मदद करने की दृढ इच्छा शक्ति हो तो क्या नहीं हो सकता -किस्सा प्रदीप और अचल सिंह की।
प्रदीप और अचल सिंह हफ्ते भर से हर सुबह बस यूँ की 200 लीटर छान्छ लाते हैं. सड़क से गुज़र रहे मजदूरों को पिलाते हैं और चले जाते हैं.

नर सेवा ही नारायण सेवा है
कोरोना ने हमें कुछ परखने का मौका दिया है. खुद को परखने का. दूसरों को परखना भूल जाइए. अपने आप को जाँचिये-परखिये.
दो लोगों से परिचय कराना चाहता हूँ, जिनसे हम यूँ ही मिले. इंदौर से आने वालीऔर भोपाल से विदिशा जाने जाने वाली सड़क पर मजदूरों को जाते हुए हम देख रहे थे. तब एक पिकअप गाड़ी आई. दो लोग उसमें से उतरे और ट्राली में चढ़ गए.
एक आदमी ने ट्राली में रखे डिब्बे खोले. और दूसरे आदमी ने वहां खड़े मजदूरों के बीच गिलास बाँटते हुए छाछ पीने के लिए आमंत्रित करने लगे.
ये दो आदमी थे भोपाल से कोई 18 किलोमीटर दूर के गाँव बरखेड़ा सालम के प्रदीप और अचल सिंह.
कोई संस्था नहीं. कोई जमावड़ा नहीं. कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं.
प्रदीप और अचल सिंह हफ्ते भर से हर सुबह बस यूँ की 200 लीटर छान्छ लाते हैं. सड़क से गुज़र रहे मजदूरों को पिलाते हैं और चले जाते हैं.

क्यों करते हैं ऐसा? यह सवाल ही मूर्खतापूर्ण है, पर हमने फिर भी पूछा. प्रदीप ने जवाब दिया मजदूर सैकड़ों किलोमीटर दूर से पैदल चलते हुए आ रहे हैं. बहुत तकलीफ में हैं. हमने सोचा कि हम क्या कर सकते हैं? हमने पाया कि हम छाछ पिला सकते हैं. तो बस आ जाते हैं.
ये दोनों लोग हर दिन लगभग 200 मास्क और 100 ग्लोव्स भी लाते हैं. प्रवासी मजदूरों को देते हैं.
बहुत नाउम्मीदी के बीच यूँ ही प्रदीप और अचल सिंह आते हैं और उम्मीदें छिटक कर चले जाते हैं.
सच तो यह है कि सरकारें और व्यवस्थाएं कोरोना का इलाज़ जान नहीं पायी हैं. उन्हें समझ आना चाहिए कि इसका इलाज़ इंसानों के उस समाज में छिपा हुआ है, जिनमें प्रदीप और अचल सिंह रहते हैं. थोड़ा अपने अहंकार से बाहर निकल कर आईये. आपको पता चलेगा कि कोरोना से भारत को, भारत के प्रवासी मजदूरों को बचाने की असली कोशिशें हो रही हैं.
