सूफी संत बाबा गुलाम फरीद उर्फ़ ख्वाजा फारीदुद्दीन मसूद गंजशकर जी की जीवन यात्रा ।
गुरुग्रंथ साहिब में बाबा जी की बाणी के श्लोक विद्यमान हैं जिन्हें "सलोक फरीद जी" कहा जाता है| इनकी सारी ही बाणी कल्याणकारी तथा उपदेश प्रदान करने वाली है| इनकी मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि 1266 सीई में मुहर्रम महीने के पांचवें दिन, न्यूमोनिया बीमारी से पीड़ित होने के कारण बाबा फरीद जी ने इस दूनिया को सदा के लिए अलविदा कह दिया। और पाक पत्तन शहर के बाहर दफनाये गए ।

भारत प्राचीन काल से ही संत,ऋषियों,मुनियों और ज्ञानियों की धरती रही हैं। यहाँ समय समय पर संत महापुरुषों ने जन्म लिया है और दुनिया को ज्ञान व् सत्य का पाठ पढ़ाने में अपने जीवन को न्योछावर किया है। ऐसे ही महान संतो में से एक सूफी संत श्री बाबा गुलाम फरीद जी थे जिन्होंने अपने भक्ति की शक्ति से दुनिया को ज्ञान का पाठ पढ़या।
पंजाब के इस सूफी संत को पंजाब की मिटटी का पहला कवि भी कहा जाता है। क्योंकि बाबा फरीद की प्रेरणादायी और जीवन संबधी कविताएं सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में लिखी हैं।
हालांकि बाबा मुस्लिम थे, लेकिन फिर भी हिन्दू, सिख आदि सभी धर्म के लोगों ने उनका बहुत सम्मान किया। आज के समय में पंजाब के साथ साथ पूरे उत्तर भारत और पडोसी मुल्क पकिस्तान में बाबा फरीद शाह को बड़े आदर के साथ पूजा जाता है।
जीवन परिचय – बाबा फरीद जी का जन्म 1173 ईस्वी के रमजान महीने में पंजाब के कोठवाल गाँव (जोकि अब पकिस्तान का हिस्सा है) में हुआ। इनका वंशगत संबंध काबुल के बादशाह फर्रुखशाह से माना जाता है। कहा जाता ही कि महज़ 14 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही ये ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के शिष्य बन गए थे ।

चिश्ती सिलसिले में अपने गुरु से नाम की दीक्षा प्राप्त कर फरीद गुरु के साथ ही मुल्तान से देहली पहुँचे और ईश्वर के ध्यान में समय व्यतीत करने लगे। उन्होंने दुनिया को हमेशा सत्य व् अहिंसा के मार्ग के लिए प्रेरित किया। वे कहते थे-
जो तैं मारण मुक्कियाँ, उनां ना मारो घुम्म,
अपनड़े घर जाईए, पैर तिनां दे चुम्म।
इनके “शकर गंज” नाम होने पर एक प्राचीन कथा सामने आती है। जानकार बताते है कि बालक फरीद को अपनी माँ द्वारा रोजाना नमाज अदा करने के लिए हर रोज़ कहा जाता था। लेकिन वो कहता था कि मुझे अल्लाह से क्या मिलेगा? मैं क्यों करूँ नमाज?
कहते है कि बाबा शेख फरीद जी को खजूर बहुत पसंद थे इसलिए एक दिन उनकी माँ ने उनसे कहा कि अगर तू नमाज़ अता करेगा तो अल्लाह तुझे खजूर देगा। बाबा फरीद की माँ ने नमाज अदा करने के लिए एक चटाई डाली और उस चटाई के नीचे कुछ खजूर छिपा दिए ताकि वह उसे अल्लाह का वरदान समझे। ऐसा कुछ रोज़ चलता रहा।
एक दिन बाबा फरीद की माँ चटाई के नीचे खजूर रखना भूल गई, लेकिन उसकी नमाज के बाद एक करिश्मा हुआ उसने चटाई के नीचे खजूर रखे पाये। कहते है कि उस दिन से माँ ने बेटे को “शकर गंज” के नाम से बुलाना शुरू कर दिया। इन्हे शुरू से ही किसी की निंदा करना नहीं भाता था। अपने एक दोहे में बाबा जी लिखते है कि –
जे तू अकल लतीफ हैं, काले लिख ना लेख,
अपनड़े गिरह बान में, सिर नीवां कर वेख।

देहली में शिक्षा दीक्षा पूरी करने के उपरांत बाबा फरीद ने १९-२० वर्ष तक हिसार जिले के हाँसी नामक कस्बे में निवास किया। देहली में शिक्षा दीक्षा का ज्ञान लेते हुए बाबा ने अरबी, फारसी और अन्य भाषाओं ओके बखूबी सीख लिया था। लेकिन अपनी मात्र भाषा पंजाबी के साथ इन्हे खूब लगाव रहा ,इसलिए इन्होने अपने सभी दोहों को पंजाबी भाषा में ही कलमबद्ध किया।
इनकी लगन और भक्ति को देख कर इनके गुरु ने भविष्यवाणी कर दी थी कि एक दिन फरीद एक दिन एक महान संत बनेंगे। कहा जाता है कि उस समय पंजाबी साहित्य में बहुत ज्यादा सार नहीं था लेकिन बाबा फरीद के दोहों के बाद उन्हे दूर-दूर तक जाना जाने लगा। इनके दोहो में भक्ति मार्ग की खूब छवि दिखती है। बाबा फरीद ने साहित्यिक काम के लिए पंजाबी भाषा का प्रदर्शन उस समय किया जब यह भाषा बहुत कम परिष्कृत मानी जाती थी।
कहा जाता है कि बाबा फरीद के शहर को मोखलपुर के नाम से जाना जाता था। एक दिन वे राजा मोखल के किले के पास चालीस दिनों के लिए अलगाव के लिए बैठे थे। राजा इस अदभुद दिव्य व्यक्ति से बहुत प्रभावित हुआ और उस शहर का नाम उनके नाम के साथ जोड़ दिया।

वह स्थान जहाँ बाबा फरीद ने बैठकर ईश्वर ध्यान किया था उसे आज बाबा फरीद का टीला के रूप में जाना जाता है। हर साल इस शहर में बाबा को याद रखने के लिए, तीन दिवसीय त्यौहार जिसे “बाबा शेख फरीद आगमन पूर्व मेला” कहा जाता है, 21 सितंबर से 23 सितंबर तक मनाया जाता है। आज के समय पंजाब प्रांत में स्थित इस शहर को फरीदकोट शहर के नाम से भी जाना जाता है।
मर्त्यु – पंजाबी साहित्य परंपरा और आधुनिक पंजाबी संस्कृति का संस्थापक व् सूफी संत बाबा फरीद ने जगह जगह घूम कर लोगों को भक्ति व् प्रेम का मार्ग सिखाया। अपने एक दोहे में ये कहते है कि
बिरहा बिरहा आखिए, बिरहा हुं सुलतान,
जिस तन बिरहा ना उपजै, सो तन जान मसान।
श्री गुरुग्रंथ साहिब में बाबा जी की बाणी के श्लोक विद्यमान हैं जिन्हें “सलोक फरीद जी” कहा जाता है| इनकी सारी ही बाणी कल्याणकारी तथा उपदेश प्रदान करने वाली है| इनकी मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि 1266 सीई में मुहर्रम महीने के पांचवें दिन, न्यूमोनिया बीमारी से पीड़ित होने के कारण बाबा फरीद जी ने इस दूनिया को सदा के लिए अलविदा कह दिया। और पाक पत्तन शहर के बाहर दफनाये गए ।
पाक पत्तन बाबा फरीद द्वारा महान सूफी विचारों के निवास के रूप में बनवाया गया था। जिस स्थान पर फरीद को दफनाया गया था और उस स्थान को शहीद की कब्र के रूप में भी जाना जाता है। उनके उत्तराधिकारियों को चिश्ती के रूप में जाना जाता है।

बिरहा बिरहा आखिए, बिरहा हुं सुलतान,
जिस तन बिरहा ना उपजै, सो तन जान मसान।
बाबा फरीद के शिष्यों में हजरत अलाउद्दीन अली आहमद साबिर कलियरी और हजरत निजामुद्दीन औलिया को अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। वास्तव में बाबा फरीद के आध्यात्मिक एवं नैतिक प्रभाव के कारण उनके समकालीनों को इस्लाम का सन्देश समझने समझाने में बड़ी सुविधा हुई। जिसका प्रचार बाद में उनके समकालीनों द्वारा हुआ। वे कहते थे
रुखी सुक्खी खाय के, ठण्डा पाणी पी,,
वेख पराई चोपड़ी, ना तरसाईये जी।
आज भले ही बाबा फरीद हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके लिखे दोहे और पद आज भी दुनिया को भक्ति ,प्रेम व् ज्ञान के मार्ग पर बढ़ने के लिए अग्रसर करते रहतें है।