वर्तमान केंद्र सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों और उत्तर्दाइत्वों से इतर होकर जन-विरोधी कार्यों में संलिप्त !
आज ज़रूरत है देश के अंदर विकास के बजाय सतत विकास की . जिसके द्वारा नए व्यक्तिगत उद्यमों की स्थापना के बजाय सार्वजनिक कॉपरेटिव संस्थाओं के विकास पर बल दिया जाये जिसके कारण किसी भी राज्य से अस्थाई या स्थाई पलायन को रोक कर के उसी जगह पे युवाओं को वो समुचित रोज़गार दिए जाएँ जिसके लिए वो उपयुक्त है फलस्वरूप बढ़ती हुई आर्थिक अंसन्तुलन की धारा पर विराम लगना संभव हो सकेगा अन्यथा आने वाली पीढ़ी के पास बेरोजगारी के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
23 अप्रैल 1956 को जिस संस्थान की नींव भारत के प्रथम राष्ट्रपति स्व. डॉ राजेंद्र प्रसाद जी ने रखी थी वह संस्थान आज आंदोलनों का अखाड़ा नज़र आता है। अपने समग्र काल में (1956-2019) जिसने अनवरत एक नया मुक़ाम स्थापित किया और देश को डीज़ल रेल इंजन के लिए आत्मनिर्भर बनाया तथा विदेशों को भी अपनी तकनीकी क्षमताओं से रूबरू करवाया,आज वही संस्थान सरकारों के जन विरोधी निर्णयों से अपने आप को निरीह महसूस कर रहा है।
उत्तर-प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व् भारत सरकार के पूर्व रेल-मंत्री स्व. कमलापति त्रिपाठी जी ने अपने कार्यकाल में जो सौगात देश और प्रदेशों को दी जिसके कारण पूर्वांचल के छवि में अभूतपूर्व बदलाव हुआ जिससे हम इनकार नहीं कर सकते।
आज वही संस्थान डीजल रेल कारखाना dlw अब निगमीकरण की राह पर दिख रहा है जिसके ज़िम्मेवार प्रमुख रूप से वाराणसी के सांसद माननीय श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी है जो सौभाग्य से इस देश के प्रधानमंत्री भी है। आप सभी जानते होंगे कि विगत 5 वर्षों के कार्यकाल में अनेकों बार वाराणसी प्रवास के दौरान प्रधानमंत्री जी स्वयं लाव-लश्कर के साथ “डी-एल-डब्लू” के प्रांगण में भी आ चुके है
आपको यह जानकार अति आश्चर्य होगा कि 1956 से लगातार “डी-एल-डब्लू” ने कईं उल्लेखनीय कार्य किये है जिसमे कुछ निचे लिखे है और यह जानकारी DLW के ऑफिसियल वेबसाइट से ली गई है
ये सभी आंकड़े हमे “डी-एल-डब्लू” की वेबसाइट पर मिलें है। इतना सबकुछ करने के बावजूद भी वर्तमान सरकार की ना जाने ऐसी क्या मजबूरियां है है जो समृद्ध संस्थानों की नीलामी व् बिक्री कर रही है।
हमारा देश आज बेरोज़गारी की भीषण मार से जूझ रहा है। दिन-प्रतिदिन पढ़े-लिखे नौजवान रोज़गार की तलाश में एन-केन प्रकारों से अस्थाई और स्थाई पलायन करने को मजबूर हैं। और केंद्र सरकार नए उद्यमों की स्थापना के बजाय पुराने समृद्ध उद्यमों को व्यक्तिगत हाथों में बेच के या उनका निगमीकरण करके उनकी संप्रभुता के साथ भरपूर खिलवाड़ कर रही है।
आज अगर हम रेलवे की ही बात करें तो रेल परिचालन में सहयोग करने वाले रेल कोच,कार्यकर्ता ठेकेदार के हाथों बलि के बकरे बनाये जा रहे हैं जिनकी ना कोई आर्थिक सुरक्षा है ना कोई समाजिक सुरक्षा और ना ही वे किसी प्रकार की इज़्ज़तदार ज़िंदगी जी सकते है।
सरकार विकास के नाम पर जिस प्रकार से प्रतिष्ठानों की बलि दे रही है, यह देश हित के लिए तो कदापि नहीं हो सकता। जिस विकास की परिकल्पना दिन रात गाई जा रही है क्या यही वो विकास है ?? और यदि यही विकास है तो अंग्रेज़ों द्वारा कश्मीर से कन्याकुमारी ,असम से गुजरात तक रेल पटरियां बिछाई गयी थी। क्या उसे भी हम विकास ही मानेगें। जिसने भारतीय संस्थानों की लूट के लिए अपनी सुविधानुसार विकास करवाया।
आज 6 लाइन्स 8 लाइन्स की सड़कों का विकास बिछाया जा रहा है जोकि जनता की गाड़ी कमाई के पैसों से है और फिर उस उपक्रम को टोल टैक्स जैसे आर्थिक हथियारों से पुनः लूटा जा रहा है तो क्या ये अंग्रेज़ों के विकास का के समतुल्य नहीं है ?
आज ज़रूरत है देश के अंदर विकास के बजाय सतत विकास की . जिसके द्वारा नए व्यक्तिगत उद्यमों की स्थापना के बजाय सार्वजनिक कॉपरेटिव संस्थाओं के विकास पर बल दिया जाये जिसके कारण किसी भी राज्य से अस्थाई या स्थाई पलायन को रोक कर के उसी जगह पे युवाओं को वो समुचित रोज़गार दिए जाएँ जिसके लिए वो उपयुक्त है फलस्वरूप बढ़ती हुई आर्थिक अंसन्तुलन की धारा पर विराम लगना संभव हो सकेगा अन्यथा आने वाली पीढ़ी के पास बेरोजगारी के सिवा कुछ नहीं बचेगा।