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चंद्रशेखर आज़ाद – गुलाम भारत में जन्म लेकर भी हमेशा आज़ाद ही रहे ये अमर क्रांतिकारी ।

हुक़ूमत को उनसे इतना भय था कि कहा जाता है कि उनकी शाहदत के बाद भी पुलिस कर्मी उनके बदन पर तब तक गोलियां बरसाते रहे जब तक वे खुद संतुष्ट नहीं हुए। अंग्रेज़ों ने बिन बताये ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया बाद में जब लोगों को पता इस बात का पता चला तो "एल्फर्ड पार्क" के उस पेड़ को देखने के लिए भीड़ जमा होने लगी। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे। लोग सड़कों पर आ गये। भीड़ इतनी बढ़ गयी कि सरकार ने उस पेड़ को कटवाना ही बेहतर समझा।

किसकी मजाल ?

“जो इस माउज़र के रहते पंडित के जिस्म को छू भी सके , मै आज़ाद हूँ, और आज़ाद ही मरूंगा। 

शहीद चंद्रशेखर ‘आजाद’ .वो इकलौता नाम , जिसने जन्म तो गुलाम भारत में लिया था लेकिन कभी खुद को गुलाम नहीं होने दिया। गुलामी की जंजीरें शायद ही उसे कभी देख भी पाई हो। इस क्रांतिकारी ने आज़ादी का दामन इस तरह से पकड़ रखा था कि इनको कैद करने का अंग्रेज़ी हुक़ूमत का सपना सिर्फ सपना बनकर ही रह गया। गोरी सरकार के बिछाये कितने ही चक्रवयूहों को इन्होने बड़ी आसानी से भेदकर कर उनके मंसूबों पर पानी फेरा था।

कई बार इनको पकड़ने के लिए नयी से नयी योजनाएँ बनाई जाती, जिनमें इनके मित्र तो उलझ जाते लेकिन “पंडित आज़ाद” हर बार सबकी आँखों के सामने से हवा की तरह गायब हो जाते। कहतें है कि इनकी पार्टी के सदस्यों को भी इनकी जानकारी नहीं होती थी। ये हर बार किसी गुप्त संदेश से अपनी रणनीति के बारे में अपने मित्रों को सूचित करते थे। इनके द्वारा लिखा गया एक पत्र आज भी इलाहाबाद पार्क के मियूज़िम में रखा गया है। 

आरंभिक जीवन-

“पंडित चंद्रशेखर आजाद जी” का जन्म  23 जुलाई सन 1906 में मध्य प्रदेश के भाबरा गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था जो अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते थे। इनकी माता जगरानी ने इनका नाम “चंद्रशेखर तिवारी” रखा । 

गांव में रहते रहते इन्होने भील बच्चों के साथ तीर चलाना ,उड़ते पंछी को मार गिराना जैसी कलाओं में अपना बचपन बिताया । अँग्रेज़ शासित भारत में पले बढ़े आजाद की रंगों में शुरू से ही अंग्रेजों के प्रति नफरत भरी हुई थी। इसलिए कुछ होश संभाला तो गुलामी की ज़ंजीरें इन्हे चुबने लगी और ये बनारस आ गए। 

कैसे बने चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर आज़ाद –

कहतें है कि बनारस उन दिनों देश के क्रांतिकारियों का घर हुआ करता था। सन 1919 में जल्लियां वाला बाग के नरसंहार ने देश को झिंझोड़ कर रख दिया। बच्चे बच्चे के दिल से एक ही आवाज़ उठ रही थी, आज़ादी की आवाज़। 

उस समय अंग्रेज़ों के खिलाफ गांधी जी के “असहयोग आंदोलन” का ज़ोर हुआ और चंद्रशेखर जी का आज़ादी की लड़ाई में पड़ा, पहला क़दम।

चरखे को आज़ादी का प्रतीक मानकर चंद्रशेखर भी “असहयोग आन्दोलन” का प्रचार करते हुए जुलूस के साथ सड़कों पर उतर आये । जिसका नतीजा ये हुआ कि तमाम लोगों के साथ युवा चंद्रशेखर को भी हिरासत में ले लिया गया। 

मुक़दमे में जब उनसे उनका नाम पूछ गया तो उन्होंने बताया 

“आज़ाद” , 

पिता का नाम- “स्वाधीन”, 

घर- जेलखाना” 

जवाब सुनकर ही अफ़सर भड़क उठा और 15 साल के चंद्रशेखर के नंगे बदन पर 15 बेंतो की सजा सुनाई गई। हर बेंत के साथ उनके मुँह से बस ही नारा निकल रहा था “भारत माता की जय” .  बस इसी घटना के साथ ही “चंद्रशेखर तिवारी” बन गए चंद्रशेखर आज़ाद। और कसम खा ली कि आज के बाद वे अंग्रेजी सरकार की गुलामी नहीं करेंगें, मरते दम तक किसी भी अँग्रेज़ की गोली का शिकार नहीं होंगे। 

चंद्रशेखर आज़ाद और क्रान्तिकारी संगठन –

कहतें है कि फरवरी 1922 में चौरी चौरा की घटना से दुखी होकर गांधी जी ने बिना किसी से पूछे ही “असहयोग आन्दोलन” वापस ले लिया उनका कहना था कि हमारा देश अभी आज़ादी की लिए पूर्णता तैयार नहीं है।

इस घटना के बाद ही देश के तमाम नव युवकों के साथ “आज़ाद” भी गाँधी जी और कांग्रेस के रास्ते से अलग हो गए। और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल,योगेशचन्द्र चटर्जी आदि के द्वारा गठित  “हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ” (एच० आर० ए०) दल का हिस्सा बने।

 इस दल में पहले देश के अमीरों को लूटा जाता था लेकिन आज़ाद जी का मानना था कि अपने देश के लोगों को लूटकर हम उनके दिलों तक नहीं पहुँच सकेगें इसलिए उनके कहने पर अंग्रेजी सरकार के प्रतिष्ठानों को लूटा जाने लगा। 

डाउन पसेंजर और काकोरी कांड-

जानकारों से पता चलता इनके गुप्तचरों से इन्हे सूचना मिली थी कि अंग्रेजी हुक़ूमत देश का ख़ज़ाना इंग्लैंड लेकर जा रही है इसलिए एच०आर०ए दल में फैसला हुआ 9 अगस्त‍त 1925 को इस डाउन पसेंजर को काकोरी स्टेशन पर लूटा जाएगा। ख़ज़ाना लूटने के बाद कोर्ट में मुकदमा चला और राम-प्रसाद बिसमिल के साथ इनके सभी साथी पकडे गए, लेकिन हर बार की तरह आज़ाद अंग्रेज़ों की आँखो से धुंए की तरह गायब हो गए।

मुक़दमे का फैसला आया जिसमे पकडे गए क्रांतिकारियों को फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। अब वतनपरस्तों द्वारा जालाई गयी अधिकतर मशालें बुझ चुकी थी, लेकिन आज़ाद हार मानने वालों में से कहाँ थे। 

इन्होने धीरे धीरे उतर भारत के क्रांतिकारियों को इकट्ठा करना शुरू किया, इन्ही दिनों देश के एक और वीर क्रांतिकारी ने इनकी पार्टी में कदम रखा जिसका नाम था “सरदार भगत सिंह” .

 चंद्रशेखर आज़ाद को अब उनके जैसा ही एक और आज़ादी का दीवाना मिल गया था जिसके अंदर उन्हें आज़ादी के लिए वही सुलगते अंगारे दिख रहे थे जो उनके अंदर थे। सो धीरे धीरे सुखदेव ,राजगुरु ,बटुकेश्वर दत्त , धन्वन्तरी ,भगवान दास, विश्वनाथ, सदा शिव,शिव वर्मा जैसे वीरों के साथ, कहीं लुप्त होता “एच०आर०ए” संध फिर से अपने अस्तित्व में आ चुका था। 

लेकिन भगत सिंह के मशवरे के साथ अबके समाजवाद को लक्ष्य माना गया और पार्टी का नाम बदलकर “हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन” रखा गया। अब ये ज़िंदा-दिल सरफरोश तैयार थे, उस साम्राज्य को झिंझोड़ने के लिए जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था।

साइमन कमीशन और सांडर्स ह्त्या-

साल 1928 भारत में “साइमन कमीशन” ने कदम रखा जिसका विरोध सारे देश ने किया इस विरोध को रोकने के लिए गोरी सरकार की बर्बरता हद से बाहर हो गयी । बच्चों, औरतों और बज़ुर्गों पर हुक़ूमत के अत्याचार बढ़ने लगे।

जब साइमन कमीशन उतर भारत के लाहौर में पहुंचा तो भगत सिंह और उनकी  नौजवान सभा के सभी साथियों ने लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक विराज जुलूस निकाला। 

कहतें है कि पुलिस ने इस जुलूस पे इतनी बेरहमी से लाठियाँ बरसाईं कि वेह्शत भी घबरा गयी। इस जुलूस में पुलिस द्वारा लाला जी की ह्त्या कर दी गयी थी। जिसका बदला “चंद्रशेखर ‘आजाद’ के साथ हर कोई लेना चाहता था इसलिए योजना बनी कि अधिकारी “स्कॉट” की ह्त्या की जाएगी।

जब योजना को अंजाम देने का दिन आया तो उनके पार्टी के अन्य व्यक्ति जयगोपाल ने स्कॉट के बदले सांडर्स को देख कर इशारा कर दिया और स्कॉट की जगह सांडर्स की ह्त्या हो गयी। इस ह्त्या की गूँज भारत से इंगलैंड तक सुनाई दी, फिर मुक़दमा चला और इस बार “आज़ाद” की युक्ति ने सबको गायब कर कोलकाता पहुंचा दिया। 

सरकारी दस्तावेज़ों में माहौल कुछ ठंडा पड़ा तो आज़ाद आगरा चले गए और बम की फैक्ट्रियां शुरू कर दी। आगरा और ग्वालियर में उनके अन्य क्रांतिकारियों ने बम बनाने का काम शुरू कर दिया था।

कहते है कि 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली असेम्बली में जिस बम से विस्फोट किया था वे उनके मित्रों द्वारा ग्वालियर में बनाये गए थे। विस्फोट के बाद पर्चे बांटे गए , नारा लगाया गया “लॉन्ग लाइव रेवोल्यूशन” और “डाउन विद इंपीरियलिज्म” कहा गया “मनुष्य को गुलाम रखा जा सकता है उसके विचारों को नहीं” 

मुकदमा फिर चला, लाहौर और दिल्ली से सभी साथी गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन आज़ाद फिर समय को मात देते हुए फरार हो गए। 

आज़ादी के मतवालों का आशियाँ फिर उजड़ गया। अब आज़ाद खुद को सबसे छुपाते-बचाते हुए कभी कानपुर , कभी बनारस तो कभी इलहाबाद रहने लगे। इतने में लाहौर कोर्ट का फैसला सुनाया गया। भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गयी और बाकी सबको कारावास। 

भारत माता के इन मतवालों की फाँसी रुकवाने के लिए “आज़ाद” 20 फरवरी को “आनन्द भवन” में “पंडित जवाहरलाल नेहरू” भी मिले और आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें! लेकिन शायद समय कुछ और ही चाहता था। 

मृत्यु, प्राण और आज़ाद-

कहते है कि पार्टी टूटने के बाद आज़ाद जी के कुछ और साथी भी हिरासत में ले लिए गए थे लेकिन उनके मन में फिर से पार्टी बनाने की धुन थी ,मुल्क को आज़ाद करवाने की सनक थी। उन्हे लगता था कि वे फिर से सरफरोशों की एक माला बनाने में सफल हो जायेगें। लेकिन वार जब अपनों के हों तो शायद ईश्वर भी धोखा खा जाता है .

2 फरवरी 1931 को अल्फ्रेड पार्क में आज़ाद अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी पुलिस की के साथ सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। और उसने बिना कोई हरकत किए हुए “अल्फ्रेड पार्क” को चारों ओर से घेर लिया। उनके मित्र सुखदेव राज का एक विश्वासघात देश को बहुत भारी पड़ने वाला था। 

जैसे ही पुलिस ने चारों तरफ से पार्क को घेरा, दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी होने लगी। आज़ाद एक पेड़ की टेक के सहारे लड़ते रहे। उनका प्रण था कि उन्हे दुश्मन की गोली कभी नहीं मार पाएगी। वे कहते थे 

“दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगें ,,

आज़ाद ही जिए है आज़ाद ही मारेगें”

उनकी यह प्रतिज्ञा पूरी हुई उनकी माउज़र में जब तक गोलियां थी घमासान होता रहा और जब उनके पास सिर्फ एक गोली रह गयी तो उन्होंने वतन की मिटटी को प्रणाम करते हुए स्वय अपना बलिदान देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। 

हुक़ूमत को उनसे इतना भय था कि कहा जाता है कि उनकी शाहदत के बाद भी पुलिस कर्मी उनके बदन पर तब तक गोलियां बरसाते रहे जब तक वे खुद संतुष्ट नहीं हुए। 

अंग्रेज़ों ने बिन बताये ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया बाद में जब लोगों को पता इस बात का पता चला तो “एल्फर्ड पार्क” के उस  पेड़ को देखने के लिए भीड़ जमा होने लगी। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे। लोग सड़कों पर आ गये। भीड़ इतनी बढ़ गयी कि सरकार ने उस पेड़ को कटवाना ही बेहतर समझा।

चंद्रशेखर आज़ाद जी की आँखों में हर समय एक ही सपना रहा, जब तक वे जिए इसी उम्मीद के साथ जिए कि वे एक दिन ऐसे आज़ाद भारत को ज़रूर देखेंगे जहां अमीर गरीब में कोई भी भेदभाव ना हो,जहां व्यक्ति के ऐश्वर्य को नहीं बल्कि उसके गुणों को पहचान मिले।

जहाँ किसी का भी शोषण ना हो सके। जहाँ हर को समाजवादी हो और समाजवादी गुणों को बढ़ावा दे सके ताकि भारत दुनिया भर में अपनी एक अलग मिसाल रख सके। आज आज़ादी के 70 साल बाद भी हम कहीं न कहीं गुलाम ही रह गए है। क्योंकि ना तो देश भेदभाव मुक्त हुआ है और न ही भ्रष्टाचार मुक्त। 

इसलिए हमे चाहिए कि हम अपने वीर योद्धाओं के बलिदानों का मान रखते हुए एक ऐसे भारत का निर्माण करें जहाँ भ्रष्टाचार की नहीं शिष्टाचार की कदर हो ताकि ये देश वीरों के उस सपने जैसा समाजवादी बने जैसे वे चाहते थे। 

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