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सांसद राहुल गांधी ने जाने-माने अर्थशास्त्री और RBI के पूर्व गवर्नर डॉ रघुराम राजन के साथ लंबा संवाद किया विषय देश की अर्थव्यवस्था – कोरोना

आज के समय में जब कोरोना वायरस के प्रकोप ने देश की अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचाया है और इससे निज़ात पाने के लिए वो कौन से कदम उठाने चाहिए और क्या प्रारूप होगा साथ ही देश के गरीबों को मौजूदा संकट से उबारने के लिए कितने पैसे की जरूरत है? आखिर वह कौनसी समस्याएं जिन पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। इन्हीं सब मुद्दों पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी ने जाने-माने अर्थशास्त्री और आरबीआई के पूर्व गवर्नर डॉ रघुराम राजन के साथ लंबा संवाद किया। पढ़िए दोनों के बीच हुई इस बातचीत को:

राहुल गांधी – हेलोरघुराम राजन – गुड मॉर्निंग, आप कैसे हैं?

राहुल गांधी – मैं अच्छा हूं, अच्छा लगा आपको देखकर

रघुराम राजन – मुझे भी

राहुल गांधी – कोरोन वायरस के दौर में लोगों के मन में बहुत सारे सवाल हैं कि क्या हो रहा है, क्या होने वाला है, खासतौर से अर्थव्यवस्था को लेकर। मैंने इन सवालों के जवाब के लिए एक रोचक तरीका सोचा कि आपसे इस बारे में बात की जाए ताकि मुझे भी और आम लोगों को भी मालूम हो सके कि आप इस सब पर क्या सोचते हैं।

रघुराम राजन – थैंक्स मुझसे बात करने के लिए और इस संवाद के लिए। मेरा मानना है कि इस महत्वपूर्ण समय में ऐसे मुद्दों पर जितनी भी जानकारी मिल सकती है लेनी चाहिए और लोगों को भी जहाँ तक संभव हो अवगत रहना चाहिए।

राहुल गांधी – मुझे इस समय एक बड़ा मुद्दा जो लगता है वह है कि हमें अपनी अर्थव्यवस्था को कैसे खोलने पर विचार करना चाहिए? अर्थव्यवस्था के कौन से वो हिस्से हैं, जो आपको लगता है जिन्हें खोलना बहुत जरूरी है और उन्हें किस क्रम में खोला जाना चाहिए?

रघुराम राजन – यह एक अहम सवाल है। हम संक्रमण का ग्राफ कम करने और अस्पतालों/मेडिकल सुविधाओं पर अत्यधिक बोझ न डालने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन साथ ही अब हमें यह भी सोचना होगा कि लोगों की रोजी-रोटी फिर से कैसे शुरू की जाए। लॉकडाऊन हमेशा बनाकर रखना बहुत आसान है, लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए यह नहीं चल सकता।

इसे क्रमवार करना होगा। पहले वो स्थान, जहां पर आप सोशल डिस्टैंसिंग बनाकर रख सकते हैं। डिस्टैंसिंग केवल कार्यस्थलों पर ही नहीं, बल्कि कार्यस्थल के आवागमन में भी डिस्टैंसिंग जरूरी है।परिवहन का तरीका। क्या लोगों के पास परिवहन का निजी साधन हैं, साईकल, स्कूटर या कार है? या वो सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर हैं? आप सार्वजनिक परिवहन में डिस्टैंसिंग कैसे बनाएंगे?

यह सारी व्यवस्था करने में बहुत काम और मेहनत करना पडेगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कार्यस्थल अपेक्षाकृत सुरक्षित हों। इसके साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यदि कहीं दुर्घटनावश कोई ताजा मामले तो सामने आये, तो हम कितनी तेजी से प्रभावित लोगों को आइसोलेट कर सकते हैं, वो भी तीसरे या चौथे लॉडाउन को लागू किए बिना, अगर ऐसा होता है तो विनाशकारी होगा।

राहुल गांधी – यही बात बहुत सारे लोग कह रहे हैं कि यदि आप बार-बार लॉकडाऊन में जाते हैं, यदि आप लॉकडाऊन खोलते हैं और आपको वापस लॉकडाऊन लगाना पड़ता है, तो आर्थिक गतिविधि पर इसका बहुत विनाशकारी प्रभाव होगा क्योंकि इससे विश्वास पूरी तरह खत्म हो जाएगा। क्या आप इस बात से सहमत हैं?

रघुराम राजन – हां, मुझे लगता है कि यह सोचना सही है। दूसरे लॉकडाऊन को ही लगाने का मतलब है कि आप गतिविधि (आर्थिक) को सही से शुरू करने में आप सफल नहीं हुए। इसी से सवाल उठता है कि अगर इस बार खोल दिया तो क्या आप तीसरे लॉकडाउन की जरूरत न पड़ जाए और इससे विश्वसनीयता पर आंच आएगी। ठीक कहा। मैं नहीं मानता कि हमें 100 प्रतिशत सफलता की ओर भागना चाहिए, यानी कहीं भी कोई केस न हो। फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता। हमें केवल फिर से गतिविधि शुरू करने का प्रबंधन करना होगा, यानि जहाँ कहीं मामले सामने आएं, तो हम उन्हें आईसोलेट कर दें।

राहुल गांधी – लेकिन इस पूरे प्रबंध में यह जानना बेहद जरूरी होगा कि कहां ज्यादा संक्रमण है, और इसके लिए टेस्टिंग ही एकमात्र जरिया है। इस वक्त भारत में यह भाव है कि हमारी टेस्टिंग क्षमता सीमित है। एक बड़े देश होते हुए, अमेरिका और यूरोपीय देशों के तुलना में हमारी टेस्टिंग क्षमता सीमित है। कम संख्या में टेस्ट होने को आप कैसे देखते हैं?

रघुराम राजन – अच्छा सवाल है यह, अमेरिकी की मिसाल लें। वहां एक दिन में डेढ़ लाख तक टेस्ट हो रहे हैं। लेकिन वहां विशेषज्ञों, खासकर एपिडीमियोलॉजिस्ट्स की एकमत राय है कि गतिविधि खोलने की शुरुआत करने के लिए इन टेस्टों की संख्या को तीन गुना कर यानी हर रोज कम से कम 5 लाख टेस्ट करने चाहिए और कुछ लोग तो कई मिलियन टेस्ट करने की बात कर रहे हैं।

भारत की आबादी को देखते हुए हमें इसके साढ़े चार गुना टेस्ट करने चाहिए। अगर आपको अमेरिका जितना आत्मविश्वास चाहिए तो हमें 20 लाख टेस्ट हर रोज करने होंगे। साफ है कि हम उनके नजदीक भी नहीं, क्योंकि हम रोज 25,000 से 30,000 टेस्ट ही कर पा रहे हैं।

लेकिन गतिविधि शुरू करने के मामले में हमें समझदारी बरतनी होगी। शायद हमें आम जनता की व्यापक स्तर पर टेस्टिंग करनी पड़े। उदाहरण के तौर पर आम जनता के 1000 सैंपल लें और व्यापक स्तर पर चेक करें, यदि इनमें आपको वायरस का कोई भी चिन्ह मिले, तो सैंपल की गहराई में जाएं और देखें कि कहां से यह आया है। इस तरीके से हमारे टेस्टिंग के ढांचे पर भार कम पड़ेगा और कुछ मामले में कम गहन टेस्टिंग के बावजूद हम ज्यादा बेहतर काम कर पाएंगे। हमें ज्यादा समझदारी से काम करना होगा क्योंकि हम तब तक इंतजार नहीं कर सकते, जब तक हम अमेरिका जैसी टेस्टिंग क्षमता प्राप्त न कर पाएं।
पहले तो वायरस का प्रभाव गहरा होने वाला है और फिर अर्थव्यवस्था पर उसका प्रभाव गहरा होगा। कुछ महीनों बाद अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगने वाला है।फिलहाल आप वायरस से लड़ने और 3-4 महीने बाद वायरस के विनाशकारी प्रभावों से लड़ने के बीच संतुलन कैसे बिठाएंगे?

रघुराम राजन – मेरा मानना है कि हमें प्राथमिकता निर्धारित करनी होंगी। हमारी क्षमताएं व संसाधन सीमित हैं। हमारे वित्तीय संसाधन पश्चिमी देशों के मुकाबले ज्यादा सीमित हैं। हमें यह निर्णय लेना होगा कि हम तय करें कि हम वायरस से लड़ाई और अर्थव्यवस्था दोनों को एक साथ कैसे संभालें। जब हम अर्थव्यवस्था खोलें, तो यह इस प्रकार हो कि आप बीमारी से उठ पाएं, न की मौत के सामने खड़े हों।

सबसे पहले तो लोगों को स्वस्थ और जीवित रखना है। भोजन बहुत ही अहम इसके लिए। ऐसी जगहें हैं जहां पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम पहुंचा ही नहीं है, अमर्त्य सेन, अभिजीत बनर्जी और मैंने इस विषय पर अस्थाई राशन कार्ड की बात की थी। लेकिन आपको इस महामारी का सामना एक अप्रत्याशित संकट की भांति करना होगा।

हमें जरूरतों के आधार पर लीक से हटकर सोचना होगा। सभी बजटीय सीमाओं को ध्यान में रखते हुए फैसले करने होंगे। हमारे पास संसाधन सिमित हैं।

राहुल गांधी – कृषि क्षेत्र और मजदूरों के बारे में आप क्या सोचते हैं। प्रवासी मजदूरों के बारे में क्या सोचते हैं। इनकी वित्तीय स्थिति के बारे में क्या किया जाना चाहिए?

रघुराम राजन – इस मामले में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर में किये गए हमारे प्रयासों का लाभ उठाने का समय है। हम उन सभी व्यवस्थाओं के बारे में विचार होना चाहिए जिनसे हम अपेक्षाकृत गरीबों तक पैसा पहुंचाते हैं। हमारे पास विधवा पेंशन और मनरेगा जैसे कई तरीके उपलब्ध हैं। हमें कहना चाहिए कि देखो ये वे लोग हैं जिनके पास रोजगार नहीं है, जिनके पास आजीविका चलाने का साधन नहीं है और अगले तीन-चार महीने जब तक यह संकट है, हम इनकी मदद करेंगे। लेकिन लोगों को जीवित रखना और उन्हें विरोध के लिए या फिर काम की तलाश में लॉकडाउन के बीच ही बाहर निकलने के लिए मजबूर न होने से रोकना लाभप्रद होगा और ये हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमें ऐसे रास्ते तलाशने होंगे जिससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पैसा भी पहुंचा पाएं और उन्हें पीडीएस के जरिए भोजन भी मुहैया करा पाएं।

राहुल गांधी – डॉ राजन कितना पैसा लगेगा गरीबों की मदद करने के लिए, गरीबों को राहत देने के लिए?

रघुराम राजन – तकरीबन 65,000 करोड़। हमारी जीडीपी 200 लाख करोड़ की है, इसमें से 65,000 करोड़ निकालना, बहुत बड़ी रकम नहीं है। हम ऐसा कर सकते हैं। अगर ये गरीब के लिए है, उनकी जिंदगी बचाने के लिए हमें यह करना चाहिए।

राहुल गांधी – अभी तो देश संकट में है, पर कोविड के बाद क्या हिंदुस्तान को इस घटना से कोई फ़ायदा/बढ़त होगी? कोई स्ट्रेटेजिक फ़ायदा होगा? दुनिया में कोई बदलाव होंगे, जिससे हिंदुस्तान को फ़ायदा हो या जिनका हिंदुस्तान एडवांटेज ले सके? किस प्रकार से दुनिया बदलेगी आपके मुताबिक़?

रघुराम राजन – सामान्यतः, इस तरह की स्थितियां मुश्किल ही किसी देश के लिए अच्छे हालात लेकर आती हैं। फिर भी कुछ तरीके हैं जिनसे देश फायदा उठा सकते हैं। मेरा मानना है कि इस संकट से बाहर आने के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था के हर पहलु पर एकदम नए तरीके से सोचने की जरूरत होगी। अगर भारत के लिए कोई मौका है, तो वह है हम संवाद को किस तरह मोड़ें। इस संवाद में हम एक नेता की तरह सोचें क्योंकि यह दो विरोधी पार्टियों के बीच की बात नहीं है। लेकिन भारत इतना बड़ा देश तो है ही कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी बात को अच्छे से सुना जाए। ऐसे हालात में भारत अपने उद्योगों और सप्लाई चेन के लिए अवसर तलाश सकता है। लेकिन सबसे अहम है कि हम संवाद को उस दिशा में मोड़ें जिसमें ज्यादा देशों के लिए वैश्विक व्यवस्था में स्थान हो, बहु ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था हो न कि एक ध्रुवीय या द्विध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था।

राहुल गांधी – क्या आपको नहीं लगता है कि केंद्रीकरण का संकट है। सत्ता का बेहद केंद्रीकरण हो गया है कि बातचीत ही लगभग बंद हो गई है। बातचीत और संवाद से उन बहुत सारी समस्याओं का समाधान निकलता है, जिनका आपने जिक्र किया है, लेकिन कुछ कारणों से यह संवाद टूट रहा है।

रघुराम राजन – मेरा मानना है कि विकेंद्रीरण न सिर्फ स्थानीय सूचनाओं को सामने लाने के लिए जरूरी है बल्कि लोगों को सशक्त बनाने के लिए भी अहम है। इस समय पूरी दुनिया में अशक्तिकरण यह स्थिति है कि फैसले मेरे द्वारा नहीं कहीं और से किए जा रहे हैं। मेरे पास एक वोट तो है दूरदराज के किसी व्यक्ति को चुनने का। मेरी पंचायत और राज्य सरकार के पास ताक़त नहीं है। लोगों में यह भावना है कि किसी भी मामले में उनकी आवाज नहीं सुनी जाती। ऐसे में वे विभिन्न शक्तियों का शिकार बन जाते हैं।

मैं आपसे ही यही सवाल पूछूंगा। राजीव गांधी जी जिस पंचायती राज को एक बार फिर लेकर आए, उसका कितना प्रभाव पड़ा और कितना फायदेमंद साबित हुआ।

राहुल गांधी – इसका जबरदस्त असर हुआ था, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि यह अब कम हो रहा है। पंचायती राज के मोर्चे पर जितना आगे बढ़ने का काम हुआ था, हम उससे वापस लौट रहे हैं, और जिलाधिकारी और अधिकारी आधारित व्यवस्था में जा रहे हैं। अगर आप दक्षिण भारतीय राज्यों को देखें, तो वहां इस मोर्चे पर अच्छा काम हो रहा है, व्यवस्थाओं का विकेंद्रीकरण हो रहा है। लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में सत्ता का केंद्रीकरण हो रहा है और पंचायतों और जमीन से जुड़े संगठनों की शक्तियां कम हो रही हैं।

रघुराम राजन – फैसले जितना लोगों को साथ में शामिल करके लिए जाएंगे, वे फैसलों पर नजर रखने के लिए उतने ही सक्षम होंगे। मेरा मानना है कि यह ऐसा प्रयोग है जिसे करना चाहिए।

राहुल गांधी – लेकिन वैश्विक स्तर पर ऐसा क्यों हो रहा है? आप क्या सोचते हैं कि क्या कारण है जो इतने बड़े पैमाने पर केंद्रीकरण हो रहा है और संवाद खत्म हो रहा है? क्या आपको लगता है कि इसके केंद्र में कुछ है या फिर कई कारण हैं इसके पीछे?

रघुराम राजन – मैं मानता हूं कि इसके पीछे एक कारण है और वह है वैश्विक बाजार। ऐसी धारणा बन गई है कि बाजारों के वैश्वीकरण के साथ इसमें हिस्सा लेने वाले यानी फर्म्स भी हर जगह एक ही तरह के नियम लागू करवाना चाहती हैं, वे हर जगह एक ही तरह की समन्वय व्यवस्था चाहते हैं, एक ही तरह की सरकार चाहते हैं, क्योंकि इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। एकसमानता लाने की कोशिश ने स्थानीय और राष्ट्रीय सरकारों के अधिकार और शक्तियां छीन ली हैं। इसके अलावा नौकरशाही में केन्द्रीकरण की लालसा भी है, अगर मुझे शक्ति मिल सकती है तो क्यों न हासिल करूं। यह लगातार चलने वाली लालसा है। अगर आप राज्यों को पैसा दे रहे हैं, तो आपको इन नियमों का पालन करना ही होगा, न कि बिना किसी सवाल के आपको पैसा मिल जाए, जबकि मुझे पता है कि आप भी चुनकर आए हो और आपको इसका आभास होना ही चाहिए कि आपके लिए क्या सही है।

राहुल गांधी – इन दिनों एक नया मॉडल आ गया है, वह है सत्तावादी या अधिनायकवादी मॉडल, जोकि उदार मॉडल पर सवाल उठा रहा है। काम करने का यह एकदम अलग तरीका है और यह ज्यादा जगहों पर फल-फूलता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि यह खत्म होगा?

रघुराम राजन – मुझे नहीं पता। सत्तावादी मॉडल, एक मजबूत व्यक्तित्व, एक ऐसी दुनिया जिसमें आप शक्तिहीन हैं, कभी कभी ये अपील करता है, खासतौर से अगर आप उस व्यक्तित्व के साथ कोई संबंध रखते हैं, जब आपको लगता है कि उन्हें मुझ पर विश्वास है, उन्हें लोगों की परवाह है। इसके साथ समस्या यह है कि अधिनायकवादी व्यक्तित्व अपने आप में एक ऐसी धारणा बना लेता है कि , ‘मैं ही जनशक्ति हूं’ इसलिए मैं जो कुछ भी कहूंगा, वही सही होगा। मेरे ही नियम लागू होंगे और इनमें कोई जांच-पड़ताल नहीं होगी, संस्थानों के नहीं होंगे, कोई विकेंद्रीकृत व्यवस्था नहीं होगी। सब कुछ मेरे जानकारी के अनुसार होना चाहिए। इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि जब-जब इस हद तक केंद्रीकरण हुआ है, व्यवस्थाएं धराशायी हो गई हैं।

राहुल गांधी – लेकिन वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में कुछ तो गड़बड़ हुई है। यह तो साफ है, यह नहीं काम कर रहा। क्या ऐसा कहना सही होगा?

रघुराम राजन – मुझे लगता है कि यह बिल्कुल सही है कि बहुत से लोगों के लिए यह काम नहीं कर रहा। विकसित देशों में दौलत और आमदनी का असमान वितरण निश्चित रूप से चिंता का एक कारण है। नौकरियों की अनिश्चितता, परायत्तता चिंता का दूसरा स्रोत है।आज यदि आपके पास कोई अच्छी नौकरी है तो यह नहीं पता कि कल आपके पास आमदनी का जरिया होगा या नहीं। हमने इस महामारी के दौर में देखा है कि बहुत से ऐसे लोगों के पास कोई रोजगार ही नहीं है, उनकी आमदनी और सुरक्षा दोनों ही छिन गई हैं।

इसलिए आज सिर्फ विकास दर धीमी होने की समस्या नहीं है। हम बाजारों के बगैर नहीं रह सकते, हमें विकास चाहिए। हम नाकाफी वितरण की समस्या से भी दोचार हैं। जो भी विकास हुआ उसका पूरा फल सब लोगों को सामान रूप से नहीं मिल रहा है, बहुत से लोग छूट गए। तो हमें दोनों पहलुओं के बारे में सोचना होगा। इसीलिए मुझे लगता है कि हमें वितरण व्यवस्था के साथ-साथ अवसरों के वितरण के बारे में भी सोचना होगा

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