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ऐसी रही बाबा बुल्ले शाह जी की अदभुद जीवन यात्रा।

कहा जाता है कि बुल्ले शाह जी के परिवार जनों ने उनका शाह इनायत का चेला बनने का विरोध किया था क्योंकि बुल्ले शाह का परिवार पैग़म्बर मुहम्मद का वंशज होने की वजह से ऊँची सैय्यद जाति का था जबकि शाह इनायत जाति से आराइन थे, जिन्हें निचली जाति का माना जाता था। लेकिन बुल्ले शाह इस विरोध के बावजूद शाह इनायत से जुड़े रहे और अपने मुरशद को नहीं छोड़ा।

भारत की भूमि सदियों से महापुरुषों की भूमि रही है। यहां समय समय पर ऐसे कई महान संतों ने जन्म लिया जिनका जीवन सिर्फ दुनिया को ज्ञान व् भक्ति मार्ग दिखाने में ही निकल गया। इनमे फिर सिख धर्म के पहले गुरु नानकदेव जी हो ,या फिर महान कृष्ण भक्त मीरा बाई समय समय पर भारतवर्ष की मिट्टी ने दुनिया को प्रभु से जोड़ने के लिए महापुरषों जन्म दिया ही है।

ऐसे ही पंजाब की मिट्टी में बाबा बुल्ले शाह का जन्म हुआ। बुल्ले शाह का असली नाम अब्दुल्ला शाह था। इनका जन्म सन् 1680 में हुआ। इनके जन्म स्थान के बारे में इतिहासकारों की दो राय हैं। कई लोगों का मानना है कि बुल्ले शाह  पाकिस्तान में स्थित बहावलपुर राज्य के “उच्च गिलानियाँ” नामक गाँव से थे, जहाँ उनके माता-पिता पुश्तैनी रूप से रहते थे। 

लेकिन वहां से किसी कारण बाबा बुल्ले शाह मलकवाल गाँव आ गए। यहाँ पर पाँडोके नामक गाँव के मालिक अपने गाँव की मस्जिद के लिये मौलवी ढूँढते आए और इस कार्य के लिए बुल्ले शाह के पिता शाह मुहम्मद दरवेश जी को चुना जिसकी वजह से बुल्ले शाह के माता-पिता पाँडोके बसने लगे। लेकिन दूसरी ओर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बुल्ले शाह का जन्म पाँडोके में हुआ था।

आपको बता दें कि बुल्ले शाह के दादा सय्यद अब्दुर रज्ज़ाक़ थे जो सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी के वंशज थे। बुल्ले शाह मुहम्मद की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे। सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी बुल्ले शाह के जन्म से तीन सौ साल पहले सुर्ख़ बुख़ारा नामक जगह से आकर मुलतान में बसे थे।

इनके पिता शाह मुहम्मद को अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का अच्छा ज्ञान था जिसकी वजह से बुल्ले शाह को काव्य से प्रेम होने लगा था। इनकी शिक्षा उस्ताद हज़रत ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा सरीखे ख्यातनामा द्वारा कसूर में ही हुई। आपको बता दें कि पंजाबी कवि वारिस शाह ने भी ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा से ही शिक्षा ली थी। जिन्हीने मशहूर पंजाबी काव्य हीर की रचना की थी। बाबा बुल्लाह अरबी, फारसी के विद्वान होने के साथ-साथ आपने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो के भी गुणी थे। इनके सूफी गुरु  इनायत शाह जी थे।

वारिस शाह जी

कहा जाता है कि बुल्ले शाह जी के परिवार जनों ने उनका शाह इनायत का चेला बनने का विरोध किया था क्योंकि बुल्ले शाह का परिवार पैग़म्बर मुहम्मद का वंशज होने की वजह से ऊँची सैय्यद जाति का था जबकि शाह इनायत जाति से आराइन थे, जिन्हें निचली जाति का माना जाता था। लेकिन बुल्ले शाह इस विरोध के बावजूद शाह इनायत से जुड़े रहे और अपने मुरशद को नहीं छोड़ा अपनी कविता में वे लिखते है कि

“बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ  ‘मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ आल नबी, 

औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?’ ‘जेहड़ा सानू स​ईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ  जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ “

अर्थात जो हमे सैयद कहेगा उसे दोजख की सजा मिलेगी और जो हमे अराईं कहेगा वह स्वर्ग में झूला झूलेगा।

कहा जाता है कि जब गुरू की तलाश में बुल्ले शाह इनायत जी के पास बगीचे में पहुँचे तो उन्हे कार्य में व्यस्त देख अपने आध्यात्मिक अभ्यास की शक्ति से परमात्मा का नाम लेकर पेड़ पर लगे आमों की ओर देखा तो स्वत पेड़ों से सारे आम गिर गए।

जब गुरु मुरशद पाक ने पूछा “क्या यह आम अपने तोड़े हैं?” बुल्ले शाह ने कहा “न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके, भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ;” गुरु मुरशद बुल्ले को अब भांप गए थे।  बुल्ले को देखते हुए बोले “अरे तू चोर भी है और चतुर भी” ये देखकर बुल्ला गुरु जी के चरणों में पड़ गया और कहा “साईं जी उस समय आप पनीरी क्यारी से उखाड़ कर खेत में लगा रहे थे। जवाब में गुरु कहते है “बुल्लिहआ रब दा की पौणा। एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा” अर्थात मन को संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर मोड़ देने से रब मिल जाता है। 

“आ मिल यार सार लै मेरी, मेरी जान दुक्खां ने घेरी ।अन्दर ख़ाब विछोड़ा होया, ख़बर ना पैंदी तेरी ।

सुंञे बन विच लुट्टी साईआं, सूर पलंग ने घेरी । इह तां ठग्ग जगत दे, जेहा लावन जाल चफेरी।

बुल्ले शाह व् उनकी गुरु भक्ति के किस्से दुनिया भर में मशहूर है। एक बार बुल्ले शाह जी की इच्छा हुई कि मदीना शरीफ की जियारत को जाएँ। उन्होंने अपनी इच्छा गुरु जी को बताई। इनायत शाह जी ने वहाँ जाने का कारण पूछा। बुल्ले शाह ने कहा कि वहाँ हज़रत मुहम्मद का रोजा शरीफ है और स्वयं रसूल अल्ला ने फ़रमाया है कि जिसने मेरी कब्र की जियारत की,मतलब उसने मुझे जीवित देख लिया।”

बुल्ले की ये बात सुनकर गुरु जी ने कहा कि इसका उत्तर मैं तीन दिन बाद दूंगा। तीसरे दिन बुल्ले शाह ने सपने में हज़रत रसूल के दर्शन किए। रसूल अल्ला ने बुल्ले शाह से कहा, “तेरा मुरशद कहाँ है? उसे बुला लाओ।” रसूल ने इनायत शाह को अपनी दाईं ओर बिठा लिया।

बुल्ला नज़र झुकाकर खड़ा रहा। जब नज़र उठी तो बुल्ले को लगा कि रसूल और मुरशद की सूरत बिल्कुल एक जैसी है। वह पहचान ही नहीं पाया कि दोनों में से रसूल कौन है और मुरशद कौन है। इसके बाद बुल्ले शाह गुरु मुरशद के रंग में ऐसा रंगा दुनिया आज तक उसके रंग को पहचान ने के लिए बुल्ले की कविताए जाती और पढ़ती है। 

“ऐसी आई मन में काई,दुख सुख सभ वंजाययो रे,
हार शिंगार को आग लगाउं,घट उप्पर ढांड मचाययो रे”

कहते है कि उनकी काव्य रचना उस समय हर तरह की धार्मिक कट्टरता और गिरते सामाजिक किरदार पर एक तीखा व्यंग्य है। उनकी रचना लोगों में अपने लोग जीवन में से लिए अलंकारों और जादुयी लय की वजह से बहुत ही मनमोहक है। इन्होंने अपने मुरशद को सजण, यार, साईं, आरिफ, रांझा, शौह आदि नामों से पुकारा है|

बाबा बुल्ले शाह ने बहुत बहादुरी के साथ अपने समय के हाकिमों के ज़ुल्मों और धार्मिक कट्टरता विरुद्ध आवाज़ उठाई। बाबा बुल्ल्हे शाह जी की कविता में काफ़ियां, दोहड़े, बारांमाह, अठवारा, गंढां और सीहरफ़ियां शामिल हैं । उन्होंने जात-पात जैसे भेद-भाव को खत्म करके गुरु पूजा में एक नया विशवास दिखाया। 

बुल्ले शाह अपने मुरशद पाक को अपना माँ-बाप ,बहन भाई ,पति परमेश्वर और भगवान् से बड़ा मानते थे। बुल्ले शाह ने पंजाबी में कविताएँ लिखीं जिन्हें “काफ़ियाँ” कहा जाता है। अपनी काफ़ियों में उन्होंने “बुल्ले शाह” तख़ल्लुस का प्रयोग किया है। आज बाबा बुल्ले शाह जी हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके लिखे गीत ,काफियां ,दोहे , नज़्में , पद आदि आज भी नए व् पुराने गायकों द्वारा गए जाते है। अपनी गुरु भक्ति में वे इतने लीं हो चुके थे कि वे अपने

इनकी मृत्यु 1757-59 के आस पास लाहौर के कसूर में हुई जोकि अब पकिस्तान के हिस्से में आता है। वहां पर इनकी स्मारक समाधि को आज भी आदर के साथ पूजा जाता है। कहा जाता है कि वहां आय दिन बाबा बुल्ले के भजन लगे रहते है। बुल्ला शाह जी मुख्य रूप से इस्लाम से थे लेकिन उन्होंने कभी भी धर्मों में फ़र्क़ नहीं किया वे कहते थे।

“बुल्ल्हआ चेरी मुसलमान दी, हिन्दू तों कुरबान ।
दोहां तों पानी वार पी, जो करे भगवान ।

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