत्मा को आखिरकार परमात्मा में एक दिन लीन होना ही है इसलिए हमे मीराबाई की दिखाई राह से ह्रदय में प्रभु की जोत से स्वयं के साथ साथ दूसरों को भी भक्ति-मार्ग से रोशन करना चाहिए।  

Tags
Show More

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close