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आर्थिक उदारवाद का विषकारी प्रभाव और उससे उपजे सामाजिक चुनौतियां के बीच संघर्ष करता हिन्दुस्तान – भारत -NEW India

आर्थिक उदारवाद जैसे-जैसे भारत में बढ़ता गया वैसे वैसे समाज में असमानता, अश्लीलता, अभद्रता, जातिवाद, धर्मवाद सब अपने अपने पैर फैला कर अपनी अपनी जमीन तैयार करने लगे



आर्थिक उदारवाद इसमें मुक्त प्रतिस्पर्द्धा, स्व-विनियमित बाज़ार, न्यूनतम राज्य हस्तक्षेप और वैश्वीकरण इत्यादि विशेषताएँ शामिल हैं। रूस का साम्यवाद भारत के समाजवाद के लिए सहायक था परन्तु जैसे ही उसके साम्यवाद का अंत हुआ भारत में भी समाजवाद का अंत हो गया और पूर्णतया उदारवाद बढ़ते ही भारत में जातिवाद और अब धर्मवाद की लहरें हिलोरे मारने लगी और छद्म राष्ट्रवाद के विषाणु पुनः जागृत हो गए।

90 के दशक का दौर इकोनामिक क्राइसिस का दौर था और सच कहिए तो विश्व में आर्थिक नीतियों के परिवर्तन का त्रिकोणीय बिंदु था क्योंकि एक तरफ रूस में समाजवाद का अंत हो रहा था तो दूसरी तरफ भारत में आर्थिक उदारवाद की शुरुआत हो रही थी. इससे यह बात तो स्पष्ट है,की आर्थिक नीतियों का सामाजिक रिश्तो से बहुत गहरा संबंध है.

आर्थिक उदारवाद जैसे-जैसे भारत में बढ़ता गया वैसे वैसे समाज में असमानता, अश्लीलता, अभद्रता, जातिवाद, धर्मवाद सब अपने अपने पैर फैला कर अपनी अपनी जमीन तैयार करने लगे भारत में उदारवादी जातिवाद के रूप में मायावती मुलायमसिंह यादव , लालू प्रसाद यादव , राम विलास पासवान नीतीश कुमार आदि के रूप में हिंदी भाषी क्षेत्रों में अपना काम शुरू कर पाया तथा उदारवादी धर्मवाद के रूप में अटल विहारी वाजपेयी लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ने धर्म के चश्मे से देश में एक अलग तरह का छद्म राष्ट्रवाद और धर्मवाद के सहारे लोकतंत्र को अपने रूप से परिभाषित किया नतीजन अयोध्या बाबरी मस्जिद और देश में उथल पथल की राजनीती

उदारवाद की फलने फूलने के लिए जातिवाद दाहिने हाथ का काम करता है तो संप्रदायिकता या धर्मवाद बाएं हाथ का काम करता है क्योंकि यह लोगों को समाज को वास्तविक मुद्दे से भटका देता है. यही कारण है कि 90 से लगभग 2010 तक लगभग 20 वर्ष वह जातिवाद के ही बल पर चल पाया है अब चुकी उसकी आयु समाप्त हो गई इसलिए जातिवाद अब धर्मवाद का रूप ले चुका है जो लगभग 2012 14 से अनवरत सक्रिय है. पूंजीपति ऐसे जातिवादी तंत्र या संप्रदायिक तंत्र को पीछे से हवा देते हैं और सरकार पर दबाव डालकर अपनी नीतियों को लागू करवाते हैं संसद के माध्यम से और जनता इस खेल को समझ नहीं पाती.

यदि भारत की जनता 90 के दौर पर सरसरी निगाह डालें तो उसको यह अंतर सीधे प्रतीत हो जाएगा. जब तक समाजवाद का अंश जीवित था, भारत में तब तक पूंजी का राष्ट्रीयकरण हुआ लेकिन जैसे ही उदारवाद प्रभावी हुआ 90 के बाद वैसे वैसे सरकारी संस्थानों तंत्रों का निजीकरण होना शुरू हो गया और जनता पर महंगाई, भ्रष्टाचार, टैक्स का बोझ बढ़ता गया और जनता शिक्षा, स्वास्थ्य से दूर होती गई.

भारत में संप्रदायिकता अचानक नहीं बढ़ी इसे फलने फूलने में लगभग 25- 30 वर्ष लगा.  इस दौर में अब देखेंगे सरकारी स्कूल धीरे-धीरे समाप्त होते गए और प्राइवेट स्कूल, पब्लिक स्कूल और प्राइवेट यूनिवर्सिटी आदि बढ़ती गई और इनमें फीस वृद्धि कितनी हुई, इतनी बेतहाशा वृद्धि हुई कि एक आम इंसान को पढ़ने के लिए ऐसे ही बहुत बड़ा चैलेंज होता गया.  90 के दौर की पीढ़ी प्राइमरी स्कूल में पटरी पड़ी पड़ी थी और उसी से बड़े बड़े ऑफिसर भी बने मगर आज इसकी कल्पना करना बेमानी होगी.

उदारीकरण के बाद बहु-राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कंप्यूटर, रोबोट और सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग स्थानीय रोज़गार को प्रभावित कर रहा है, इस कारण से स्थानीय उद्योगों और संस्थाओं द्वारा उदारीकरण का विरोध किया जा रहा है। आज उदारवाद अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहा है क्योंकि पुनर्जीवित राष्ट्रवाद इसके सम्मुख एक स्थायी खतरा उत्पन्न कर रहा है। इसी राष्ट्रवाद के स्वरूप में विभिन्न देशों में कट्टरपंथ का उदय हो रहा है। इस प्रकार के विचारों से घिरी सरकारें अपने देश को संधारणीय और वैश्विक हितों को नज़रअंदाज़ करते हुए प्राथमिकता देने वाली नीतियों का निर्माण कर रहे हैं।


अंत में यही कहूंगा की जब-जब उदारवाद बढ़ेगा तब तक सांप्रदायिकता और जातिवाद समाज में जहर घुलता रहेगा. और इसका प्रतिफल या होगा समाज हिंसा का शिकार होगा और असमानता बढ़ेगी, समाज में अश्लीलता बढ़ेगी, बलात्कार की केस बढ़ेगी और इस तरह उदारवाद समाज को लीलता नजर आएगा. अतः यदि हम सब सांप्रदायिकता ,जातिवाद और बलात्कार से लड़ना चाहते हैं तो हमें उदारवाद के पूंजीपति वर्ग से पहले लड़ना होगा और आर्थिक असमानता को या विषमता को कम करना पड़ेगा. यह वर्तमान दौर में भारत के सामने चुनौती है तभी यहां सांप्रदायिकता, जातिवाद और असमानता से हम लड़ सकते हैं.


डॉक्टर हेमंत कुमार सिंह प्रोफ़ेसर थाईलैंड यूनिवर्सिटी


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