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देश की राजनीति में बिहार सदियों से राजनीति की प्रयोगशाला रहा है – सादात अनवर चन्द्रशेखरवादी

आजकल वैकल्पिक राजनीती की बहुत चर्चा है ! राजनीती में जनसरोकार, समन्वय, और शुचिता को प्राथमिकता देने पर बहस चल रही है ! देश का एक बड़ा वर्ग जाति ,बिरादरी और धर्म के इर्द गिर्द चक्कर लगा रही भारतीय राजनीती से ऊब गया है और नए अन्दाज़ में सियासत के मानी मतलब लगा रहा है !

Sadat Anwar Chandrashekharvadi

ऐसे लोगों का मानना है कि देश का हिन्दी भाषी क्षेत्र —- देश के राजनीति व बिहार राजनीती की प्रयोगशाला रहा है तो क्या बेहतर होता कि मुद्दों पर आधारित वैकल्पिक राजनीती की शुरुआत आगामी बिहार विधान सभा चुनाव से किया जाए !

इस मत के समर्थन में जे.पी ,लोहिया के नाम की रट लगाने वाले और जार्ज र्फर्नांडीस, चन्द्रशेखर, मधुलिमय , राजनारायण , किशन पटनायक , कर्पूरी ठाकुर सरीखे समाजवादी योधाओं के शिष्य राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और पटना समेत कई स्थानों पर सक्रिय हैँ !
साथ ही लालफीताशाही से मुक्त होकर कुछ प्रशासनिक अधिकारी ,पत्रकार ,लेखक ,प्रोफेसर भी इस मुहिम में चिंतन करते पाये जा रहे हैं और सबका दर्द एक ही है कि कैसे राजनीती में शुचिता आये ताकि भारतीयराजनीती को नया आयाम मिल सके !

इस संदर्भ में कई प्रकार की कोशिशें हो रही है ! कोई छोटे छोटे दलों का गठबंधन बनाकर आगामी बिहार विधान सभा चुनाव में सत्ता और विपक्ष दोनों से बेहतर विकल्प देने की बात कह रहा है तो दूसरा बुद्धिजीवी वर्ग एक नए दल का गठन कर जनसरोकार के मुद्दे पर सरकार की विफलताओं को गिनाकर नया विकल्प देने की तैयारी कर रहा है लेकिन एक सोच ऐसी भी है जिसका दावा है कि कुछ नामचिन्ह नेताओं का समूंह मिलकर अपने में से एक प्रसिद्ध नाम तय कर उसकी अगुवाई में चुनाव में जाए और एक नया विकल्प पेश करे !

इसी कड़ी में नेताओं के अलावा इसी मत के ज़मीनी कार्यकर्ताओं का मत उक्त सभी की राय से बिल्कुल भिन्न हैँ जो ये मानते हैँ कि समाज के सभी वर्गों को उचित भागीदारी और अवसर देकर जनता की मूल समस्याओं के समाधान के लिए ठोस योजना बनाकर जनमानस का समर्थन प्राप्त किया सकता है लेकिन शर्त ये है कि सब लोगों की सत्ता और शासन में भागीदारी सुनिश्चित हो !

ऐसे लोग ये मानते हैं कि समाज के अगड़े पिछडे अनुसूचित एवं अल्पसंख्यक को संगठन से सत्ता और शासन में भागीदार बनाकर ही कोई बड़ी लाईन बनाई जा सकती है जिसमे कोई किसी के साथ नाइंसाफी नही कर सके साथ ही किसी वर्ग विशेष का सत्ता पर वर्चस्व स्थापित न हो सके !

अब सवाल ये उठता है कि क्या उक्त सभी बिन्दु से साफसुथरी राजनीती की शुरुआत हो सकेगी जो जन मानस की भलाई के लिए कोई ठोस साबित हो ?

क्या ऐसी किसी पहल से जातिवाद परिवारवाद अतिवाद और उन्माद की बीमारी से निजात पाया जा सकता है?

क्या #युवावर्ग जो नेताओं के दिशाहीन बयानों से और सत्ता – विपक्ष के वारपलट से तंग आ चुका है ऐसी किसी वैचारिक राजनीती के नाम पर गोलबन्द हो रहे नेताओं पर विश्वास कर पायेगा या फिर युवा शक्ती ही नईमशाल लेकर राजनीती को बदलने पर विचार करेगी ??

यह जो भी प्रश्न है इनका जबाब तो समय ही बताएगा।

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