जानिए सिख धर्म के दूसरे गुरु श्री अंगद देव जी की सम्पूर्ण कथा ।
बाबा नानक ने उन्हे बताया कि देवी आदि शक्ति या परमात्मा की शक्ति कोई औरत या मूर्ती नहीं है बल्कि वोह वो रूप हीन है। उसका न कोई आकार है ना ही विकार ,ना उसका आदि है और ना ही अंत,वह कहीं न रहते हुए भी हर जगह विराजमान है ,लेकिन उसकी प्राप्ति सिर्फ अपने अंदर से ही की जा सकती है।
गुरू अंगद देव जी सिख धर्म के दूसरे गुरु के रूप में विश्व भर में जाने जाते है। दिव्य स्वरूप श्री गुरू अंगद देव महाराज जी का सृजनात्मक व्यक्तित्व था। कहा जाता है कि बचपन से ही उनमे ऐसी अध्यात्मिक क्रियाशीलता थी जिसके चलते वे श्री गुरु नानक देव जी के पद चिन्हों का मार्गदर्शक लेते हुए एक सच्चे सिख बने।
उनकी सच्ची भक्ति,सेवा,दान और जीव प्रेम के चलते वे अपने समय में सिख समुदाय के बहुत बड़े गुरु बने , और लोगों को सत्य ज्ञान से रुबरू भी करवाया।
अपनी बाल्य अवस्था से ही इनपर सनातन धर्म के विचारों का प्रभाव था। आज के समय में सिख समुदाय के अलावा अन्य धर्मों के लोग भी इनकी पूजा करते है और इनके दिखाए पथ पर चलने की कोशिश करते हुए सच्चे ज्ञान से परिचित होते है।
आरम्भिक जीवन : इनका जन्म व्यापारी फेरु मल जी के घर हुआ। जोकि एक तरेहण क्षत्रि थे। इनकी माता का नाम माता दया कौर जी था। जानकार बताते है कि गुरु जी सराए परगना मुक्तसर में वैशाख सुदी इकादशी सोमवार संवत 1561 ईस्वी को इस धरा का कष्ट हरने के लिए अवतरित हुए थे।
इनके बचपन का नाम भाई लहिणा जी था| इनमे इतना सेवा भाव था कि अपनी सेवा से इन्होने प्रथम गुरु श्री नानक देव जी को प्रसन्न कर दिया जिसके कारण इन्हे उनके श्री मुख से नया नाम मिला अंगद देव। जो आगे चलकर विश्व भर में इनकी पहचान बन गया।
जैसा कि हमने आपको पहले भी बताया कि बचपन से ही इनपे सनातन धर्म के विचारों ने घर कर लिया था। इसलिए ये हिन्दू देवी माँ दुर्गा की अर्चना किया करते थे। भक्तों के एक जत्थे का नेतृत्व करते हुए श्री गुरु अंगद देव जी हर साल देवी ज्वालामुखी मंदिर जाया करते थे। उनका मानना था कि भक्तों की सेवा से ही प्रभु खुश होते है।
विवाह : मिली गयी जानकारी से पता चलता है कि श्री गुरु अंगद देव जी का विवाह खडूर निवासी श्री देवी चंद क्षत्रि की सपुत्री खीवीं देवी से हुआ। जिसके बाद इन्हे दो पुत्र व् दो पुत्रियों के पिता बनने का सौभाग्य भी मिला। इनके पुत्रों के नाम दासू जी एवं दातू जी था, और इनकी पुत्रियों का नाम अमरो जी एवं अनोखी जी था।
ये वो दौर था जब इस भारत वर्ष पर मुगल लुटेरों के पाँव पड रहे थे। चारों तरफ लूट मार मची हुई थी इसलिए इन्हे भी अपने परिवार की सुरक्षा के लिए फेरू जी के साथ अपना पैतृक गांव छोड़ना पड़ा। पैतृक गांव से पलायन करने के बाद इन्हे दिव्य नगरी श्री अमृतसर से लगभग 25 कि॰मी॰ दूर स्थित खडूर साहिब नामक गांव का सहारा मिला। ब्यास नदी के किनारे बसे इस गांव ने इनको ऐसा प्रेम दिया कि ये सपरिवार यही पर बस गए।
गुरु दर्शन : आपको बता दें कि सद्गुरु नानक साहिब जी की पहली भेंट ने उनके जीवन में एक क्रांति सी ला दी थी । कहा जाता है कि एक बार भाई लहना जी के कानों में ने भाई जोधा जी के मुख से गुरू नानक साहिब जी के कुछ चमत्कारी शब्द पड गए।
भाई जोधा जी सतगुर नानक साहिब के अनुयायी एक सिख थे और इसी तरह नानक देव जी के शब्दों को निरंतर पढ़ा करते थे। भाई लहना जी सतगुर नानक साहिब के गुरमत के फलसफे सुनकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने निर्णय लिया कि वो सतगुर नानक साहिब के दर्शन के लिए करतारपुर जायेंगे।
करतारपुर में गुरु नानक देव जी से मिलके उनका स्वप्न तो सच हो चुका था लेकिन अभी गुरु ज्ञान बाकी था। सतगुर श्री नानक देव जी ने उन्हें परम ज्ञान से अवगत करवाया। बाबा नानक ने उन्हे बताया कि देवी आदि शक्ति या परमात्मा की शक्ति कोई औरत या मूर्ती नहीं है बल्कि वोह वो रूप हीन है। उसका न कोई आकार है ना ही विकार ,ना उसका आदि है और ना ही अंत,वह कहीं न रहते हुए भी हर जगह विराजमान है ,लेकिन उसकी प्राप्ति सिर्फ अपने अंदर से ही की जा सकती है। भाई लहना श्री शब्दों से इतने प्रभावित हुए कि उनके चरणों में नतमस्तक हो गए और उनसे उनका शिष्य बनने का आग्रह किया।
कहते है कि गुरु घर से कोई भी खली नहीं लौटता। बस ऐसा ही हुआ। बाबा नानक देव जी से भाई लहने ने आत्म ज्ञान लिया और स्वयं को पूरी तरह से बदलते हुए नानक साहिब की विचारधारा के सिख बन गये। सिख बनने के बाद अब उनका एक नया निवास स्थान सतगरु नगरी करतारपुर बना।
उनकी महान भक्ति और ज्ञान को देखते हुए सतगुर नानक साहिब जी ने 4 सितम्बर 1539 को गुरुपद प्रदान किया और गुरमत के प्रचार के लिए एक नई ज़िम्मेवारी भी सौंपी। दूसरी और उनके परिवार वालों को उनका घर से दूर रहना पसंद नहीं आया उन्होंने भाई लहना जी से घर वापिस आने के लिए बहुत मिन्नते की लेकिन भाई लहना अब लहना नहीं बल्कि गुरु नानक के अंगद बन चुके थे। इसलिए उनके दोनों लड़के गुरु घर के विरोधी बन गए।
महान् कार्य :
1.श्री गुरू अंगद देव जी ने “श्री खडुर साहिब” आकर पहला अटूट लंगर चलाया। जहां पर हर एक जाति का बिना किसी भेदभाव और संकोच से एक पंक्ति में बैठकर लंगर खा सकता था। आम शब्दों में कहे तो इन्होने जात-पात के भेद-भाव को पूरी तरह से मिटा दिया था।
2.”श्री गुरू नानक देव जी” की “पंजाबी बोली” का शुद्व” में लिखने वाली चलाई हुई गुरमुखी लिपी को प्रचलित किया। यानि की गुरमुखी अक्षर श्री गुरू अंगद देव जी ने बनाये। यह कार्य 1541 में हुआ।
3.श्री गुरू नानक देव जी का जीवन बड़ी खोज के साथ लिखवाया। जिसका नाम भाई बाले की जन्म साखी के नाम से प्रसिद्व है।
4. इन्होने एक बहुत भारी “अखाड़ा” बनाया जहां पर लोगों में उत्साह और शरीरक बल को कायम रखने के लिये कसरतें करना आँरभ करवया।
5.गुरू साहिब जी ने दूर–दूर तक सिक्खी का प्रचार करने को प्रचारक भेजे, लोगों में साहस पैदा करने का उपदेश दिया।
गुरू अंगद साहिब ने गुरू नानक साहिब द्वारा स्थापित परम्परा के अनुरूप अपनी मृत्यु से पहले श्री अमर दास साहिब को गुरुपद प्रदान किया। उन्होंने गुरमत विचार-गुरु शबद् रचनाओं को गुरू अमर दास साहिब जी को सौंप दिया।
४८ वर्ष की आयु में २९ मार्च १५५२ को गुरु अंगद देव जी परम शक्ति ज्योति जोत समा गए। उन्होंने खडूर साहिब के निकट गोइन्दवाल में एक नये शहर का निर्माण कार्य शुरू किया था एवं गुरू अमर दास जी को इस निर्माण कार्य की देख रेख के लिए चुना था । इनके बाद अमर दास साहिब जी ने इनके परम्परा को सम्भाला और सिख धर्म को पूरे विश्व में रोशन किया।