पद्मभूषण श्री गिरीश कार्नाड जी की कुछ ऐसी रही जीवन यात्रा। 81 वर्ष की उम्र में दुनिया से लिया विदा।
बड़े याद आएंगे आप !!! गिरीश जी ने बड़े पर्दे के साथ साथ छोटे पर्दे पर भी अपने किरदारों की एक अलग छाप छोड़ी है। प्रसिद्ध टीवी धारावाहिक ‘मालगुडी डेज़’ में उन्होंने स्वामी के पिता की भूमिका निभाई थी जो आज तक का एक यादगार अतुलनीय किरदार माना जाता है। वह 90 के दशक की शुरुआत में दूरदर्शन पर विज्ञान पत्रिका ‘टर्निंग पॉइंट’ के प्रस्तुतकर्ता भी थे।
देश के जाने माने फिल्म निर्देशक,अभिनेता,लेखक व् अन्य बहुमुखी प्रतिभा के धनी गिरीश कार्नाड का जन्म 19 मई सन 1938 को एक कोंकणी भाषी परिवार में हुआ। बहुत कम लोग जानते है कि उनकी प्रारंभिक शिक्षा मराठी में हुई थी। इसलिए उन्हें अपनी मात्र भाषा कन्नड़ के साथ हिंदी , अंग्रेजी जैसी भाषाओं के साथ मारठी भाषा का भी ज्ञान था।
सन 1958 में धारवाड़ में स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि लेने के बाद उन्होंने इंग्लैंड जाकर इन्होने ऑक्सफोर्ड के लिंकॉन तथा मॅगडेलन महाविद्यालयों से दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। इन्होने चेन्नई में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में सात साल तक काम किया लेकिन फिर खुद ही इस्तीफ़ा दे दिया। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में प्रोफेसर रह चुके गिरीश ने थिएटर ,चल-चित्र और साहित्य की दुनिया में अपने नाम की एक अलग छाप छोड़ी है।
गिरीश जीने अपने साहित्य जीवन में अंग्रेजी व् कन्नड़ भाषा में बहुत अच्छे नाटक लिखे। उनके लिखे कई नाटक ऐसे है जो देश की कई भाषाओं में अनुवादित किये गए। साल1964 गिरीश ने तुग़लक़ जैसे ऐतिहासिक किरदार पर नाटक लिखा। जिसे देश भर में बहुत सराहा गया। ‘ययाति’, ‘तुगलक’, ‘हयवदन’, ‘अंजु मल्लिगे’, ‘अग्निमतु माले’, ‘नागमंडल’, ‘अग्नि और बरखा’ उनके ऐसे नाटक है जो देश दुनिया में काफी चर्चित है और समय समय पर खेले भी जाते है।
गिरीश जी ने एक अभिनेता के रूप में सिनेमा जगत में कदम रखा। उन्होंने 1970 में बनी कन्नड़ फिल्म ‘संस्कार’ से पटकथा लेखन और अभिनय से इस क्षेत्र में पदार्पण किया। यह फिल्म यूआर अनंतमूर्ति के एक उपन्यास पर आधारित थी। जो बहुत लोकप्रिय रही। इस फिल्म ने कन्नड़ सिनेमा के लिए पहला राष्ट्रपति गोल्डन लोटस पुरस्कार भी जीता। इन्होने हिंदी, मराठी, कन्नड़, तेलुगु और कई अन्य भाषाओं की फिल्मो में भी अभिनय किया।
बात अगर बॉलीवुड फिल्मों की करें तो इनकी पहली बॉलीवुड फिल्म साल 1974 ‘जादू का शंख’ नाम से आयी थी। इसके बाद इन्होने ‘निशांत’ ‘चॉक एन डस्टर’ “उम्बरता” और मंथन में भी काम किया। बात कमर्शियल फिल्मो की करें तो कर्नाड अजय देवगन अभिनीत ‘शिवाय’ और सलमान खान की ‘टाइगर ज़िंदा है’ जैसी फिल्मों में अपने किरदार की छाप छोड़ चुके है। लेकिन जिस फिल्म के लिए उन्हे राष्ट्रिय पुरुस्कार के लिए नवाज़ा गया वो फिल्म थी साल 1978 में आयी “भूमिका”. फिल्म “भूमिका” में उनके किरदार की काफी सराहना की गयी। साल 1998 में गिरीश कर्नाड को साहित्य के प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है।
उन्होंने फिल्म निर्देशन के जगत में भी अपने हाथ आज़माये और वहां भी सफलता हासिल की। ‘वंशवृक्ष’ नामक कन्नड़ फिल्म से निर्देशन की दुनिया में कदम रखने के बाद उन्होंने कई कन्नड़ और हिंदी फिल्मो में भी निर्देशन किया। लेकिन गिरीश की सबसे अधिक लोकप्रियता एक नाटककार के रूप में रही।
गिरीश जी को साल 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया इसके बाद उन्होंने लगातार एक के बाद एक पुरस्कार अपने नाम किये। इन्हे साल1974 में पद्मश्री, 1992 में पद्मभूषण,1992 में ही कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और 1998 में कालिदास सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। 1983 में आई तेलुगु और कन्नड फ़िल्म आनंद भैरवी में उनका कमाल का अभिनय देखने को मिला था। ये एक ऐसी लड़की की कहानी जो कुचीपुड़ी करने वाली औरत को गिरी हुई मानती थी लेकिन एक पुरुष है जो इस परंपरा को तोड़ने में लगा है इसके लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का पुरस्कार भी मिला था।
कर्नाड फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) के पहले ऐसे निदेशक थे जो नौकर शाह नहीं थे। वह ऐसे पहले निर्देशक थे जो एफटीआईआई के अध्यक्ष बने। 35 वर्ष की उम्र में एफटीआईआई के निदेशक बने कर्नाड इस पद को संभालने वाले सबसे कम-उम्र के व्यक्ति थे। कहा जाता है कि जब वो निर्देशन में थे तो उनके कईं छात्रों की उम्र उनसे भी अधिक थी।
बात अगर राजनीति जीवन की करें तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाजपा का एकमात्र चेहरा होने की काफी आलोचना करते थे। उन्हे नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल की, उनके मुस्लिमों को लेकर विचार पर भी काफी आपत्ति थी।
गिरीशजी काफी खुले विचारो के निर्भय लेखक थे शायद इसी वजह से कई लोगों व् समुदाय के निशाने पर भी थे। उनकी निर्भयता उनके नाटकों और अन्य लेखन शैली में देखने को मिलती है। आज उनके परिवार में पत्नी सरस्वती, बेटे रघु कर्नाड और बेटी राधा हैं. उनके द्वारा बातचीत से पता चला कि वह लम्बे समय से बीमारी में जूझ रहे थे. 81 वर्ष के गिरीश कर्नाड जी ने सोमवार को बेंगलुरु में आख़री साँस ली। उनके अंतिम दर्शन करने देश की कईं बड़ी हस्तियां पहुंची।
उनके निधन से देश के साहित्य जगत के साथ साथ अभिनय जगत को भी बहुत बड़ी हानि पहुंची है जिसकी भरपाई शायद ही कभी हो पाएगी। आज भले ही गिरीश कर्नाड जी हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके अभिनय और नाटक हमेशा हमारे बीच रहेंगें और प्रेरणाश्रोत के रूप में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहेंगें।