जानिेए कौन थे हज़रत इमाम हुसैन और क्या होता है मोहर्रम।
कर्बला के दरिया-ए-फरात के किनारे हज़रात इमाम व् उनके बीवी बच्चों को घेर कर उनका खाना-पानी तक बंद कर गया। यज़ीद की शर्त सिर्फ एक थी कि इमाम उनका गुलाम बने और इस कुकर्मी शासन को स्वीकारे,लेकिन हज़रात इमाम ने ज़ालिम राजा के आगे घुटने नहीं टेके और अपने आदर्शों पर अटल रहे।
जब जब इस धरती पर अधर्म का प्रकोप फैला है तब तब ही कुदरत ने किसी न किसी फ़रिश्ते को इस धरती पर धर्म और सत्य स्थापित करने के लिए भेजा है। ऐसे ही खुदा का एक फरिश्ता इस धरती पर हज़रात इमाम हुसैन की शक्ल में आया। जिसने लाचारों और बेचारों की हिफाज़त करते हुए अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी।
उनका मानना था कि अल्लाह के अलावा दुनिया में कोई भी सर्वश्रेष्ठ नहीं है। वे हमेशा लोगों को जगाने और आदर्शों की बातें किया करते थे। वे कहते थे कि बुराई के सामने सर झुकाने से अच्छा है सर कटवा दिया जाये। कर्बला में कुकर्मी शासन के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए इन्हे 10 अक्टूबर सन 680 में प्यासा ही शहीद कर दिया गया।
आज हज़रत इमाम हुसैन को इस्लाम में एक पूजनीय शहीद का दर्ज़ा प्राप्त है। इनकी शाहदत के दिन को आशूरा (दसवाँ दिन) कहते हैं और इस शहादत की याद में आज भी मुहर्रम (उस महीने का नाम) मनाया जाता हैं।
जीवन परिचय – हज़रत इमाम हुसैन जी का पूरा नाम “अल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब था” जो अबी तालिब के पोते और अली के बेटे अल हुसैन अली रदियल्लाहु के दूसरे बेटे थे। इस कारण से ये पैग़म्बर मुहम्मद के नाती थे । इनके वालिद का नाम “हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम” और वालिदा का नाम “हज़रत फ़ातिमा ज़हरा अलैहस्सलाम” था।
इतिहास के पन्ने बताते है कि इनका जन्म 8 जनवरी सन् 626 CE यानी तीन हिजरी में रमज़ान मास की चौदहवीं (14) तारीख को पाक शहर मक्का – मदीना में हुआ था। हज़रात अपने माता पिता की दूसरी संतान थे। इतिहासकार जलालुद्दीन अपनी किताब तारीख़ुल खुलफ़ा में लिखते है कि इमाम की सूरत हज़रत पैगम्बर (स.) से हूँ ब हू मिलती थी।
भरण पोषण – हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पालन पोषन इनकी माता पिता के साथ साथ अल्लाह के पैगम्बरं यानी इनके नाना की देख रेख में हुआ। इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स.) के साथ रहे।
इस्लाम के जानकार बताते है कि इनके नाना हज़रत पैगम्बर को इनसे बहुत लगाव था। शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है कि पैगम्बर साहब ने कहा कि “हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूँ। या अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।”
प्राचीन कथा – एक पुरानी कथा के अनुसार मुआविया ने अली अलैहिस्सलाम से खिलाफ़त के लिए जंग लड़ी थी। नियम के मुताबिक अली के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र हसन अलैहिस्सलाम को खलीफ़ा बनना था। लेकिन मुआविया को ये बात पसन्द नहीं थी। वो हसन अलैहिस्स्लाम से सिर्फ खिलाफ़त की गद्दी चाहता था। इसलिए षड्यंत्रों के चलते उसने हसन अलैहिस्स्लाम को ज़हर पिलवाकर शहीद कर डाला। उनकी शहादत दस वर्षों तक हिजरी में लोग मुआविया का विरोध करते रहे।
मुआविया के देहांत के बाद वहां उसके बेटे यज़ीद का कुकर्मी शासन शुरू हो गया। यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत इमाम हुसैन से बैअत
(आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, लेकिन हज़रात इमाम हुसैन ने बैअत करने से मना कर दिया। अपने धर्म इस्लाम की रक्षा के लिए उन्होंने याज़िद प्रथम खलीफ़ा के खिलाफ विद्रोह छेड दिया।
कहा जाता है धन, दौलत, पद व सुविधाओं के लालच में इमाम के सहयोगियों ने भी इमाम के साथ विश्वासघात किया और उनका साथ छोड़ दिया। अंत में इमाम हुसैन ने भारत के हिन्दू राजा समुद्रगुप्त से मदद की पुकार की। जब ज़ालिम शासक यज़ीद को इस बात का पता चला तो उसने जुमलों की हद्द कर दी।
कर्बला के दरिया-ए-फरात के किनारे हज़रात इमाम व् उनके बीवी बच्चों को घेर कर उनका खाना-पानी तक बंद कर गया। यज़ीद की शर्त सिर्फ एक थी कि इमाम उनका गुलाम बने और इस कुकर्मी शासन को स्वीकारे,लेकिन हज़रात इमाम ने ज़ालिम राजा के आगे घुटने नहीं टेके और अपने आदर्शों पर अटल रहे।
दूसरी और इमाम का खत मिलते ही राजा ने अपने बहादुर ब्राह्मण योद्धाओं को कर्बला में कूच करने का आदेश दे दिया। लेकिन भारत से जब तक वे सैनिक कर्बला की सरज़मीं में पहुँचते। कर्बला लाल सुर्ख लहू से रंगा जा चुका था।
हज़रात इमाम हुसैन को तड़पा तड़पा कर शहीद कर दिया गया था। इमाम की शाहदत के बाद वहां हिन्दू योद्धाओं ने बदला-ए-इमाम का नारा लगाया और अपनी तलवारों को अधर्मियों के खून से रंगना शुरू कर दिया। इस जगह को कर्बला में हिंदिया के से आज भी जाना जाता है।
कहा जाता है हज़रात इमाम ने मरते वक़्त कहा था कि मुझे मेरे नाना के बराबर में दफ्न करना।
इसी घटना के उल्लेख में अबुल फरज इसफ़हानी अपनी किताब मक़ातेलुत तालेबीन में बताते है कि जब इमाम हसन अलैहिस्सलाम को दफ़्न करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को रोज़े पर ले गये तो आयशा (हज़रत पैगम्बर इस्लाम (स.) की एक पत्नि जो पहले ख़लीफ़ा की पुत्री थी) ने इसका विरोध किया तथा बनी उमैया व बनी मरवान आयशा की सहायता के लिए आ गये व इमाम हसन अलैहिस्सलाम के दफ़्न में बाधक बने।
अन्ततःइमाम हसन अलैहिस्सलाम के ताबूत (अर्थी) को जन्नातुल बक़ी नामक कब्रिस्तान में लाया गया और दादी हज़रत फ़ातिमा बिन्ते असद के बराबर में दफ़्न कर दिया गया।
मुहर्रम – मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है,क्योकि इसी माह में कर्बला में धर्म की रक्षा करते करते अल्लाह के पगैम्बर के नाती हज़रत इमाम हुसैन को शहीद किया गया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे।
तभी से तमाम दुनिया के ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि दूसरी क़ौमों के लोग भी इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनको याद करते हैं। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है।
ताजिया – भारत में 12वीं शताब्दी में ग़ुलाम वंश के पहले बादशाह कुतुब-उद-दीन ऐबक के समय से ही राजधानी दिल्ली में इस मौक़े पर ताज़िये (मोहर्रम का जुलूस) निकाले जाते रहे हैं।
इस दिन शिया मुसलमान इमामबाड़ों में जाकर मातम मनाते हैं और ताज़िया निकालते हैं। भारत के कई शहरों में मोहर्रम में शिया मुसलमान मातम मनाते हैं लेकिन आज भी भारत का लखनऊ इसका मुख्य केंद्र रहता है।
धर्म औए सत्य की रक्षा के हज़रात इमाम की शाहदत हमे बताती है कि हमे ज़ुल्म के आगे कभी झुकना नहीं चाहिए। उनका मानना था कि सत्य का मार्ग कठिन ज़रूर है लेकिन अल्लाह के करीब है। इसलिए हमेशा सत्य का हाथ थामे और उस परम ईश्वर की रज़ा में रहें।